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शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

खिली धूप, कच्चे दूध की सी आवाज़ और गले लगाने को आतुर लोगों का शहर भोपाल

मुझे भोपाल अच्छा लगता है. हर बार. वैसे तो पूरा मध्य प्रदेश ही अपनेपन की धरती है, पर ख़ास भोपाल तो याराना तबीयत का शहर है. इस शहर को यह हकीकत अच्छी तरह मालूम है, यह उस राज्य की राजधानी है जिसकी सीमाएं कहीं भी देश की सीमा से बाहर नहीं झाँकतीं. यही खालिस भारतीयपन इसमें कूट-कूट कर भरा है. जब इसे लोग ताल-तलैयों का शहर कहते हैं, तो मैं सोचता हूँ, पहाड़ियों का शहर क्यों नहीं कहते. अखबारों और ख़बरों का शहर क्यों नहीं कहते. लेखकों का शहर क्यों नहीं कहते. 
बेशुमार दफ्तरों के इस शहर में आप बेहद महफूज़ रहते हैं. अजनबी भी आपका ख्याल बड़ी ज़िम्मेदारी और अपनेपन से रखते हैं. सड़क पर ऑटो में जाते समय मेरे एक मित्र थोड़ा जल्दी में थे.वे बार-बार ड्रायवर को तेज़ चलाने के लिए कह रहे थे. सड़क के गड्ढों के कारण एक जगह रिक्शा जोर से उछला.मेरे मित्र यह देख कर अभिभूत  हो गए की उनका कोई शुभ-चिन्तक उसी रिक्शा में ड्रायवर के साथ मौजूद है, वह फ़ौरन बोला- ढंग से चला, बेचारे बाउजी का भेजा चटकायेगा क्या? 
भला बताइये, इस तरह आपका कहीं कोई ध्यान रखेगा? इतना ही नहीं, एक जगह सड़क पर पानी के किनारे से निकलते हुए थोड़ी कीचड़ उछल गई. कुछ छींटे मित्र के कपड़ों पर भी आये. ड्रायवर के मित्र ने फ़ौरन टोका- तू बाउजी की ऐसी की तैसी करके ही छोड़ेगा. 
मित्र जब रिक्शा से उतरे गर्व से भरे हुए थे, इस हिफाज़त भरे सत्कार पर. वे पैसे दे ही रहे थे, की ड्रायवर की फिर आवाज़ आई- बाउजी, वापस चलना हो तो मैं वेटिंग कर लूं, यहाँ रिक्शा नहीं मिला तो फालतू में सड़ते रहोगे. मित्र एक बार फिर गदगद हो गए, इस शुभ चिंता पर. 
वास्तव में बेमिसाल है, लेखकों का यह शहर, भाषा का शहर, अपनेपन की धरती.   

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