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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

शनिवार, 30 जुलाई 2011

डर और डरा देता है,कुरुक्षेत्र से निकल कर यह जाना

कुरुक्षेत्र का नाम ही युद्ध का पर्याय बन गया है. हम लोग पुरी घूमने गए हुए थे. वहां कुछ और मित्र भी आये हुए थे. शाम को वहीँ से सबको अलग-अलग जगह की गाड़ियाँ पकड़नी थीं.कुरुक्षेत्र से आयी एक मित्र ने कहा-अब आप लोग कभी कुरुक्षेत्र आइये. हमने स्वीकृति देदी. विदा होते समय उन्होंने कहा- "अच्छा, अब तो कुरुक्षेत्र में मिलेंगे". उनके इस वाक्य से लगा- यह आमंत्रण है या कोई ललकार. इतिहास ने यह नाम ऐसा ही बना दिया है. 
कुरुक्षेत्र जाने का मौका भी जल्दी ही मिल गया. अम्बाला के कहानी-लेखन महाविद्यालय का लेखक शिविर था. आमंत्रण मिलते ही जाने का कार्यक्रम बना लिया. शिविर के बाद महाभारत के दिनों को याद करते हुए हम लोग खूब घूमे. 
गहराती शाम को जब हम लौट रहे थे, अम्बाला की ओर  भागती हमारी दो कारें ज़रा आगे-पीछे हो गयीं.मित्रों द्वारा मोबाइल पर संदेशों का आदान-प्रदान बिलकुल बच्चों के से उत्साह से हो रहा था. कभी कोई आगे, तो कभी कोई. चालकों को इस उत्साह से और उमंग मिल रही थी, वे गाड़ियों की स्पीड और बढ़ाते जा रहे थे. शानदार राज-मार्ग पर गति नियंत्रण करने की बात सोचने की ज़रुरत किसी ने भी नहीं समझी. तेज़ी से पीछे छूट रहे थे, हरियाली और रास्ते. तभी अचानक संदेशों के आदान-प्रदान में बाधा आई. संपर्क जैसे यकायक टूट गया. थोड़ी देर तो अटकलें लगती रहीं कि नेट-वर्क की समस्या होगी, पर फिर चिंतित करने वाला विलम्ब होने लगा. हमारी गाड़ी से दूसरी गाड़ी का संपर्क टूट गया. उस गाड़ी के पीछे रह जाने का अनुमान था. हमारी गाड़ी रोक दी गयी. जब विलम्ब नागवार होने लगा, तो भारी मन से गाड़ी को वापस लौटाया गया.अब तरह-तरह की शंकाएं हो रही थीं, और इस शहर के नाम से जुड़े नक्षत्र याद आने लगे. 
कुछ दूर जाने पर सड़क के किनारे दूसरी गाड़ी को दुर्घटना-ग्रस्त पाया. यह किसी की उपलब्धि नहीं थीं, इस लिए इस घटना को फिर से याद करने का मन नहीं हो रहा. बात बदलता हूँ. इतना ज़रूर कहूँगा कि आजकल वाहनों की रफ़्तार को नई-पीढ़ी पतंग उड़ाने जैसा काम समझने लगी है.अपनी और दूसरों की जान को जोखिम में झोंकना एक मानसिक रोग ही है, जो एक दिन हमारी सभ्यता के ताबूत पर अपने हस्ताक्षर करके छोड़ेगा.      

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

समुद्र के किनारे खेलते टीन-एजर बच्चों का बनाया शहर शिलांग

गोहाटी में उतर कर टैक्सी से मेघालय की ओर बढ़ते हुए आपको यह देखते हुए मज़ा आता है कि जिस सड़क पर आप तेज़ी से दौड़ रहे हैं, उसके एक तरफ असम है और दूसरी तरफ मेघालय. दो राज्यों को चीरते हुए आप जिस शहर की ओर बढ़ते हैं वह भी इंसानी रहवास की किसी सुनहरी जागीर से कम नहीं है. शिलांग को देख कर ऐसा लगता है जैसे कुछ किशोर होते बच्चों ने सिन्दूरी शाम को सागर किनारे रंगों और लकड़ी-पत्थरों से खेलते हुए अपने सपनों की कोई रिहायशी बस्ती बसा कर छोड़ दी हो, जहाँ वे अभी नहीं, बड़े हो जाने के बाद घर बसाने आयेंगे. शिलांग आधुनिक शहर है. 
एक शाम मैं वहां इसी तरह घूमना चाहता था जैसे मैं उसी शहर का एक हिस्सा होऊं. मैंने ,जिस गेस्ट-हाउस में मैं ठहरा हुआ था, उसके लॉन में काम कर रहे किशोर से पूछा- क्या वह मुझे शहर घुमा कर ला सकता है? वह मुस्कराता हुआ तुरंत तैयार हो गया. लाल बनियान और प्रिंटेड लोअर में बग़ीचे में काम कर रहा वह लड़का पलक झपकते ही खाकी वर्दी-कैप में तैयार होकर एक गार्ड की तरह मेरे साथ चल पड़ा. 
हमने शहर के नए बाज़ार देखे. पुरानी संकरी टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची गलियां देखीं. मैं सोचता रहा कि इन गलियों में रहने वालों और दुकानों में काम करने वालों को याद कैसे रहता होगा कि वे कहाँ रहते हैं? लेकिन अब उनमे से कई चेहरे मुझे भी  याद हैं, और यह भी याद है कि वे कहाँ रहते हैं.हरे-भरे पहाड़ों पर सर्पीली सड़कों पर दौड़ती कारों को देखते समय मुझे लगातार यह लगता रहा कि बच्चे अपने इन खिलौनों को ढूंढते, कभी भी यहाँ आयेंगे. लेकिन अगर वे बड़े होकर आये तो? कोई बात नहीं. उनके साथ उनके बच्चे तो होंगे ही.      

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

देशप्रेम जागा फिरोजपुर में



फिरोजपुर वैसे तो छोटा सा ही शहर है, लेकिन यहाँ लोगों की सक्रियता अच्छी लगती है. शायद इसका एक कारण यह भी है कि यहाँ से थोड़ी ही दूर भारत की सीमा का होना लोगों में यह भाव जगाये रखता है कि वे लोग देश के प्रहरी हैं. 
मैंने 'मदर इंडिया' फिल्म वहीँ देखी.एक मित्र मिले जो मुझे देश की सीमा दिखाने भी ले गए.दरअसल यहाँ से सीमा पार करके जो देश है [पाकिस्तान] उस से हमारे रिश्ते अच्छे नहीं हैं ,इसी बात का असर यहाँ दीखता है. बेहद ठंडापन पसरा रहता है. वर्ना सीमाओं पर तो हलचल रहनी ही चाहिए. यह तो ऐसी जगह होती है जहाँ हर देश अपना 'बेहतर' देता है.कहते हैं कि जिनमे प्रेम ज्यादा होता है, उनमे जब दुश्मनी हो, तो वह भी गहरी होती है. फिर पाकिस्तान तो कभी हमारा ही हिस्सा रहा है. यह तो "सगे भाइयों" वाली दुश्मनी है. इसी ने फिरोजपुर के रंग और नूर भी छीन रखे हैं. 

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

आखिर कुछ तो बात होती होगी ब्यूटी-पार्लर से निकले लोगों में



नैसर्गिक सौन्दर्य का कोई मुकाबला नहीं, ये माना पर आखिर सुन्दरता को तराशने का भी तो अपना महत्त्व है. इस बात पर अच्छा-खासा विवाद हो सकता है कि किसी राज्य का टूटना उसके हित में होता है या अहित में. लेकिन विवादों के परे ये तो हमें मानना ही पड़ेगा कि राज्यों को विकास के लिए ही छोटा बनाया जाता है. अर्थात किसी राज्य का विभाजन एक तरह से उसे विकास के लिए तराशना ही है. पंजाब को चार बार तराशा गया है. एक हिस्सा पाकिस्तान में चला गया,एक हिमाचल से वाबस्ता है, एक हरियाणा के रूप में अलग निकल गया और एक चंडीगढ़ के नाम से अब हरियाणा के साथ राजधानी रूप में केंद्र-शासित बना हुआ है. इस तरह बार-बार की  कटाई-छटाई ने पंजाब को किसी बगीचे के 'डिज़ाईनर' पेड़ की तरह बना दिया है.यह छोटा पर सम्पूर्ण प्रदेश बन गया है. 
इसके मुख्य शहरों में एक, लुधियाना की गति भी 'हवा-हवाई' है.यह काफी फ़ैल गया है. यहाँ के ऊनी- वस्त्र उद्योग का झंडा तो हर तरफ लहरा रहा है. शानदार आधुनिक दुकानों में रखा रंग-बिरंगा सामान यहाँ ऐसा लगता है मानो बर्फ की सिल्लियों की शक्ल में आइस-क्रीम सजी हो. ग्रामीण पंजाब से लुधियाना का रिश्ता अब सौतेले भाइयों से भी दूर का हो चला है. आस-पास के गाँव ऐसे लगते हैं जैसे शहर की खिडकियों से दूर देश का नज़ारा दिख रहा हो. लुधियाना के फंदों में अब दुनिया का गला है.

शनिवार, 16 जुलाई 2011

ab ham unhen pagdandiyan nahin express highway kahenge

यह अच्छी बात है या बुरी, कि अब जालंधर के आस-पास आपको गाँव नहीं मिलते. वे कहाँ गए? जब आप लुधियाना से सड़क के रास्ते जालंधर जाते हैं तो सारा रास्ता आपको कनाडा में होने का अहसास देता है. ऐसी दुकानों से आपका साक्षात्कार होता है, जो वर्षों पहले दिल्ली के कनाट-प्लेस वासियों को ही नसीब थीं. बीच में कहीं हरियाली और रास्ता दीखता भी है तो वह आपको वेनेज़ुएला और चिली की याद दिलाता है. 
कहीं किसी ढलान पर चारागाह में यदि कुछ मवेशी नज़र भी आते हैं तो वे कृष्ण की मुरली की याद नहीं दिलाते, बल्कि माइकल जैक्सन की थाप पर थिरकते दीखते हैं. 
मैं जब होटल के अपने कमरे में सुबह सोकर उठा, तो एक सिख युवक को चाय की ट्रे हाथ में लिए देखा. कमरे की हाउसकीपिंग के लिए भी सिख युवक ही थे. मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि हर जगह मेहनत और श्रम के काम में आप उन्हें आगे देखेंगे. सारे विकास और आर्थिक सम्पन्नता के बाद भी उनमे काम से जी चुराने की प्रवृत्ति नहीं आई है.वे अपने होटलों के मालिक होते हुए भी वहां के सब काम अपने हाथ से करना पसंद करते हैं. हमारे ही देश में ऐसे भी शहर हैं, जिनमे उन लोगों को जूते पहनाने-उतारने का काम दूसरे लोग करते हैं, जिनके पास पैसा आ जाता है. 
शीशे की दुकानों के पार्श्व में हरे-पीले फूल और खेत थोड़ा खिसक गए प्रतीत होते हैं. लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अमेरिका- कनाडा की अच्छी बातों को ग्रहण करने में सबसे ज्यादा तत्पर इसी अंचल के लोग हैं. 

सोमवार, 4 जुलाई 2011

उस दिन वही सबसे 'डिलीशियस डिश' थी बंगलौर में

यह लगभग ४३ साल पहले की बात है. मुझे बंगलौर के सेंट जोसेफ कॉलेज के छात्रावास में २७ दिन तक रहने का अवसर मिला. वहां कोई शिविर लगा हुआ था.पहले ही दिन हमसे कहा गया कि हम भोजन के लिए शाकाहारी या मांसाहारी मैस का चयन कर लें.यह भी कहा गया कि जो मैस चुनी जाएगी उसी में रहना होगा, बीच में बदलने की अनुमति नहीं मिलेगी. मैं शाकाहारी मैस का सदस्य बन गया. 
हमें रोज़ सुबह नाश्ते में उपमा, इडली, डोसा, आदि विविध व्यंजन मिलते थे, किन्तु भोजन में विभिन्न चीज़ों के साथ चावल ही मिलते थे. हमें उन दिनों राजस्थान में रहने के कारण चावल खाने की आदत बिलकुल नहीं थी.राजस्थान में रोटी ही खाई जाती थी. लगभग २२ दिन तक लगातार रोटी को याद करते हुए चावल खाते रहने की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा.
उसके बाद संयोग से एक दिन घर से फोन आया कि बंगलौर में दूर के रिश्ते की कोई आंटी हैं, जो मिलने आ रही हैं. आंटी को जब यह पता चला कि हम लोग इतने दिन में यहाँ विधान-सभा, लालबाग, मैसूर के वृन्दावन गार्डन आदि सब घूम चुके हैं, तो वे शाम को शिविर-प्रभारी से अनुमति दिलवा कर वहां के एक शानदार होटल में खाना खिलाने ले गईं. उन्होंने बहुत उत्साह से आठ-दस व्यंजनों के नाम गिना कर मुझसे मेरी पसंद पूछी. वे अत्यधिक उत्साह में थीं और मुझे कुछ विशेष खिलाना चाहती थीं. 
मेरे मुंह खोलते ही उनके उत्साह पर मानो पानी पड़ गया.क्योंकि मैंने उनसे भिखारी की तरह दो "रोटी"की मांग की थी. [यह घटना ४३ साल पहले की है, आज के बंगलौर में तो शायद रोटी की इतनी वैरायटी मिल जाएँ कि चयन की माथा-पच्ची करनी भारी पड़ जाय]        

शनिवार, 2 जुलाई 2011

ग्रीन-रूम में कपड़े बदलता हुआ कोलकाता

किसी सुपरस्टार को मेक-अप के बिना देखना भी दिलचस्प अनुभव है. और वह भी तब, जब वह आपके आगमन से बेखबर, मुंह फेर कर खड़ा हो. मैंने पहली बार कोलकाता ऐसे ही देखा था. जब कोलकाता की सारी खासियतों को ग्रहण लगा हुआ था.बल्कि यों कहें कि उस समय वह उलझनों में घिरा हुआ था. 
मुझे मुंबई से एक मीटिंग में कोलकाता जाना था. वैसे तो उसी शाम को वापस लौट भी आना था, पर मैंने मन ही मन तय कर रखा था कि मैं एक दिन और रुक कर, वह पूरा समय शहर को देखने में बिताउंगा.मैं और मेरे मित्र वीरेंद्र याग्निक सुबह आठ बजे विमान से कोलकाता के लिए रवाना हो गए. करीब पौने ग्यारह बजे जब हम विमान तल की लॉबी से बाहर आये तो हमें यह सनसनीखेज़ सूचना मिली कि कोलकाता ने हमसे मिलने से इनकार कर दिया है. अर्थात उस दिन किसी कारणवश कोलकाता बंद का ऐलान हो गया.खबर हमारे लिए विशेष थी पर साम्यवाद की चपेट में घिरे शहर में यह रोज़मर्रा की बात थी और शहर इसका अच्छा-ख़ासा अभ्यस्त था.
नतीजा यह हुआ कि जो गाड़ी हमें लेने एयरपोर्ट पर आने वाली थी वह भी नहीं पहुंच सकी और हमें फोन से सलाह दी गई कि हम आज एयरपोर्ट के आस-पास किसी होटल में ठहर जाएँ. 
नहा-धोकर दोपहर को जब हम बाहर निकले तो इक्का-दुक्का वाहनों की आवा-जाही शुरू हो चुकी थी. हम विक्टोरिया मैदान पहुंच गए. गार्डन में एक पेड़ के नीचे बैठ कर चने खाते हुए हमने थोड़ी ही दूर पर हो रही एक विशाल आम-सभा की आवाजें सुनीं. उस समय एक महिला बोल रही थी. "दो-चार सौ नौकरियों में आरक्षण पाकर यह मत समझो कि हमारा काम हो गया,अभी तो हमें सवर्णों के गले में पट्टा डाल कर उन्हें सड़क पर उसी तरह घसीटना है, जैसा सदियों से उन्होंने हमारे साथ किया"यह शब्द स्वयं मायावती जी के मुख से सुनने का अवसर हमें वहीँ मिला. हमें तो भाषण के बाद की इस घोषणा से ही उनका परिचय मिला कि- अभी आप सुश्री मायावती जी को सुन रहे थे. 
शाम को हम आराम से शहर घूम पाए, और हमने हाथ से खींची जाने वाली रिक्शा-गाड़ी का आनंद भी वहीँ लिया.हमारे देश में यह अच्छी बात है कि सुबह शुरू होने वाले 'इन्कलाब' की हवा अमूमन शाम तक निकल  जाती है.