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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

"डायरी-21"

मैं दिन में किसी समय मौका देख कर, अकेलापन ढूंढ कर लिखता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी  कोई ज़रुरत नहीं। यहाँ न कोई मेरी भाषा समझता है और न ही किसी को लिखे हुए अक्षर देखने की जिज्ञासा है। किसी दुराव-छिपाव की कोई ज़रुरत नहीं। लेकिन अब मुझे इस बात का खतरा है कि  कहीं मैं और सख्त होकर टिप्पणी  न करने लगूं।हाँ, कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि  मुझे इनकी निंदा करनी चाहिए। ये इतना पक्षपात क्यों करते हैं?
आज महल के पिछवाड़े एक ऊंचे से पेड़ पर रस्सी का झूला डाल कर महल की सभी महिलायें देर तक झूलीं। वे कुछ गाती भी रहीं, और हंसती-हंसाती रहीं।
लेकिन तभी एकाएक माहौल बदल गया, जब मंदिर के बाहरी  दालान में झाड़ू लगाने वाली औरत की छोटी सी बिटिया, थोड़ी देर के लिए खाली पड़े झूले पर आकर बैठ गई।सभी का मूड खराब हो गया। दौड़ कर कुछ दासियों ने उसे ऐसे उतारा, मानो किसी फूल पर आकर चील बैठ गई हो। ऐसा उस नन्ही लड़की की जाति  के कारण हुआ। लेकिन अब जाति तो उसकी जीवन-भर यही रहेगी। तो क्या झूला बार-बार इसी तरह धोया जाता रहेगा?

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