मैं उन दिनों जयपुर में पढ़ता था, दसवी में.स्कूल में नोटिस लगा कि बंगलौर में एक कैम्प लग रहा है जिसमे भाग लेने के लिए राजस्थान से १५ विद्यार्थियों का चयन होगा.एक लम्बी और कठिन प्रक्रिया के बाद जो विद्यार्थी चुने गए, उनमे हम तीन जयपुर से भी थे.
हमें अहमदाबाद होकर बंगलौर जाना था, जिसका आरक्षण विद्यालय ने करवा दिया. हम तीनों के साथ जयपुर से एक टीचर भी थे. यह अध्यापक काफी युवा थे और इनकी नई-नई शादी हुई थी.ये अपने साथ अपनी नव-विवाहिता पत्नी को भी ले गए, और हम तीनों को यह ताकीद कर दी गई कि हम यह बात अपने घरवालों या स्कूल में न बताएं. जयपुर से रात भर का सफ़र करके हम अगली सुबह अहमदाबाद पहुँच गए.यहाँ से दिन भर के विराम के बाद देर रात को हमारी अगली ट्रेन थी. सुबह दैनिक-कार्यों से निवृत होकर हमने अपना सामान स्टेशन के क्लॉक-रूम में रखा और शहर घूमने के लिए निकल पड़े. गाँधी-आश्रम होकर हम एक भीड़-भरी बस से कांकरिया झील आ ही रहे थे कि बस में अपने टीचर की घबराहट-भरी आवाज़ सुन कर हम सन्न रह गए. किसी ने उनका पर्स जेब से निकाल लिया था. इसी पर्स में हमारे आगे के यात्रा-टिकट, स्टेशन पर रखे सामान की रसीद और काफी सारी धन-राशि थी.बस रुकवा कर हम सब उतरे और हमारे सर नजदीक के फुटपाथ पर सर पकड़ कर बैठ गए.
नई-नवेली गुरुमाता के पर्स में पड़े कुछ पैसों से हम सब किसी तरह स्टेशन आये. भूख-प्यास सब हवा हो गई. अब हमारी अगली चिंता यह थी कि बिना रसीद के स्टेशन पर अपना सामान वापस कैसे लें. आगे की यात्रा के टिकटों का प्रबंध भी करना था.हमारे सर ने तो हताशा से यह घोषणा कर दी कि अब कुछ नहीं हो सकता,किसी तरह अपने-अपने पैसे इकट्ठे करो और वापस लौटो.
किन्तु हमारी गुरुमाता साहस और हिम्मत में सर से कई गुणा आगे निकलीं.उन्होंने घोषणा की, कि यदि सामान मिल जाता है तो सब समस्या हल हो जाएगी.वे अपनी शापिंग को तिलांजलि देकर पैसों से सबकी मदद करने को तैयार थीं. उन सब को चिंतामग्न बैठा छोड़ कर मैं और एक अन्य मित्र स्टेशन-मास्टर से मिलने चल दिए.मैडम की बात से हमें बहुत सहारा मिला था.
सारी बात पूरी संजीदगी से सुनने के बाद स्टेशन-मास्टर साहब ने हमसे कहा कि यदि हम किसी स्थानीय व्यक्ति को जमानतदार के तौर पर साथ में ला सकें तो वे सामान दिलवाने में हमारी मदद करेंगे. हम न तो किसी को जानते थे और न ही हमारे पास कोई पहचान-पत्र या सबूत थे.पर हमने हिम्मत नहीं छोड़ी. हम स्टेशन से बाहर निकल कर बाज़ार में आ गए. दुकानों के बोर्ड पढ़ते-पढ़ते हम एक मारवाड़ी होटल तक पहुँचने में कामयाब हो गए. किस्मत अच्छी थी कि एक बैरे से बातचीत में हमें सेठ के जयपुर का होने की खबर मिल गयी. हमने भिखारियों को भी मात देने वाली दयनीयता से सेठ के सामने सारा किस्सा बयान कर डाला.सेठजी पहले तो कुछ असमंजस में पड़े पर फिर हमारे स्कूल का नाम सुन, आश्वस्त होकर गद्दी से उतर हमारे आगे-आगे चल पड़े.
अब हम शान से चल रहे थे क्योंकि एक स्थानीय होटल का मालिक हमारा रहनुमा बन चुका था.हमारा सारा काम हो गया और हम अगले दिन सुबह की गाड़ी से बंगलौर के लिए रवाना हो पाए.
निश्चय ही अब हमारे 'हीरो' हमारे सर नहीं, बल्कि मैडम बन चुकी थीं.
इतना सा आपको और बता दूं कि बंगलौर से मैं उस कैम्प में तत्कालीन उपराष्ट्रपति महोदय के हाथों पुरस्कार लेकर लौटा. और ज़िन्दगी के बहुत सारे सबक भी.