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रविवार, 13 नवंबर 2011

अंत तक सब शिष्ट और शालीन बने रहे पानीपत में

इतिहास भी वर्तमान के साथ पालतू पशु की तरह चला आता है- पीछे-पीछे. जब दिल्ली से सोनीपत होते हुए हमारी गाड़ी पानीपत पहुंची, तो थकान बिलकुल नहीं थी. रस्ते भर 'अचारों' के विज्ञापन देख-देख कर मुंह में पानी आता रहा. मैं सोचता रहा कि लौटते समय इन्हें खरीद कर ले जाऊंगा.
पहले ही होटल में काउंटर पर जब मैनेजर ने जवाब देने में थोड़ी देर लगाईं, तो मुझे लगा, यहाँ शायद जगह नहीं मिलेगी. मैं उसके मना करने से पहले ही वापस मुड़ने लगा किन्तु उसने आवाज़ देकर रोका, और हम वहीँ ठहरे.
शाम को एक जगह खाना खाने गए तो खाने का स्वाद देख कर अचरज में पड़ गए, कि इतना ज़ायकेदार खाना खाने इतने कम लोग क्यों आये  हैं. दो दिन शहर में घूमने के बाद पता लगा कि शहर ही छोटा है, और वहां हर जगह ही लोग कम हैं.
मुझे पानीपत में घूमते समय ही अपने परिचित सहकारी राकेश की याद आई. राकेश ने ही मुंबई में मेरा परिचय उसके अफसर भोंडेजी से करवाया  था. राकेश ने उनके सामने ही मुझसे पूछा था- आप भोंडे का मतलब जानते हैं? मेरे हाँ कहने पर भोंडेजी बहुत खुश हुए, यद्यपि वे भोंडे का मतलब न पहले जानते थे, और न मैंने ही उन्हें बताया. बात मेरे और राकेश के बीच ही रही, बहरहाल भोंडेजी दिन भर यह सोच कर प्रफुल्लित रहे कि उनके नाम का हिंदी में कोई मतलब भी है, और उनके दफ्तर वाले, यानि हम लोग उसे जानते भी हैं. वे दिन भर गर्व में भरे घूमते रहे. तो वह राकेश पानीपत का ही रहने वाला था.
पानीपत  भी हमारे देश के बहुत सारे उन शहरों की तरह ही है जिनके पास विकास का कोई स्पष्ट आधार या रूपरेखा नहीं है. लेकिन यह दिल्ली और चड़ीगढ़ को जोड़ने वाले रास्ते पर है, इसका कुछ लाभ इसे ज़रूर मिला है.
मैं बात कर रहा था- इतिहास और वर्तमान की, मेरा तात्पर्य यह है कि पानीपत में घूमते हुए आपको यह भी  याद आ ही जाता है कि यहाँ कभी भीषण युद्ध भी लड़ा गया था.युद्ध के कोई अवशेष अब वहां मौजूद नहीं हैं.  

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