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सोमवार, 4 जुलाई 2011

उस दिन वही सबसे 'डिलीशियस डिश' थी बंगलौर में

यह लगभग ४३ साल पहले की बात है. मुझे बंगलौर के सेंट जोसेफ कॉलेज के छात्रावास में २७ दिन तक रहने का अवसर मिला. वहां कोई शिविर लगा हुआ था.पहले ही दिन हमसे कहा गया कि हम भोजन के लिए शाकाहारी या मांसाहारी मैस का चयन कर लें.यह भी कहा गया कि जो मैस चुनी जाएगी उसी में रहना होगा, बीच में बदलने की अनुमति नहीं मिलेगी. मैं शाकाहारी मैस का सदस्य बन गया. 
हमें रोज़ सुबह नाश्ते में उपमा, इडली, डोसा, आदि विविध व्यंजन मिलते थे, किन्तु भोजन में विभिन्न चीज़ों के साथ चावल ही मिलते थे. हमें उन दिनों राजस्थान में रहने के कारण चावल खाने की आदत बिलकुल नहीं थी.राजस्थान में रोटी ही खाई जाती थी. लगभग २२ दिन तक लगातार रोटी को याद करते हुए चावल खाते रहने की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा.
उसके बाद संयोग से एक दिन घर से फोन आया कि बंगलौर में दूर के रिश्ते की कोई आंटी हैं, जो मिलने आ रही हैं. आंटी को जब यह पता चला कि हम लोग इतने दिन में यहाँ विधान-सभा, लालबाग, मैसूर के वृन्दावन गार्डन आदि सब घूम चुके हैं, तो वे शाम को शिविर-प्रभारी से अनुमति दिलवा कर वहां के एक शानदार होटल में खाना खिलाने ले गईं. उन्होंने बहुत उत्साह से आठ-दस व्यंजनों के नाम गिना कर मुझसे मेरी पसंद पूछी. वे अत्यधिक उत्साह में थीं और मुझे कुछ विशेष खिलाना चाहती थीं. 
मेरे मुंह खोलते ही उनके उत्साह पर मानो पानी पड़ गया.क्योंकि मैंने उनसे भिखारी की तरह दो "रोटी"की मांग की थी. [यह घटना ४३ साल पहले की है, आज के बंगलौर में तो शायद रोटी की इतनी वैरायटी मिल जाएँ कि चयन की माथा-पच्ची करनी भारी पड़ जाय]        

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