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शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

दूध का जला

इतनी बड़ी और लगातार चलने वाली यात्रा में नींद पूरी तरह न ले पाना क्यों हुआ, इसका भी एक कारण रहा।मैं अपनी यात्रा के साथी ड्रायवरों में से किसी पर भी कोई संदेह या अकुशलता की शिकायत नहीं कर रहा हूँ। वे सभी पूरे मन और उत्साह से मेरी यात्रा को सफल बनने में लगे रहे। फिर भी नींद न ले पाने का कारण बन कर एक छोटी सी घटना जो हुयी वह आपको सुना देना चाहता हूँ। हम लोग रात का खाना खाकर चित्तौडगढ़ से निकल रहे थे। रात के लगभग ग्यारह बजे थे। मैं ड्रायवर के साथ वाली आगे की सीट पर बैठा था। खाने से पूरी तरह तृप्त होकर अब ड्रायवर लम्बी दूरी पार कर जाने के मूड में था। उसने मुझसे आग्रह किया कि मैं पीछे वाली सीट पर जाकर आराम से सो जाऊं।हमें एक लम्बा और अपेक्षा कृत सुनसान रास्ता लेना था जो कोटा को जाता था। मैं पीछे वाली सीट पर आकर सो गया। लगभग पौने दो घंटे के बाद किसी स्पीड-ब्रेकर पर झटके से मेरी आँख खुली।मैंने खिड़की से बाहर देखा। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नरहा जब मैंने देखा कि गाड़ी चित्तौडगढ़ के बाहरी क्षेत्र के उसी चौराहे से गुज़र रही थी जिस से पौने दो घंटे पहले हम चले थे। पूछने पर चालक ने संकोच से बताया कि वह एक चौराहे पर गलत दिशा में मुड गया था जहाँ से उसे लगभग पचपन किलो मीटर जाकर वापस लौटना पड़ा। मेरे उसे कुछ भी न कहने पर उसने रफ़्तार बढ़ा कर समय बचाने का प्रयास स्वतः ही कर दिया। उस घटना के बाद मैं रस्ते में कभी सो न सका। बाद में मुझे यह भी पताचला कि एक चौराहे पर दिशा-सूचक बोर्ड अंग्रेजी में लगा होने के कारण ड्रायवर उसे पढ़ नहीं सका था। शायद यह भूल राज मार्ग प्राधिकरण के साथ-साथ उस महकमे की भी थी जिसने संकेतों को समझने की परीक्षा लिए बिना चालक को लाइसेंस जारी किया था।

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