यह साठ के दशक के आखिरी सालों की बात है.राजस्थान में पढ़ते हुए हम गर्मियों की छुट्टियों में देहरादून जाया करते थे. वहां राजपुर रोड पर एक बड़े से बंगले में मेरे अंकल रहते थे. ढेर सारे फलों से लदे पेड़ों वाले अहाते में हम सुबह-शाम खूब खेलते और हर दूसरे दिन घूमने जाते. देहरादून तब ऐसा था कि जैसे शहरों की भीड़-भाड़ से दूर कहीं हरे-भरे वीराने में आ गए हों. एक दिन दोपहर को शाम की चाय के साथ के नाश्ते के लिए कुछ अच्छा सा लेने की गरज से मैं और मेरी चचेरी बहन पास के बाज़ार में गए. गली में एक जगह पर कुछ दूर मुझे एक कागज़ पड़ा दिखाई दिया. मैंने अपनी आदत के अनुसार लोगों को एक सुन्दर जगह को गन्दा करने के लिए कोसते हुए सड़क के किनारे उतर कर वह कागज़ उठा लिया. वह कागज़ ब्रुक-बोंड चाय का एक खाली रैपर था. मैंने उसे कचरे की पेटी में फेंकते-फेंकते भी सरसरी तौर पर पढ़ लिया. उस पर एक "पज़ल" की शक्ल में प्रतियोगिता की सूचना थी.मैं उसे घर ले आया. मैंने गंदे कागज़ को धोया और फिर उसे किताबों के बीच दबा कर सुखाया. प्रतियोगिता यह थी कि उसमे कुछ लोगों के फोटो बने थे, जिनमे शरीर किसी एक वेशभूषा में था तथा चेहरा किसी दूसरे व्यक्तित्व का. जैसे एक सिख चेहरा था पर धड़ किसी पंडित का. ऐसे ही चेहरा किसान का था पर धड़ वकील का. बस, उन चेहरों को सही मिलान करके जमाना था और उसके साथ चाय पर एक छोटा सा स्लोगन लिखना था. मैंने उसे पूरा करके भेज दिया और कुछ दिन बाद स्कूल खुलने पर हम लोग वापस राजस्थान आ गए.
लगभग एक साल के बाद, एक दिन सुबह-सुबह अखबार आया तो मैं यह देख कर दंग रह गया कि उस प्रतियोगिता का दूसरा पुरस्कार मुझे मिला था, और बड़े-बड़े अक्षरों के साथ मेरा नाम छपा था.मुझे पचास साल पहले दो हज़ार रूपये का पुरस्कार मिला था जिसकी आज की कीमत शायद लाख हो.
अब देहरादून बहुत बड़ा हो गया है. कचरा भी सड़कों पर खूब रहता है, पर मेरा दिल कचरे में हाथ डालने से घबराता है. राजधानियों के कचरे में क्या पता क्या हो? कोई बम्ब ही फट जाये.
'सर्दी हो चाहे गर्मी,या होवे बरसात. ब्रुकबोंड की चाय, रहती है लाजवाब'.
चलिए पुरस्कार तो मिल गया, बधाई आपको
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