कुरुक्षेत्र का नाम ही युद्ध का पर्याय बन गया है. हम लोग पुरी घूमने गए हुए थे. वहां कुछ और मित्र भी आये हुए थे. शाम को वहीँ से सबको अलग-अलग जगह की गाड़ियाँ पकड़नी थीं.कुरुक्षेत्र से आयी एक मित्र ने कहा-अब आप लोग कभी कुरुक्षेत्र आइये. हमने स्वीकृति देदी. विदा होते समय उन्होंने कहा- "अच्छा, अब तो कुरुक्षेत्र में मिलेंगे". उनके इस वाक्य से लगा- यह आमंत्रण है या कोई ललकार. इतिहास ने यह नाम ऐसा ही बना दिया है.
कुरुक्षेत्र जाने का मौका भी जल्दी ही मिल गया. अम्बाला के कहानी-लेखन महाविद्यालय का लेखक शिविर था. आमंत्रण मिलते ही जाने का कार्यक्रम बना लिया. शिविर के बाद महाभारत के दिनों को याद करते हुए हम लोग खूब घूमे.
गहराती शाम को जब हम लौट रहे थे, अम्बाला की ओर भागती हमारी दो कारें ज़रा आगे-पीछे हो गयीं.मित्रों द्वारा मोबाइल पर संदेशों का आदान-प्रदान बिलकुल बच्चों के से उत्साह से हो रहा था. कभी कोई आगे, तो कभी कोई. चालकों को इस उत्साह से और उमंग मिल रही थी, वे गाड़ियों की स्पीड और बढ़ाते जा रहे थे. शानदार राज-मार्ग पर गति नियंत्रण करने की बात सोचने की ज़रुरत किसी ने भी नहीं समझी. तेज़ी से पीछे छूट रहे थे, हरियाली और रास्ते. तभी अचानक संदेशों के आदान-प्रदान में बाधा आई. संपर्क जैसे यकायक टूट गया. थोड़ी देर तो अटकलें लगती रहीं कि नेट-वर्क की समस्या होगी, पर फिर चिंतित करने वाला विलम्ब होने लगा. हमारी गाड़ी से दूसरी गाड़ी का संपर्क टूट गया. उस गाड़ी के पीछे रह जाने का अनुमान था. हमारी गाड़ी रोक दी गयी. जब विलम्ब नागवार होने लगा, तो भारी मन से गाड़ी को वापस लौटाया गया.अब तरह-तरह की शंकाएं हो रही थीं, और इस शहर के नाम से जुड़े नक्षत्र याद आने लगे.
कुछ दूर जाने पर सड़क के किनारे दूसरी गाड़ी को दुर्घटना-ग्रस्त पाया. यह किसी की उपलब्धि नहीं थीं, इस लिए इस घटना को फिर से याद करने का मन नहीं हो रहा. बात बदलता हूँ. इतना ज़रूर कहूँगा कि आजकल वाहनों की रफ़्तार को नई-पीढ़ी पतंग उड़ाने जैसा काम समझने लगी है.अपनी और दूसरों की जान को जोखिम में झोंकना एक मानसिक रोग ही है, जो एक दिन हमारी सभ्यता के ताबूत पर अपने हस्ताक्षर करके छोड़ेगा.