किसी सुपरस्टार को मेक-अप के बिना देखना भी दिलचस्प अनुभव है. और वह भी तब, जब वह आपके आगमन से बेखबर, मुंह फेर कर खड़ा हो. मैंने पहली बार कोलकाता ऐसे ही देखा था. जब कोलकाता की सारी खासियतों को ग्रहण लगा हुआ था.बल्कि यों कहें कि उस समय वह उलझनों में घिरा हुआ था.
मुझे मुंबई से एक मीटिंग में कोलकाता जाना था. वैसे तो उसी शाम को वापस लौट भी आना था, पर मैंने मन ही मन तय कर रखा था कि मैं एक दिन और रुक कर, वह पूरा समय शहर को देखने में बिताउंगा.मैं और मेरे मित्र वीरेंद्र याग्निक सुबह आठ बजे विमान से कोलकाता के लिए रवाना हो गए. करीब पौने ग्यारह बजे जब हम विमान तल की लॉबी से बाहर आये तो हमें यह सनसनीखेज़ सूचना मिली कि कोलकाता ने हमसे मिलने से इनकार कर दिया है. अर्थात उस दिन किसी कारणवश कोलकाता बंद का ऐलान हो गया.खबर हमारे लिए विशेष थी पर साम्यवाद की चपेट में घिरे शहर में यह रोज़मर्रा की बात थी और शहर इसका अच्छा-ख़ासा अभ्यस्त था.
नतीजा यह हुआ कि जो गाड़ी हमें लेने एयरपोर्ट पर आने वाली थी वह भी नहीं पहुंच सकी और हमें फोन से सलाह दी गई कि हम आज एयरपोर्ट के आस-पास किसी होटल में ठहर जाएँ.
नहा-धोकर दोपहर को जब हम बाहर निकले तो इक्का-दुक्का वाहनों की आवा-जाही शुरू हो चुकी थी. हम विक्टोरिया मैदान पहुंच गए. गार्डन में एक पेड़ के नीचे बैठ कर चने खाते हुए हमने थोड़ी ही दूर पर हो रही एक विशाल आम-सभा की आवाजें सुनीं. उस समय एक महिला बोल रही थी. "दो-चार सौ नौकरियों में आरक्षण पाकर यह मत समझो कि हमारा काम हो गया,अभी तो हमें सवर्णों के गले में पट्टा डाल कर उन्हें सड़क पर उसी तरह घसीटना है, जैसा सदियों से उन्होंने हमारे साथ किया"यह शब्द स्वयं मायावती जी के मुख से सुनने का अवसर हमें वहीँ मिला. हमें तो भाषण के बाद की इस घोषणा से ही उनका परिचय मिला कि- अभी आप सुश्री मायावती जी को सुन रहे थे.
शाम को हम आराम से शहर घूम पाए, और हमने हाथ से खींची जाने वाली रिक्शा-गाड़ी का आनंद भी वहीँ लिया.हमारे देश में यह अच्छी बात है कि सुबह शुरू होने वाले 'इन्कलाब' की हवा अमूमन शाम तक निकल जाती है.
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