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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

जब कोई युवा अपने बचपन की फोटो देखता है तब ऐसा ही सोचता है जैसे वह मैसूर में घूम रहा हो

ये क्या बात हुई? अपने बचपन की तस्वीर में मैसूर जैसा किसी को क्यों लगेगा? 
जब हम किसी पुरानी चीज़ या बात के बारे में गौर करते हैं तब वह हमें आजके मुकाबले पुरानी ही तो लगती है न? लेकिन हमारा बचपन हमें कभी भी पुराना नहीं लगता. वह हमें हमेशा ताजगी भरा लगता है. बस, यही मतलब है मेरा, मैसूर शहर भी पहली नज़र में ऐसा ही लगता है. और वह दूसरी नज़र में भी ऐसा ही लगता है. 
चौड़ी-चौड़ी सड़कें, जिंदा इतिहास के इश्तिहार से भवन, और संकोची स्वभाव  के लोग, जिन्हें हमेशा पसंद करने की इच्छा हो. 
एक बार दिल्ली में घूमते समय मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ के चावड़ी बाज़ार का नाम अंग्रेजों ने रखा है. मुझे लगता है कि अँगरेज़ व्यक्ति ने ज़रूर उसे चौड़ी गली कहा होगा. उसके उच्चारण को दिल्ली-वासियों ने अपना कर उसे चावड़ी बाज़ार कर दिया. मैसूर में चौड़ी सड़कों का और भी भव्य इस्तेमाल हुआ है. 
यहाँ एक और विशेषता आप देखेंगे. यहाँ मिठाई खाने और खिलाने का अंदाज़ भी निराला है.यह शौक मैसूर ने कोलकाता से लिया है.यदि आपने कभी राजस्थान के महल-हवेलियाँ देखी हैं तो आपको यह लगेगा कि उनका कुछ न कुछ कनेक्शन मैसूर से ज़रूर है. शायद अरसे से वहां बेशुमार राजस्थानियों का बसना भी इसका एक कारण हो.
मैसूर का दशहरा विख्यात है. राम ने तो रावण को एक ही जगह मारा होगा?फिर भी दशहरा मनाने की रीत अगर अलग-अलग मिलती है तो यह शहर-विशेष की अपनी तबीयत की कहानी है. हो सकता है वहां अच्छाई बुराई  को बुरी तरह दुत्कारती हो.इस शहर क़ी धूप को देखेंगे तो आपको इसे मुट्ठी में भर कर जेब में रखने का मन करेगा.यह तो आपको पता ही होगा कि कर्नाटक का नाम पहले मैसूर ही था.         

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

उसे आप युवा वृद्धावस्था कहेंगे या वृद्ध यौवन,इस विवाद में मत पड़िए,उसे ऋषिकेश कह लीजिये

अगर आप सड़क या रेल मार्ग से हरिद्वार से देहरादून जाएँ, तो आनंद बढ़ता जाता है, हरियाली बढ़ती जाती है, ठंडक बढ़ती जाती है, और जीवन के प्रति आपका अनुराग बढ़ता जाता है. कुछ लोग जीवन के प्रति बढ़ते अनुराग को ही वृद्धावस्था कहते हैं. 
आप इसे वृद्धावस्था न कह कर संत्रप्तता कहेंगे तो आपको ऋषिकेश देखने का आनंद और ज्यादा आयेगा. ऋषिकेश ऐसा शहर है जिसे देखने की सुध लोग बड़ी उम्र में ही लेते हैं, पर यहाँ गंगा और पहाड़ मिल कर आपको ऐसा लक्ष्मण-झूला झुलाते हैं कि आपको बचपन की लोरियां याद आ जाएँ. पूरा रास्ता ऋषि-मुनियों, महात्माओं, साधू-सन्यासियों की कुटियों, कंदराओं, बोधि-वृक्षों की स्मृति में एवेन्युओं, एन्क्लेवों,रिसोर्टों, और बंगलों से भरा पड़ा है. 
यहाँ गंगा साफ़ पानी से पत्थरों पर मीनाकारी करती है. वाहनों की ज़बरदस्त रेलम-पेल यह बताती है कि लोग दूर-दूर से यहाँ आते हैं, और इसी आवक ने यहाँ की व्यावसायिक हलचलों को भी बढ़ा दिया है.मंदिरों की विविधता तो दर्शनीय है ही, संख्या भी आश्चर्य-चकित करने वाली है. जिन लोगों ने "कुम्भ" के दिनों में ऋषिकेश को देखा है, वह अनुराग-बैराग का अंतर भूल चुके होंगे. 
मुझे ऋषिकेश की तलहटियों में एक बार पिचासी वर्षीय स्वामी शैलेन्द्र राज अरुण के साथ घूमने का भी अवसर मिला. अगर दिल्ली के दफ्तरों के बारे में बारीक़ जानकारी रखने वाला, बात-बात पर धारा-प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला कोई सन्यासी आपके साथ चल रहा हो तो आप उसके अतीत में झाँकने से अपने-आप को रोक नहीं सकते. मैंने भी इतना तो पता कर ही लिया कि दिल्ली में सरकारी सेवा से रिटायर हुए इस स्वामी की दिल्ली में संपत्ति भी है, और सम्बन्धी भी. फिर क्या है जो उसे यहाँ खींच लाया, इस प्रश्न का उत्तर स्वामीजी से पहले ऋषिकेश की वादियाँ देती हैं.   

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

खिली धूप, कच्चे दूध की सी आवाज़ और गले लगाने को आतुर लोगों का शहर भोपाल

मुझे भोपाल अच्छा लगता है. हर बार. वैसे तो पूरा मध्य प्रदेश ही अपनेपन की धरती है, पर ख़ास भोपाल तो याराना तबीयत का शहर है. इस शहर को यह हकीकत अच्छी तरह मालूम है, यह उस राज्य की राजधानी है जिसकी सीमाएं कहीं भी देश की सीमा से बाहर नहीं झाँकतीं. यही खालिस भारतीयपन इसमें कूट-कूट कर भरा है. जब इसे लोग ताल-तलैयों का शहर कहते हैं, तो मैं सोचता हूँ, पहाड़ियों का शहर क्यों नहीं कहते. अखबारों और ख़बरों का शहर क्यों नहीं कहते. लेखकों का शहर क्यों नहीं कहते. 
बेशुमार दफ्तरों के इस शहर में आप बेहद महफूज़ रहते हैं. अजनबी भी आपका ख्याल बड़ी ज़िम्मेदारी और अपनेपन से रखते हैं. सड़क पर ऑटो में जाते समय मेरे एक मित्र थोड़ा जल्दी में थे.वे बार-बार ड्रायवर को तेज़ चलाने के लिए कह रहे थे. सड़क के गड्ढों के कारण एक जगह रिक्शा जोर से उछला.मेरे मित्र यह देख कर अभिभूत  हो गए की उनका कोई शुभ-चिन्तक उसी रिक्शा में ड्रायवर के साथ मौजूद है, वह फ़ौरन बोला- ढंग से चला, बेचारे बाउजी का भेजा चटकायेगा क्या? 
भला बताइये, इस तरह आपका कहीं कोई ध्यान रखेगा? इतना ही नहीं, एक जगह सड़क पर पानी के किनारे से निकलते हुए थोड़ी कीचड़ उछल गई. कुछ छींटे मित्र के कपड़ों पर भी आये. ड्रायवर के मित्र ने फ़ौरन टोका- तू बाउजी की ऐसी की तैसी करके ही छोड़ेगा. 
मित्र जब रिक्शा से उतरे गर्व से भरे हुए थे, इस हिफाज़त भरे सत्कार पर. वे पैसे दे ही रहे थे, की ड्रायवर की फिर आवाज़ आई- बाउजी, वापस चलना हो तो मैं वेटिंग कर लूं, यहाँ रिक्शा नहीं मिला तो फालतू में सड़ते रहोगे. मित्र एक बार फिर गदगद हो गए, इस शुभ चिंता पर. 
वास्तव में बेमिसाल है, लेखकों का यह शहर, भाषा का शहर, अपनेपन की धरती.