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बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

वो रात और उदयपुर जिले का छोटा सा गाँव

उदयपुर के दक्षिण में बसे उस छोटे से गाँव में मेरी यात्रा केवल इस लिए हुई कि वहां का रहने वाला एक लड़का उस कैंटीन में काम करता था जिस से मेरे लिए चाय आती थी. लड़के का आग्रह था कि उसकी सगाई होने के बाद सारे गाँव को दिए गए भोज में मैं भी ज़रूर आऊं.भोज का समय शाम चार बजे से था, पर सारे गाँव के आते-आते और खाते-खाते सात बज गए. साढ़े सात बजते-बजते तो गाँव में लगभग सन्नाटा व्याप गया. और मैं वहां पहुंचा साढ़े आठ बजे.जीप को सड़क पर रोक कर जब पता पूछा गया तो मालूम हुआ कि मुख्य सड़क से लगभग दो किलोमीटर अन्दर जाना होगा और कुछ आगे तो जीप भी नहीं जा सकेगी, उसे वहीँ छोड़ना पड़ेगा. मैंने सोचा कि गाड़ी को यहीं छोड़ा जाये और ये दो किलोमीटर का रास्ता पैदल घूमते हुए ही पार किया जाये.
हम तीन लोग थे. पूरे रस्ते में मिट्टी और धूल का साम्राज्य था. चलते हुए ऐसा लगता था जैसे गो-धूलि वेला में पैरों से धूल उड़ाती गायें गाँव में घुसती हैं. पर रात बिलकुल दूधिया सफ़ेद चांदनी रात थी.गाँव के मकानों की सफ़ेद बुर्जियां दूर से चाँदी के मटकों समान लगती थीं.
जब अपने मेज़बान के घर हमने दस्तक दी तब तक घर के सभी लोग सोने की तैयारी कर चुके थे. हम बस बधाई देकर वापस निकलना चाहते थे. लड़का रसोई में पानी लेने के लिए गया तो उसकी माताजी भी पीछे-पीछे चाय बनाने और खाना परोसने के लिए उठ कर आईं.
मैंने खाने के लिए मना करके उन्हें वापस भेज दिया.वे मुश्किल से मानीं, और संकोच के साथ वापस गईं. उनके जाने के बाद मैंने उस लड़के से कहा कि हम लोग अब वापस जायेंगे, और यदि वह खुद चाय बनाना जानता हो तो हमें आधा-आधा कप चाय पिला दे.
मेरा सवाल सुनकर लड़के का जो चेहरा बना, वह देखने वाला था. मैं उसकी वह भंगिमा कभी भूल नहीं सकता.जानते हैं क्यों? क्योंकि वह हमारी कैंटीन का "चाय वाला" था,जिसका रोज़ का काम पचास लोगों के लिए दिन में दो बार चाय बनाना ही था.         

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