मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

रविवार, 5 जून 2011

उन दिनों श्रीनगर में भीड़-भाड़ बिलकुल भी नहीं थी.

घर में से जब सब बच्चे और बड़े अपने-अपने स्कूल या दफ्तर चले जाते हैं, तो पीछे घर में रह जाने वाले इक्का-दुक्का लोगों को अपने घर में टंगे कलेंडर जैसे दिखाई देते हैं, वैसा ही लगता था उन दिनों श्रीनगर. जिस पर नज़र डाल कर तारीख भी देखी जा सके और तवारीफ़  भी.मंज़ूर सुबह-सुबह होटल के मेरे कमरे पर आ जाता था, और मेरे तैयार होने और नाश्ता करने के दौरान मुझे शहर की मौजूदा हलचल की जानकारी भी देता जाता था. एक दिन बोला- आज डल लेक में राजेश खन्ना और रीना राय की शूटिंग चल रही है, पहले वहीँ चलेंगे.
जब हम पहुंचे  तो पता लगा कि शूटिंग एक दिन पहले ही बंद करके सब जा चुके हैं.पर उस दिन डल झील में हमने करीब पांच घंटे सैर की. पानी की दुनिया को नज़दीक से देखा. पानी पर व्यापार, पानी पर इंतज़ार, पानी पर ज़िन्दगी अद्भुत है. जो लोग वहां घूमने आते हैं, उनकी आँखे चम्मच की तरह चपलता से चारों ओर के नज़ारे चख लेना चाहती  हैं.वहां के रहवासियों को लगता है, जो जितना अभिभूत होगा वह उतना ही दे जायेगा. इसलिए वे भी परोसने में कोई कोताही नहीं करते. 
लगे हाथ आपको यह भी बता दूं कि वहां की किस बात ने 'सांझा' कहानी का खाका मेरे दिमाग में  बनाया? जिस तरह एक बर्तन में रखा दूध अचानक फट जाता है, वैसे ही किसी छोटी सी बात पर मची भगदड़ वहां के निवासियों को अपने धर्मों में बाँट देती है. दूध कितना भी अचानक फटे, कुशल गृहणी इसका कारण जानती है, ठीक वैसे ही संबंधों के बीच नीबू निचोड़ देने वाले आतताई भी जानते हैं कि दंगे क्यों भड़के? उन्नीस साल के किशोर मंज़ूर ने अपने शरीर के कई ऐसे घावों के निशान मुझे दिखाए, जिनके लिए वो खुद कतई ज़िम्मेदार नहीं था. आप सोचेंगे कि ऐसे लोगों को पकड़ कर तड़ीपार क्यों नहीं किया जाता? दबी जुबां में इसका कारण यही है कि ऐसे लोग निरापद सरकारी बंगलों में भी हो सकते हैं और बस्ती पार की रहस्यमयी गलियों में भी.जिस तरह सेहरा में नखलिस्तान होते हैं, वैसे ही नखलिस्तानों की इस बस्ती में टापू की शक्ल में सेहरा भी.         

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें