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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

रविवार, 26 जून 2011

अहमदाबाद से पहला परिचय अच्छा नहीं था

मैं उन दिनों जयपुर में पढ़ता था, दसवी में.स्कूल में नोटिस लगा कि बंगलौर में एक कैम्प लग रहा है जिसमे भाग लेने के लिए राजस्थान से १५ विद्यार्थियों का चयन होगा.एक लम्बी और कठिन प्रक्रिया के बाद जो विद्यार्थी चुने गए, उनमे हम तीन जयपुर से भी थे. 
हमें अहमदाबाद होकर बंगलौर जाना था, जिसका आरक्षण विद्यालय ने करवा दिया. हम तीनों के साथ जयपुर से एक टीचर भी थे. यह अध्यापक काफी युवा थे और इनकी नई-नई शादी हुई थी.ये अपने साथ अपनी नव-विवाहिता पत्नी को भी ले गए, और हम तीनों को यह ताकीद कर दी गई कि हम यह बात अपने घरवालों या स्कूल में न बताएं. जयपुर से रात भर का सफ़र करके हम अगली सुबह अहमदाबाद पहुँच गए.यहाँ से दिन भर के विराम के बाद देर रात को हमारी अगली ट्रेन थी. सुबह दैनिक-कार्यों से निवृत होकर हमने अपना सामान स्टेशन के क्लॉक-रूम में रखा और शहर घूमने के लिए निकल पड़े. गाँधी-आश्रम होकर हम एक भीड़-भरी बस से कांकरिया झील आ ही रहे थे कि बस में अपने टीचर की घबराहट-भरी आवाज़ सुन कर हम सन्न रह गए. किसी ने उनका पर्स जेब से निकाल लिया था. इसी पर्स में हमारे आगे के यात्रा-टिकट, स्टेशन पर रखे सामान की रसीद और काफी सारी धन-राशि थी.बस रुकवा कर हम सब उतरे और हमारे सर नजदीक के फुटपाथ पर सर पकड़ कर बैठ गए. 
नई-नवेली गुरुमाता के पर्स में पड़े कुछ पैसों से हम सब किसी तरह स्टेशन आये. भूख-प्यास सब हवा हो गई. अब हमारी अगली चिंता यह थी कि बिना रसीद के स्टेशन पर अपना सामान वापस कैसे लें. आगे की यात्रा के टिकटों का प्रबंध भी करना था.हमारे सर ने तो हताशा से यह घोषणा कर दी कि अब कुछ नहीं हो सकता,किसी तरह अपने-अपने पैसे इकट्ठे करो और वापस लौटो. 
किन्तु हमारी गुरुमाता साहस और हिम्मत में सर से कई गुणा आगे निकलीं.उन्होंने घोषणा की, कि यदि सामान मिल जाता है तो सब समस्या हल हो जाएगी.वे अपनी शापिंग को तिलांजलि देकर पैसों से सबकी मदद करने को तैयार थीं. उन सब को चिंतामग्न बैठा छोड़ कर मैं और एक अन्य मित्र स्टेशन-मास्टर से मिलने चल दिए.मैडम की बात से हमें बहुत सहारा मिला था. 
सारी बात पूरी संजीदगी से सुनने के बाद स्टेशन-मास्टर साहब ने हमसे कहा कि यदि हम किसी स्थानीय व्यक्ति को जमानतदार के तौर पर साथ में ला सकें तो वे सामान दिलवाने में हमारी मदद करेंगे. हम न तो किसी को जानते थे और न ही हमारे पास कोई पहचान-पत्र या सबूत थे.पर हमने हिम्मत नहीं छोड़ी. हम स्टेशन से बाहर निकल कर बाज़ार में आ गए. दुकानों के बोर्ड पढ़ते-पढ़ते हम एक मारवाड़ी होटल तक पहुँचने में कामयाब हो गए. किस्मत अच्छी थी कि एक बैरे से बातचीत में हमें सेठ के जयपुर का होने की खबर मिल गयी. हमने भिखारियों  को भी मात देने वाली दयनीयता से सेठ के सामने सारा किस्सा बयान कर डाला.सेठजी पहले तो कुछ असमंजस में पड़े पर फिर हमारे स्कूल का नाम सुन, आश्वस्त होकर गद्दी से उतर हमारे आगे-आगे चल पड़े. 
अब हम शान से चल रहे थे क्योंकि एक स्थानीय होटल का मालिक हमारा रहनुमा बन चुका था.हमारा सारा काम हो गया और हम अगले दिन सुबह की गाड़ी से बंगलौर के लिए रवाना हो पाए. 
निश्चय ही अब हमारे 'हीरो' हमारे सर नहीं, बल्कि मैडम बन चुकी थीं. 
इतना सा आपको और बता दूं कि बंगलौर से मैं उस कैम्प में तत्कालीन उपराष्ट्रपति महोदय के हाथों पुरस्कार लेकर लौटा. और ज़िन्दगी के बहुत सारे सबक भी.                 

बुधवार, 22 जून 2011

तब सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन राजधानी बनेगा देहरादून

यह साठ के दशक के आखिरी सालों की बात है.राजस्थान में पढ़ते हुए हम गर्मियों की छुट्टियों में देहरादून जाया करते थे. वहां राजपुर रोड पर एक बड़े से बंगले में मेरे अंकल रहते थे. ढेर सारे फलों से लदे पेड़ों वाले  अहाते में हम सुबह-शाम खूब खेलते और हर दूसरे दिन घूमने जाते. देहरादून तब ऐसा था कि जैसे शहरों की भीड़-भाड़ से दूर कहीं हरे-भरे वीराने में आ गए हों. एक दिन दोपहर को शाम की चाय के साथ के नाश्ते के लिए कुछ अच्छा सा लेने की गरज से मैं और मेरी चचेरी बहन पास के बाज़ार में गए. गली में एक जगह पर कुछ दूर मुझे एक कागज़ पड़ा दिखाई दिया. मैंने अपनी आदत के अनुसार लोगों को एक सुन्दर जगह को गन्दा करने के लिए कोसते हुए सड़क के किनारे उतर कर वह कागज़ उठा लिया. वह कागज़ ब्रुक-बोंड चाय का एक खाली रैपर था. मैंने उसे कचरे की पेटी में फेंकते-फेंकते भी सरसरी तौर पर पढ़ लिया. उस पर एक "पज़ल" की शक्ल में प्रतियोगिता की सूचना थी.मैं उसे घर ले आया. मैंने गंदे कागज़ को धोया और फिर उसे किताबों के बीच दबा कर सुखाया. प्रतियोगिता यह थी कि उसमे कुछ लोगों के फोटो बने थे, जिनमे शरीर किसी एक वेशभूषा में था तथा चेहरा किसी दूसरे व्यक्तित्व का. जैसे एक सिख चेहरा था पर धड़ किसी पंडित का. ऐसे ही चेहरा किसान का था पर धड़ वकील का. बस, उन चेहरों को सही मिलान करके जमाना था और उसके साथ चाय पर एक छोटा सा स्लोगन लिखना था. मैंने उसे पूरा करके भेज दिया और कुछ दिन बाद स्कूल खुलने पर हम लोग वापस राजस्थान आ गए. 
लगभग एक साल के बाद, एक दिन सुबह-सुबह अखबार आया तो मैं यह देख कर दंग रह गया कि उस प्रतियोगिता का दूसरा पुरस्कार मुझे मिला था, और बड़े-बड़े अक्षरों के साथ मेरा नाम छपा था.मुझे पचास साल पहले दो हज़ार रूपये का पुरस्कार मिला था जिसकी आज की कीमत शायद लाख हो. 
अब देहरादून बहुत बड़ा हो गया है. कचरा भी सड़कों पर खूब रहता है, पर मेरा दिल कचरे में हाथ डालने से घबराता है. राजधानियों के कचरे में क्या पता क्या हो? कोई बम्ब ही फट जाये. 

'सर्दी हो चाहे गर्मी,या होवे बरसात. ब्रुकबोंड की चाय, रहती है लाजवाब'.       

गुरुवार, 9 जून 2011

मुझे ही यकीन नहीं, तो आप कैसे करेंगे कि शिमला मैंने कैसे देखा

खूबसूरत शिमला हर कोई ऐसे देखता है कि सालों इसे देखने के सपने देखता है, और फिर नज़रों से इसके नज़ारे जी भर-भर देखता है. पर जब मैंने शिमला देखा तो मुझे दो बातें सीखने को मिलीं. एक- बॉस इज आलवेज़ राइट और दूसरी- अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी चलने वाला और चाहे जो हो, बुद्धिमान तो नहीं. 
उन दिनों मैं दिल्ली में नौकरी करता था. चंडीगढ़ में कोई सरकारी मीटिंग हुई. हैड- ऑफिस से मेरे बॉस भी आये. मीटिंग ख़त्म होते ही मेरे बॉस ने ऐलान किया कि यहाँ से शिमला काफी पास है, देखने चलेंगे. हम कार से  चल दिए.अफसर के साथ पर्यटन का जैसा भी डरा-सहमा आनंद हो सकता है, उसी को महसूस कर के मैं चल दिया.कालका का रमणीक रास्ता पार करके जब हम शिमला की चढ़ाई पर आये, तो मौसम खुशनुमा होने लगा. थोड़ी ही देर में अच्छी-खासी ठण्ड पड़ने लगी. मैं तो दिल्ली से आने के कारण एक स्वेटर रख लाया था, पर बॉस दक्षिण भारत से आने के कारण गर्म-कपड़ों से दूर-दूर तक परिचित नहीं थे. जब वे मॉल रोड पर ठण्ड से सिकुड़े-सहमे सर झुकाए चल रहे थे, मैं नया स्वेटर पहन कर शान से  आगे-आगे चल रहा था.तभी पीछे से आवाज़ आई- गोविलजी,आपका स्वेटर मुझे दे दीजिये. मैं जैसे आसमान से गिरा, बिना किसी लाग-लपेट के ये कैसा फरमान आया? पर गलती मेरी थी, मैंने अफसर के अगाड़ी चल कर अपने स्वेटर का डिजायन खुद उनसे पसंद कराया था.अब कोई चारा नहीं था. मन ही मन मैंने बॉस के हमेशा राइट होने के जुमले को कोसा और भरी ठण्ड में मॉल रोड के बीचों-बीच बेमन से स्वेटर उतारा. अब बॉस प्रफुल्लित होकर शिमला देख रहे थे और मैं मन मसोस कर घड़ी.कब शाम हो और हम निकलें. लेकिन जैसे इतना ही काफी नहीं था. बॉस की दिलचस्पी अब शिमला में बढ़ती ही जा रही थी.वे बोले- चलिए, हम याक़ की सवारी करेंगे.
याक़ वो खतरनाक जानवर था जिस पर बैठा कर वहां एक पहाड़ी रास्ते पर चक्कर कटवाया जा रहा था. रास्ता भी दुर्गम था. एक ओर खाई थी दूसरी ओर कड़ी चढ़ाई. हम दोनों एक-एक याक़ पर बैठ गए और पहाड़ी का चक्कर लगाने लगे. आदमी केवल एक था और वह दोनों जानवरों की रस्सी पकड़े आगे-पीछे चल रहा था.थोड़ी ही देर में उन्हें डर लगने लगा, और वे उस आदमी से  बोले-तुम दूसरी रस्सी छोड़ दो, केवल मेरे साथ चलो.आदमी ने निरीहता से मेरी ओर देखा, मैंने मन ही मन दोहराया- यस, ही इज राइट, जाओ. और मैं  मन ही मन हनुमान-चालीसा का पाठ करता हुआ उस दुर्गम रास्ते पर अनजान जानवर के साथ अकेले सफ़र पर चलता रहा. आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि मुझे कैसा दिख रहा होगा शिमला? उस दिन मन ही मन में मैंने यह कसम भी खाई कि बड़ा अफसर बन जाने के बाद एक दिन घोर गर्मी के मौसम में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का कोट पहन कर अकेला गधे पर बैठ कर चलूँगा और उनसे कहूँगा कि मेरी रस्सी तुम pakdo.              

मंगलवार, 7 जून 2011

प्रशासनिक हिरासत में देखा जम्मू

जम्मू कश्मीर राज्य की राजधानी है, परन्तु जब पहली बार मुझे जम्मू देखने का मौका मिला तो इसका यही, राजधानी होना जी का जंजाल बन गया. मैं अमृतसर से चल कर जम्मू पहुंचा था और एक होटल में ठहरा हुआ था. यह वही डरावनी काली रात थी जब स्वर्ण-मंदिर में ऑपरेशन ब्लू-स्टार हुआ था और अगली सुबह कई  शहरों में कर्फ्यू लग गया था. 
कुछ दिन तो सब ठीक-ठाक चलता रहा, पर जल्दी ही लोगों को परदेस में कर्फ्यू लग जाने का मतलब समझ में आने लगा.हज़ारों लोग इधर-उधर फंस गए. लोगों के पैसे ख़त्म होने लगे. लोगों के अपने-अपने घरों से संपर्क टूटने लगे. होटलों- धर्मशालाओं में खाना-पानी बीतने लगा. चोर-लुटेरे सक्रिय होने लगे.दिन में एक घंटे के लिए कर्फ्यू में ढील दी जाती, तब मैं ऑटो-रिक्शा करके स्टेशन जाता और पता करता कि गाड़ियाँ जानी शुरू कब होंगीं.सड़कों पर सन्नाटा फैला रहता और प्रशासनिक अमला लाचार  सा घूमता रहता.यहाँ मैंने पुलिस वालों को लोगों की मदद करते भी देखा. वे घरों और होटलों की खिड़कियों से पैसे व बर्तन लेकर जाते और इधर-उधर से कम से कम छोटे बच्चों के लिए दूध दवा लाकर देते.डाकघरों में लोगों की भीड़ लगती, सबके पास यही काम, घर वालों को सन्देश भेजना कि पैसे भेजो. एक दिन एक अनपढ़ सा एक युवक मेरे पास आकर बोला कि यदि मेरे पास बीस रूपये हों तो उसे देदूं, वह डाक से मुझे वापस लौटा देगा. मैंने उस से इसका कारण पूछा तो वह बोला कि वह अपने घर टेलीग्राम कर रहा है, जिसमे बीस रूपये कम पड़ गए हैं.मैंने उसका टेलीग्राम फार्म लेकर देखा, तो पता चला कि उसने जो मैटर हिंदी में लिखा है उसके पोस्ट-मास्टर उस से पिचहत्तर रूपये चार्ज  कर रहा है.मैंने उससे नया फार्म लाने के लिए कहा, और अंग्रेजी में उसे तार लिख कर दे दिया. उस तार के पच्चीस रूपये लगे. लड़का इतनी कृतज्ञता से मुझे देखने लगा कि शायद बीस रूपये दे देने के बाद भी नहीं देखता, क्योंकि उसका काम भी हो गया था और उस के पास तीस रूपये और भी बच गए थे. बाद में मैंने यह काम कई और लोगों के लिए भी किया. 
खैर, वह यात्रा तो जैसे-तैसे पूरी हुई, पर बाद में कई बार जम्मू जाना हुआ. तब कटरा जाकर वैष्णो देवी के दर्शन भी किये और उधमपुर का सैन्य इलाका भी देखा.वही सड़कें, वही गलियां जो कर्फ्यू के दिनों में डरावनी दिखती थीं, सुहावनी दिखने लगीं.         

रविवार, 5 जून 2011

उन दिनों श्रीनगर में भीड़-भाड़ बिलकुल भी नहीं थी.

घर में से जब सब बच्चे और बड़े अपने-अपने स्कूल या दफ्तर चले जाते हैं, तो पीछे घर में रह जाने वाले इक्का-दुक्का लोगों को अपने घर में टंगे कलेंडर जैसे दिखाई देते हैं, वैसा ही लगता था उन दिनों श्रीनगर. जिस पर नज़र डाल कर तारीख भी देखी जा सके और तवारीफ़  भी.मंज़ूर सुबह-सुबह होटल के मेरे कमरे पर आ जाता था, और मेरे तैयार होने और नाश्ता करने के दौरान मुझे शहर की मौजूदा हलचल की जानकारी भी देता जाता था. एक दिन बोला- आज डल लेक में राजेश खन्ना और रीना राय की शूटिंग चल रही है, पहले वहीँ चलेंगे.
जब हम पहुंचे  तो पता लगा कि शूटिंग एक दिन पहले ही बंद करके सब जा चुके हैं.पर उस दिन डल झील में हमने करीब पांच घंटे सैर की. पानी की दुनिया को नज़दीक से देखा. पानी पर व्यापार, पानी पर इंतज़ार, पानी पर ज़िन्दगी अद्भुत है. जो लोग वहां घूमने आते हैं, उनकी आँखे चम्मच की तरह चपलता से चारों ओर के नज़ारे चख लेना चाहती  हैं.वहां के रहवासियों को लगता है, जो जितना अभिभूत होगा वह उतना ही दे जायेगा. इसलिए वे भी परोसने में कोई कोताही नहीं करते. 
लगे हाथ आपको यह भी बता दूं कि वहां की किस बात ने 'सांझा' कहानी का खाका मेरे दिमाग में  बनाया? जिस तरह एक बर्तन में रखा दूध अचानक फट जाता है, वैसे ही किसी छोटी सी बात पर मची भगदड़ वहां के निवासियों को अपने धर्मों में बाँट देती है. दूध कितना भी अचानक फटे, कुशल गृहणी इसका कारण जानती है, ठीक वैसे ही संबंधों के बीच नीबू निचोड़ देने वाले आतताई भी जानते हैं कि दंगे क्यों भड़के? उन्नीस साल के किशोर मंज़ूर ने अपने शरीर के कई ऐसे घावों के निशान मुझे दिखाए, जिनके लिए वो खुद कतई ज़िम्मेदार नहीं था. आप सोचेंगे कि ऐसे लोगों को पकड़ कर तड़ीपार क्यों नहीं किया जाता? दबी जुबां में इसका कारण यही है कि ऐसे लोग निरापद सरकारी बंगलों में भी हो सकते हैं और बस्ती पार की रहस्यमयी गलियों में भी.जिस तरह सेहरा में नखलिस्तान होते हैं, वैसे ही नखलिस्तानों की इस बस्ती में टापू की शक्ल में सेहरा भी.         

गुरुवार, 2 जून 2011

उस कहानी का नायक कश्मीर में मेरी नाव चलाता रहा

आपको राजस्थान के पूरे तैतीस जिले घुमाने के बाद अब हम रुख कर रहे हैं भारत के कुछ और शहरों का. सबसे पहले मैं कश्मीर की बात करूँगा. कश्मीर में भी वहां के सिरमौर श्रीनगर की . श्रीनगर को देखने की इच्छा पहली बार बचपन में तब मन में जगी जब मैंने दो फ़िल्में देखीं. इनमे से एक तो थी "आरज़ू" और दूसरी थी "जब जब फूल खिले". लेकिन जिस आरज़ू से मैं कश्मीर को देखना चाहता था, वह जब पूरी हुई तब तक कश्मीर न जाने किसकी बद-नज़र का शिकार होकर उजड़ चुका था.मुझे वहां घूमते हुए बराबर यह अहसास होता रहा कि वास्तव में फूल देर से खिले.लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जिस तरह अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी सत्तर साल के होने के बाद भी अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ही होते हैं, कश्मीर भी अपने अतीत की सुनहरी मछलियों के हाथ से फिसल जाने के बावजूद कश्मीर ही था. 
मुझे कश्मीर मंज़ूर अहमद डार नाम के एक लड़के ने दिखाया.यह लगभग पांच दिन मेरे साथ रहा. बाद में मैंने इसी लड़के पर अपनी कहानी "सांझा" लिखी, जो दिल्ली के अखबार नवभारत टाइम्स में छपी. लगे हाथों एक बात आपको और बताता हूँ, कि जब फिल्म सत्ताधीश की पटकथा मैं लिख रहा था, उसमे सांझा का करेक्टर भी डाला गया था, जिसे अभिनीत करने के लिए गोवा के युवक श्याम सुन्दर थली से बात की गई थी.थली यह जानने के बाद, कि वह सांझा जैसा दीखता है, मेरे पास आने-जाने लगा था क्योंकि सांझा कहानी उसने भी पढ़ी थी. थली ने ही मुझे गोवा घुमाया, जब पहली बार मैं गोवा में कुछ दिन रहने गया. गोवा की बात भी करेंगे, लेकिन पहले कश्मीर की.