मेरे बारे में

मेरी फ़ोटो
I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

कोई चितेरा आस-पास नहीं था फिर भी यह द्रश्य था रत्नागिरी में

मुझे तो चेरापूंजी में भी इतनी बारिश नहीं मिली जितनी उस दिन रत्नागिरी में थी. होटल के कमरे से भी आखिर कितनी देर शहर को ताका जा सकता था, इसलिए जैसे ही बारिश का जोर कुछ कम हुआ हम लोग निकल पड़े समुद्र के किनारे.दो बातों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया.एक तो पैदल चलते-चलते सड़क के किनारे जितने भी बड़े-बड़े बंगले दिखे अधिकांश पर 'मीणा' सरनेम वाले लोगों का नाम था.दूसरे,समुद्र बीचों-बीच से एक लाइन खींच कर दो भागों में बांटा गया था.दोनों बातें ही हैरत में डालने वाली थीं. 
मुझे डॉ.सोहन शर्मा का लिखा उपन्यास "मीणा-घाटी" याद आने लगा. राजस्थान से निकली यह जनजाति आज कहाँ से कहाँ पहुँच गई.शिक्षा से जुड़ने का उनका जुनून आखिर रंग लाकर ही रहा.आज अच्छा लगता है, उन्हें हर जगह कुशलता से काम करते देख कर.
एक तरफ काला सागर और दूसरी तरफ पीला.लेकिन यह कमाल किसी चित्रकार का नहीं है, बल्कि पानी के नीचे बिछी उस रेत का है जो  दब तो गई,पर उसने अपना रंग नहीं बदला.उत्तर भारत में बरसात शुरू होने के बाद आम खाना बंद हो जाता है, पर रत्नागिरी के बड़े-बड़े केसरिया आम इस मौसम में भी लुभा रहे थे.  

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें