अगर आप सड़क या रेल मार्ग से हरिद्वार से देहरादून जाएँ, तो आनंद बढ़ता जाता है, हरियाली बढ़ती जाती है, ठंडक बढ़ती जाती है, और जीवन के प्रति आपका अनुराग बढ़ता जाता है. कुछ लोग जीवन के प्रति बढ़ते अनुराग को ही वृद्धावस्था कहते हैं.
आप इसे वृद्धावस्था न कह कर संत्रप्तता कहेंगे तो आपको ऋषिकेश देखने का आनंद और ज्यादा आयेगा. ऋषिकेश ऐसा शहर है जिसे देखने की सुध लोग बड़ी उम्र में ही लेते हैं, पर यहाँ गंगा और पहाड़ मिल कर आपको ऐसा लक्ष्मण-झूला झुलाते हैं कि आपको बचपन की लोरियां याद आ जाएँ. पूरा रास्ता ऋषि-मुनियों, महात्माओं, साधू-सन्यासियों की कुटियों, कंदराओं, बोधि-वृक्षों की स्मृति में एवेन्युओं, एन्क्लेवों,रिसोर्टों, और बंगलों से भरा पड़ा है.
यहाँ गंगा साफ़ पानी से पत्थरों पर मीनाकारी करती है. वाहनों की ज़बरदस्त रेलम-पेल यह बताती है कि लोग दूर-दूर से यहाँ आते हैं, और इसी आवक ने यहाँ की व्यावसायिक हलचलों को भी बढ़ा दिया है.मंदिरों की विविधता तो दर्शनीय है ही, संख्या भी आश्चर्य-चकित करने वाली है. जिन लोगों ने "कुम्भ" के दिनों में ऋषिकेश को देखा है, वह अनुराग-बैराग का अंतर भूल चुके होंगे.
मुझे ऋषिकेश की तलहटियों में एक बार पिचासी वर्षीय स्वामी शैलेन्द्र राज अरुण के साथ घूमने का भी अवसर मिला. अगर दिल्ली के दफ्तरों के बारे में बारीक़ जानकारी रखने वाला, बात-बात पर धारा-प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला कोई सन्यासी आपके साथ चल रहा हो तो आप उसके अतीत में झाँकने से अपने-आप को रोक नहीं सकते. मैंने भी इतना तो पता कर ही लिया कि दिल्ली में सरकारी सेवा से रिटायर हुए इस स्वामी की दिल्ली में संपत्ति भी है, और सम्बन्धी भी. फिर क्या है जो उसे यहाँ खींच लाया, इस प्रश्न का उत्तर स्वामीजी से पहले ऋषिकेश की वादियाँ देती हैं.
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