गोहाटी में उतर कर टैक्सी से मेघालय की ओर बढ़ते हुए आपको यह देखते हुए मज़ा आता है कि जिस सड़क पर आप तेज़ी से दौड़ रहे हैं, उसके एक तरफ असम है और दूसरी तरफ मेघालय. दो राज्यों को चीरते हुए आप जिस शहर की ओर बढ़ते हैं वह भी इंसानी रहवास की किसी सुनहरी जागीर से कम नहीं है. शिलांग को देख कर ऐसा लगता है जैसे कुछ किशोर होते बच्चों ने सिन्दूरी शाम को सागर किनारे रंगों और लकड़ी-पत्थरों से खेलते हुए अपने सपनों की कोई रिहायशी बस्ती बसा कर छोड़ दी हो, जहाँ वे अभी नहीं, बड़े हो जाने के बाद घर बसाने आयेंगे. शिलांग आधुनिक शहर है.
एक शाम मैं वहां इसी तरह घूमना चाहता था जैसे मैं उसी शहर का एक हिस्सा होऊं. मैंने ,जिस गेस्ट-हाउस में मैं ठहरा हुआ था, उसके लॉन में काम कर रहे किशोर से पूछा- क्या वह मुझे शहर घुमा कर ला सकता है? वह मुस्कराता हुआ तुरंत तैयार हो गया. लाल बनियान और प्रिंटेड लोअर में बग़ीचे में काम कर रहा वह लड़का पलक झपकते ही खाकी वर्दी-कैप में तैयार होकर एक गार्ड की तरह मेरे साथ चल पड़ा.
हमने शहर के नए बाज़ार देखे. पुरानी संकरी टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची गलियां देखीं. मैं सोचता रहा कि इन गलियों में रहने वालों और दुकानों में काम करने वालों को याद कैसे रहता होगा कि वे कहाँ रहते हैं? लेकिन अब उनमे से कई चेहरे मुझे भी याद हैं, और यह भी याद है कि वे कहाँ रहते हैं.हरे-भरे पहाड़ों पर सर्पीली सड़कों पर दौड़ती कारों को देखते समय मुझे लगातार यह लगता रहा कि बच्चे अपने इन खिलौनों को ढूंढते, कभी भी यहाँ आयेंगे. लेकिन अगर वे बड़े होकर आये तो? कोई बात नहीं. उनके साथ उनके बच्चे तो होंगे ही.
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