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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

बुधवार, 7 दिसंबर 2011

बरला तो अलीगढ़ के नज़दीक एक छोटा सा गाँव है, इसकी क्या बात करनी?

इस गाँव नुमा कसबे या कस्बेनुमा गाँव में मैं टीवी पर 'वेदव्यास के पोते' सीरियल देखने के बाद पहुंचा था. मैंने सुना था कि इस गाँव में एक ऐसी हवेली भी है, जिसमें उसके वारिसों में से अब कोई नहीं रहता. तभी से उसे देखने की इच्छा जागी. भला ऐसी कैसी हवेली, जिसमें उसके वारिस नहीं रहते? अब तो हवेलियों में से वारिसों के रहते-सहते भी लोग पत्थर तक उखाड़-उखाड़ कर ले जाते हैं.उस गाँव में न तो कोई गाइड था, न ही कोई साधन, फिर भी हम उस हवेली तक पहुँच गए.हमारी गाड़ी वहां खड़ी होते ही आस-पास के कुछ लोग अगवानी को चले आये. धनीराम नामके एक आदमी ने तो बड़ी आवभगत की. धनीराम स्वयं काफी वृद्ध थे, फिर भी उन्होंने एक बूढ़े पंडित से मिलवाया, ताकि हवेली के बारे में कुछ और जानकारी मिल सके.
पंडितजी ने बताया कि डेढ़ सौ साल पहले किसी भले सेठ ने इसे बनवाया था. उसके बच्चे बड़े होनहार निकले, एक- एक करके लिखाई-पढ़ाई के लिए वहां से सब निकल गए.न तो वापस लौट कर आये और न ही किसी ने उसे अपनी जायदाद समझ कर उसकी खोज खबर ली. गाँव वालों ने ही उसका एक हिस्सा आपसी बातचीत से  लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक स्कूल खोलने के लिए दे दिया और एक छोटे हिस्से में उसकी देखभाल करने वाला वह पंडित परिवार रह गया.
उस छोटे से गाँव में इतने उदार लोगों को देख-सुन कर अच्छा लगा. मन में आया कि, काश, मैं भी ऐसे ही परिवार का कोई सदस्य होता. मैं उन दिनों की कल्पना में खो गया जब यह हवेली उसी परिवार के लोगों से गुलज़ार रही होगी. सामने के दालान में कैसे बच्चे खेलते होंगे? उस हवेली की एक- एक दीवार छूने पर ऐसा लगता था, मानो अपने पूर्वजों की देह पर हाथ फिर रहा हो?    

रविवार, 27 नवंबर 2011

चेन्नई के बारे में इतनी सी टिप्पणी? डायनासोर पर क्षणिका, या व्हेल पर लघुकथा क्यों नहीं लिखी?

मुझे मालूम है कि मैं महानगर की बात कर रहा हूँ. फिर भी बात इतनी सी है, क्योंकि मैं चेन्नई घूमने के इरादे से  नहीं गया था. केवल इस शर्त पर गया था कि मुझे सारा दिन या तो  होटल के कमरे में बैठना होगा, या फिर आस-पास के क्षेत्रों में अकेले घूमना.
फिर भी एक बात में मैंने चेन्नई को भारत के सभी शहरों के मुकाबले सबसे ज्यादा अच्छा पाया. वहां पर बसों में महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों पर केवल महिलाएं ही बैठती हैं. यदि आरक्षित सीटें  खाली हों और सामान्य सीटें पूरी भरी हुई हों, तब भी बस में चढ़ने वाले लड़के उन सीटों पर नहीं बैठते, वे खड़े रहना ही पसंद करते हैं. ये महिलाओं का वह सम्मान है जिसके लिए अन्य कई राज्य अभी तरस ही रहे  हैं.कई राज्यों में तो महिलाओं की सीट पर बैठे पुरुषों को महिलाओं के खड़े रहने पर भी न उठते, और बल्कि महिलाओं से बहस करते देखा जा सकता है. ऐसे पुरुषों का तर्क यह होता है कि "समानता" का अधिकार महिलाओं ने खुद माँगा है.
चेन्नई के बीचों के बारे में कुछ कहने से पहले आपको यह बतादूँ, कि मुंबई के सागर-तटों को देख लेने के बाद ये आपको निहायत  ही साफ़ और नीले दिखाई देते हैं.इन पर छुट-पुट सामान बेचने वालों से कोई सौदा लेने में आपको भाषा की  कठिनाई नहीं आती.
चेन्नई पुराना और रईसी शान वाला महानगर दीखता है. यह बेहद प्रबुद्ध लोगों का शहर है. यहाँ के सारे रेलवे-स्टेशनों पर आपको हर कर्मचारी प्रशिक्षित नज़र आता है. एक बात और, चेन्नई में घूम कर ही आप जान पाएंगे कि वैजयंती माला, हेमा मालिनी, रेखा, जयाप्रदा और श्रीदेवी अच्छी हिंदी जाने बिना भी हिंदी फिल्म- दर्शकों के दिलों पर हुकूमत कैसे करती हैं.      

रविवार, 13 नवंबर 2011

अंत तक सब शिष्ट और शालीन बने रहे पानीपत में

इतिहास भी वर्तमान के साथ पालतू पशु की तरह चला आता है- पीछे-पीछे. जब दिल्ली से सोनीपत होते हुए हमारी गाड़ी पानीपत पहुंची, तो थकान बिलकुल नहीं थी. रस्ते भर 'अचारों' के विज्ञापन देख-देख कर मुंह में पानी आता रहा. मैं सोचता रहा कि लौटते समय इन्हें खरीद कर ले जाऊंगा.
पहले ही होटल में काउंटर पर जब मैनेजर ने जवाब देने में थोड़ी देर लगाईं, तो मुझे लगा, यहाँ शायद जगह नहीं मिलेगी. मैं उसके मना करने से पहले ही वापस मुड़ने लगा किन्तु उसने आवाज़ देकर रोका, और हम वहीँ ठहरे.
शाम को एक जगह खाना खाने गए तो खाने का स्वाद देख कर अचरज में पड़ गए, कि इतना ज़ायकेदार खाना खाने इतने कम लोग क्यों आये  हैं. दो दिन शहर में घूमने के बाद पता लगा कि शहर ही छोटा है, और वहां हर जगह ही लोग कम हैं.
मुझे पानीपत में घूमते समय ही अपने परिचित सहकारी राकेश की याद आई. राकेश ने ही मुंबई में मेरा परिचय उसके अफसर भोंडेजी से करवाया  था. राकेश ने उनके सामने ही मुझसे पूछा था- आप भोंडे का मतलब जानते हैं? मेरे हाँ कहने पर भोंडेजी बहुत खुश हुए, यद्यपि वे भोंडे का मतलब न पहले जानते थे, और न मैंने ही उन्हें बताया. बात मेरे और राकेश के बीच ही रही, बहरहाल भोंडेजी दिन भर यह सोच कर प्रफुल्लित रहे कि उनके नाम का हिंदी में कोई मतलब भी है, और उनके दफ्तर वाले, यानि हम लोग उसे जानते भी हैं. वे दिन भर गर्व में भरे घूमते रहे. तो वह राकेश पानीपत का ही रहने वाला था.
पानीपत  भी हमारे देश के बहुत सारे उन शहरों की तरह ही है जिनके पास विकास का कोई स्पष्ट आधार या रूपरेखा नहीं है. लेकिन यह दिल्ली और चड़ीगढ़ को जोड़ने वाले रास्ते पर है, इसका कुछ लाभ इसे ज़रूर मिला है.
मैं बात कर रहा था- इतिहास और वर्तमान की, मेरा तात्पर्य यह है कि पानीपत में घूमते हुए आपको यह भी  याद आ ही जाता है कि यहाँ कभी भीषण युद्ध भी लड़ा गया था.युद्ध के कोई अवशेष अब वहां मौजूद नहीं हैं.  

गुरुवार, 27 अक्तूबर 2011

जब कोई युवा अपने बचपन की फोटो देखता है तब ऐसा ही सोचता है जैसे वह मैसूर में घूम रहा हो

ये क्या बात हुई? अपने बचपन की तस्वीर में मैसूर जैसा किसी को क्यों लगेगा? 
जब हम किसी पुरानी चीज़ या बात के बारे में गौर करते हैं तब वह हमें आजके मुकाबले पुरानी ही तो लगती है न? लेकिन हमारा बचपन हमें कभी भी पुराना नहीं लगता. वह हमें हमेशा ताजगी भरा लगता है. बस, यही मतलब है मेरा, मैसूर शहर भी पहली नज़र में ऐसा ही लगता है. और वह दूसरी नज़र में भी ऐसा ही लगता है. 
चौड़ी-चौड़ी सड़कें, जिंदा इतिहास के इश्तिहार से भवन, और संकोची स्वभाव  के लोग, जिन्हें हमेशा पसंद करने की इच्छा हो. 
एक बार दिल्ली में घूमते समय मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ के चावड़ी बाज़ार का नाम अंग्रेजों ने रखा है. मुझे लगता है कि अँगरेज़ व्यक्ति ने ज़रूर उसे चौड़ी गली कहा होगा. उसके उच्चारण को दिल्ली-वासियों ने अपना कर उसे चावड़ी बाज़ार कर दिया. मैसूर में चौड़ी सड़कों का और भी भव्य इस्तेमाल हुआ है. 
यहाँ एक और विशेषता आप देखेंगे. यहाँ मिठाई खाने और खिलाने का अंदाज़ भी निराला है.यह शौक मैसूर ने कोलकाता से लिया है.यदि आपने कभी राजस्थान के महल-हवेलियाँ देखी हैं तो आपको यह लगेगा कि उनका कुछ न कुछ कनेक्शन मैसूर से ज़रूर है. शायद अरसे से वहां बेशुमार राजस्थानियों का बसना भी इसका एक कारण हो.
मैसूर का दशहरा विख्यात है. राम ने तो रावण को एक ही जगह मारा होगा?फिर भी दशहरा मनाने की रीत अगर अलग-अलग मिलती है तो यह शहर-विशेष की अपनी तबीयत की कहानी है. हो सकता है वहां अच्छाई बुराई  को बुरी तरह दुत्कारती हो.इस शहर क़ी धूप को देखेंगे तो आपको इसे मुट्ठी में भर कर जेब में रखने का मन करेगा.यह तो आपको पता ही होगा कि कर्नाटक का नाम पहले मैसूर ही था.         

शनिवार, 15 अक्तूबर 2011

उसे आप युवा वृद्धावस्था कहेंगे या वृद्ध यौवन,इस विवाद में मत पड़िए,उसे ऋषिकेश कह लीजिये

अगर आप सड़क या रेल मार्ग से हरिद्वार से देहरादून जाएँ, तो आनंद बढ़ता जाता है, हरियाली बढ़ती जाती है, ठंडक बढ़ती जाती है, और जीवन के प्रति आपका अनुराग बढ़ता जाता है. कुछ लोग जीवन के प्रति बढ़ते अनुराग को ही वृद्धावस्था कहते हैं. 
आप इसे वृद्धावस्था न कह कर संत्रप्तता कहेंगे तो आपको ऋषिकेश देखने का आनंद और ज्यादा आयेगा. ऋषिकेश ऐसा शहर है जिसे देखने की सुध लोग बड़ी उम्र में ही लेते हैं, पर यहाँ गंगा और पहाड़ मिल कर आपको ऐसा लक्ष्मण-झूला झुलाते हैं कि आपको बचपन की लोरियां याद आ जाएँ. पूरा रास्ता ऋषि-मुनियों, महात्माओं, साधू-सन्यासियों की कुटियों, कंदराओं, बोधि-वृक्षों की स्मृति में एवेन्युओं, एन्क्लेवों,रिसोर्टों, और बंगलों से भरा पड़ा है. 
यहाँ गंगा साफ़ पानी से पत्थरों पर मीनाकारी करती है. वाहनों की ज़बरदस्त रेलम-पेल यह बताती है कि लोग दूर-दूर से यहाँ आते हैं, और इसी आवक ने यहाँ की व्यावसायिक हलचलों को भी बढ़ा दिया है.मंदिरों की विविधता तो दर्शनीय है ही, संख्या भी आश्चर्य-चकित करने वाली है. जिन लोगों ने "कुम्भ" के दिनों में ऋषिकेश को देखा है, वह अनुराग-बैराग का अंतर भूल चुके होंगे. 
मुझे ऋषिकेश की तलहटियों में एक बार पिचासी वर्षीय स्वामी शैलेन्द्र राज अरुण के साथ घूमने का भी अवसर मिला. अगर दिल्ली के दफ्तरों के बारे में बारीक़ जानकारी रखने वाला, बात-बात पर धारा-प्रवाह अंग्रेजी बोलने वाला कोई सन्यासी आपके साथ चल रहा हो तो आप उसके अतीत में झाँकने से अपने-आप को रोक नहीं सकते. मैंने भी इतना तो पता कर ही लिया कि दिल्ली में सरकारी सेवा से रिटायर हुए इस स्वामी की दिल्ली में संपत्ति भी है, और सम्बन्धी भी. फिर क्या है जो उसे यहाँ खींच लाया, इस प्रश्न का उत्तर स्वामीजी से पहले ऋषिकेश की वादियाँ देती हैं.   

शनिवार, 1 अक्तूबर 2011

खिली धूप, कच्चे दूध की सी आवाज़ और गले लगाने को आतुर लोगों का शहर भोपाल

मुझे भोपाल अच्छा लगता है. हर बार. वैसे तो पूरा मध्य प्रदेश ही अपनेपन की धरती है, पर ख़ास भोपाल तो याराना तबीयत का शहर है. इस शहर को यह हकीकत अच्छी तरह मालूम है, यह उस राज्य की राजधानी है जिसकी सीमाएं कहीं भी देश की सीमा से बाहर नहीं झाँकतीं. यही खालिस भारतीयपन इसमें कूट-कूट कर भरा है. जब इसे लोग ताल-तलैयों का शहर कहते हैं, तो मैं सोचता हूँ, पहाड़ियों का शहर क्यों नहीं कहते. अखबारों और ख़बरों का शहर क्यों नहीं कहते. लेखकों का शहर क्यों नहीं कहते. 
बेशुमार दफ्तरों के इस शहर में आप बेहद महफूज़ रहते हैं. अजनबी भी आपका ख्याल बड़ी ज़िम्मेदारी और अपनेपन से रखते हैं. सड़क पर ऑटो में जाते समय मेरे एक मित्र थोड़ा जल्दी में थे.वे बार-बार ड्रायवर को तेज़ चलाने के लिए कह रहे थे. सड़क के गड्ढों के कारण एक जगह रिक्शा जोर से उछला.मेरे मित्र यह देख कर अभिभूत  हो गए की उनका कोई शुभ-चिन्तक उसी रिक्शा में ड्रायवर के साथ मौजूद है, वह फ़ौरन बोला- ढंग से चला, बेचारे बाउजी का भेजा चटकायेगा क्या? 
भला बताइये, इस तरह आपका कहीं कोई ध्यान रखेगा? इतना ही नहीं, एक जगह सड़क पर पानी के किनारे से निकलते हुए थोड़ी कीचड़ उछल गई. कुछ छींटे मित्र के कपड़ों पर भी आये. ड्रायवर के मित्र ने फ़ौरन टोका- तू बाउजी की ऐसी की तैसी करके ही छोड़ेगा. 
मित्र जब रिक्शा से उतरे गर्व से भरे हुए थे, इस हिफाज़त भरे सत्कार पर. वे पैसे दे ही रहे थे, की ड्रायवर की फिर आवाज़ आई- बाउजी, वापस चलना हो तो मैं वेटिंग कर लूं, यहाँ रिक्शा नहीं मिला तो फालतू में सड़ते रहोगे. मित्र एक बार फिर गदगद हो गए, इस शुभ चिंता पर. 
वास्तव में बेमिसाल है, लेखकों का यह शहर, भाषा का शहर, अपनेपन की धरती.   

रविवार, 25 सितंबर 2011

झूठ क्यों बोलेगा, सही कह रहा होगा खुर्जा का वह लड़का

जब आप सड़क मार्ग से दिल्ली से अलीगढ़ की ओर जाएँ तो बुलंदशहर पार करने के बाद आपको चाय की तलब ज़रूर लगेगी. इसलिए नहीं, कि सड़क के गड्ढों में झटके खाते-खाते आप थक जायेंगे, बल्कि इसलिए कि खुर्जा की सरहद शुरू होते-होते आपको सड़क के दोनों ओर सैंकड़ों दुकानों पर इतनी खूबसूरत क्रॉकरी दिखेगी कि आपका मन बरबस इनमे से किसी प्यारे से कप या मग में चाय पीने को करेगा. दूर-दूर तक आपको हर तरफ ईंटों की बड़ी-बड़ी चिमनियाँ दिखाई देंगी,पहली नज़र में यह ईंट-भट्टों का अहसास देती हैं, पर वास्तव में यह क्रॉकरी को पकाने के लिए ही बनाई जाती हैं. 
मुझे खुर्जा में रहने वाले एक लड़के ने ही बताया कि इस शहर का नाम ऐतिहासिक उजालों से आता है. दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों को ख़बरें सुलभ कराने वाले घोड़ों के खुरों के अक्स ने इस शहर को यह नाम अता किया है.दिल्ली की सरहद से निकल कर घुड़सवारों का यहाँ तक चले आना यह बताता है कि दिल्ली शुरू से ही खुराफाती तबीयत की रही है. मज़ा देखिये, इस दिल्ली शहर ने कालांतर में इन तमाम खुराफातों को खुर्जा की छवि से ही जोड़ दिया. नगर के बस अड्डे पर आपके दांत खट्टे करने का इंतजाम शहर का अपना मौलिक है. 

मंगलवार, 20 सितंबर 2011

कोई चितेरा आस-पास नहीं था फिर भी यह द्रश्य था रत्नागिरी में

मुझे तो चेरापूंजी में भी इतनी बारिश नहीं मिली जितनी उस दिन रत्नागिरी में थी. होटल के कमरे से भी आखिर कितनी देर शहर को ताका जा सकता था, इसलिए जैसे ही बारिश का जोर कुछ कम हुआ हम लोग निकल पड़े समुद्र के किनारे.दो बातों पर मेरा ध्यान विशेष रूप से गया.एक तो पैदल चलते-चलते सड़क के किनारे जितने भी बड़े-बड़े बंगले दिखे अधिकांश पर 'मीणा' सरनेम वाले लोगों का नाम था.दूसरे,समुद्र बीचों-बीच से एक लाइन खींच कर दो भागों में बांटा गया था.दोनों बातें ही हैरत में डालने वाली थीं. 
मुझे डॉ.सोहन शर्मा का लिखा उपन्यास "मीणा-घाटी" याद आने लगा. राजस्थान से निकली यह जनजाति आज कहाँ से कहाँ पहुँच गई.शिक्षा से जुड़ने का उनका जुनून आखिर रंग लाकर ही रहा.आज अच्छा लगता है, उन्हें हर जगह कुशलता से काम करते देख कर.
एक तरफ काला सागर और दूसरी तरफ पीला.लेकिन यह कमाल किसी चित्रकार का नहीं है, बल्कि पानी के नीचे बिछी उस रेत का है जो  दब तो गई,पर उसने अपना रंग नहीं बदला.उत्तर भारत में बरसात शुरू होने के बाद आम खाना बंद हो जाता है, पर रत्नागिरी के बड़े-बड़े केसरिया आम इस मौसम में भी लुभा रहे थे.  

सोमवार, 12 सितंबर 2011

कोचीन इस तरह पुराना लगता है,जैसे पुराने सिक्के-और कीमती और आकर्षक

कोचीन बहुत आकर्षक है.यह एक बहुत छोटे से देश की तरह लगता है.सिंगापूर या ब्रुनेई की तरह.यहूदियों की संस्कृति के अवशेष यहाँ आपको इस तरह दीखते हैं मानो वे अभी आपको अतीत में ले चलेंगे.भारत के सागर-तट आम तौर पर उतने साफ नहीं दीखते,लेकिन कोचीन अपवाद है.शायद यह भारतीयता का ही प्रताप है कि आप को कोचीन के बाजारों में त्रिपुरा और अरुणाचल प्रदेश की स्थानीय वैश्विकता मिल जाती है.इस का श्रेय रेल मंत्रालय को दिया जाना चाहिए,जिसने देश के हर महत्वपूर्ण शहर को आपस में जोड़ दिया है.
वहां घूमते हुए आपको यह अहसास नहीं परेशान करता कि हम ज्यादा जनसँख्या वाले देश में रहते हैं.सब कुछ पुराना हो जाने पर बीत नहीं जाता.यह पंक्ति कोचीन में घूमते हुए मुझे बार-बार याद आती रही.

रविवार, 4 सितंबर 2011

नैमिषअरण्य में घूमना अच्छा नहीं लगता

सीतापुर से जब हम नैमिषअरण्य के लिए निकले तो कोई कल्पना नहीं थी कि यह कैसी जगह होगी.जगह का नाम  भी सब अपनी-अपनी तरह उच्चार रहे थे.वहां पहुँचते ही प्राचीन भारत की एतिहासिक जगह के स्थान पर आधुनिक भारत की उपेक्षित जगह के दर्शन हुए.निपट कस्बाई माहौल में धार्मिक भावना कहीं से भी प्रभावित नहीं कर रही थी.प्राचीन काल के प्रसिद्द आख्यानों से सम्बद्ध भवन आदि अति साधारण और बाद में निर्मित लग रहे थे.
उत्तर प्रदेश में इस समय जो सरकार है वह उस काल के लोगों और जीवन-मूल्यों से त्रस्त लोगों के समर्थन से बनी सरकार है,इसलिए किसी को कोई दोष नहीं दिया जा सकता.वेदव्यास और तुलसीदास ने जो भी लिखा है,वह समय की कसौटी पर है,इसलिए यह ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है कि वह कहाँ बैठ कर लिखा गया है.
समय की धारा को 'डल'झील जैसी ताजगी तभी मिलती है जब अमिताभ बच्चन,शर्मीला टैगोर,आशा पारेख,विनोद खन्ना,शाबाना आज़मी और पूनम ढिल्लों जैसे नामचीन लोग कालजयी "शम्मी कपूर"की अस्थियाँ उसमे प्रवाहित करते रहें.

बुधवार, 31 अगस्त 2011

अगर कोई किसी शहर पर चाट मसाला छिड़क दे तो वो शहर जबलपुर हो जायेगा

शुरू में आपको लगेगा कि जबलपुर रूखे या क्रुद्ध लोगों का नगर है,लेकिन जल्दी ही आप यह जान जायेंगे कि यह खरे और बेबाक लोगों का ठिकाना है.नर्मदा नदी यहाँ दोहरे तेवर लेकर बहती है.एक तरफ ग्वारीघाट पर नदी का पाट चौड़ाई में गंगा से होड़ करता दीखता है तो भेड़ाघाट पर संगमरमरी चट्टानों ने इसे पतली नहर की चौड़ाई में बाँध दिया है.यहाँ जकड़न के कारण नर्मदा ने जो रौद्र रूप दिखाया है,उसके कारण यहाँ विश्व प्रसिद्द जल प्रपात बन गया है.
जबलपुर को न जाने क्यों,ऐसी छवि मिल गई है कि जिसके रंग तेज़ी से बदलते रहते हैं.

मंगलवार, 30 अगस्त 2011

बात जबलपुर की

यह कानपुर का पर्यायवाची,लखनऊ का विलोम,रायपुर का प्रतिस्पर्धी और भोपाल का ईर्ष्यालु मित्र है.इसे लोग संस्कार-धानी भी कहते हैं,और संस्कार-दानी भी.दानी दो प्रकार की होती है-एक साबुनदानी जिसमे साबुन आता है दूसरी मच्छर दानी जिसमे मच्छर घुस न सके.

सोमवार, 29 अगस्त 2011

कटनी से कटते हैं सागर और जबलपुर के रास्ते

जिस शहर का नाम जबलपुर है,उसके बारे में चार लाइनों में नहीं कहूँगा.वह शहर रामायण का 'परशुराम' है.धनुष तोड़ते देखेगा तो राम को भी नहीं बख्शेगा.हाँ,केवट-शबरी की प्यास देखेगा तो नर्मदा सागर लेकर खड़ा हो जायेगा. इसी पर बात करगे,अगली मोहलत पर.

रविवार, 14 अगस्त 2011

यह दिव्य गाथा "खजुराहो की अतिरुपा" नामक उपन्यास की समीक्षा लिखने के दौरान पता चली

खजुराहो केवल अपने मूर्ति-शिल्प सज्जित मंदिरों के कारण विख्यात है.आसपास की बस्तियां यहाँ आने वाले पर्यटकों के लिए विभिन्न सेवा-प्रदाताओं की उपस्थिति के कारण बस गई हैं.पांच सितारा होटलों से लेकर ढेरों दुकानों और मकानों का यह सिलसिला इसे एक कस्बे की शक्ल में ले आया है.यहाँ आपको हर उम्र के ढेरों गाइड तो मिलेंगे, पर यदि आप पैसे बचाने के लिए किसी किशोर-वय गाइड को ले जाएँ, तो आपको अधिकांश पर्यटन-स्थल अपने आप देखना पड़ेगा, क्योंकि आपका गाइड कई बार शरमा कर मुंह फेर लेगा. 
कहते हैं कि किसी समय इस क्षेत्र के एक राजा को संतान नहीं थी.वह अपने उत्तराधिकारी के लिए चिंतित रहता था.उसने एक तांत्रिक के कहने पर राज्य के उत्तराधिकारी के लिए एक यज्ञ करवाया.इस यग्य के लिए नगर के सभी युवक-युवतियों को बुलाया गया पर राजा के लिए इसे देखना सर्वथा-निषिद्ध था.राजा ने राज्य के तमाम शिल्पियों,मूर्तिकारों और कलाकारों को निमंत्रित किया और उनसे कहा,कि वे यज्ञ देखें. जब यज्ञ सम्पन्न हो गया और राज्य को उत्तराधिकारी मिल गया,तब राजा ने सभी शिल्पियों से कहा कि वे मूर्तियों में यज्ञ को जीवंत करें.
शिल्पियों का कार्य देखकर राजा पहले तो क्रोधित हुआ,पर बाद में उनकी कला के आगे नतमस्तक होकर राजा ने मूर्तियों को मंदिरों में जड़वा दिया.तभी से ये पवित्र स्मृतियों के रूप में चिर-स्थापित हैं.

मंगलवार, 9 अगस्त 2011

खजुराहो जो एक गाँव या शहर नहीं एक अहसास है

मैं वहां जाना नहीं चाहता था, क्योंकि वह एक पत्थरों का देश ही तो है?फिर भी मैं गया और चार दिन रहा. बताता हूँ, बताता हूँ

रविवार, 7 अगस्त 2011

नाम को छोड़कर हर कहीं दिखाई दी प्रगतिशीलता और आधुनिकता पुणे में

पहली बार पुणे जाने से पहले हम उसे 'पूना' के नाम से ही जानते थे. बीच - बीच में पुणे, ठाणे, कोलकाता और मुंबई के नामों के परिवर्तनों को लेकर हुए आन्दोलनों के बारे में भी सुनते रहे. आश्चर्य की बात यह है कि भारत में और भी बहुत से शहरों को कुछ का कुछ कहा जाता है, किन्तु जिन शहरों ने अपने पुराने नाम फिर पाने में दिलचस्पी दिखाई है वे सभी बड़े, आधुनिक और प्रगतिशील नगर हैं. ज़ाहिर है कि यह नाम हमारे देश में अंग्रेजी के और अंग्रेजों के कारण बदल गए थे.
पुणे वास्तव में एक आधुनिक मानसिकता का महानगर है. जब हम पुणे से मुंबई की ओर जाते हैं तो ऐसा लगता है कि अब हम आधुनिकता की पराकाष्ठा को पार करके उत्तर - आधुनिकता में कदम रख रहे हैं. इसी रास्ते को भारत का पहला रेलमार्ग होने का गौरव भी प्राप्त है. यही प्राकृतिक और मनुष्य-निर्मित हरियाली और रास्ते का सबसे जीवंत उदाहरण है. 
मैं डेक्कन जिमखाना क्षेत्र में प्रभात रोड पर काफी समय रहा. यह क्षेत्र हमारी सांस्कृतिक सम्पन्नता का भी द्योतक है. इस शहर की बोली में आपको मराठी की मिठास सहज ही दिखाई देती है.बाज़ारों के नाम सप्ताह के विभिन्न दिन लगने वाली हाटों की याद अब भी ताज़ा करते हैं. 
एक निहायत ही निजी अनुभव आपको बताऊँ, मुझे यहाँ हमेशा ऐसा लगता था कि उम्र की अवधारणा शायद पुणे में बेअसर है. यहाँ आपको बहुत उम्रदराज़ युवा और कमउम्र परिपक्व लोग खूब मिलेंगे. इस बात पर व्यापक अध्ययन करके इसे अन्य शहरों के लिए भी ले जाया जाना चाहिए. 
रजनीश आश्रम ने इसे विदेशों तक लोकप्रियता दी है.   

शनिवार, 30 जुलाई 2011

डर और डरा देता है,कुरुक्षेत्र से निकल कर यह जाना

कुरुक्षेत्र का नाम ही युद्ध का पर्याय बन गया है. हम लोग पुरी घूमने गए हुए थे. वहां कुछ और मित्र भी आये हुए थे. शाम को वहीँ से सबको अलग-अलग जगह की गाड़ियाँ पकड़नी थीं.कुरुक्षेत्र से आयी एक मित्र ने कहा-अब आप लोग कभी कुरुक्षेत्र आइये. हमने स्वीकृति देदी. विदा होते समय उन्होंने कहा- "अच्छा, अब तो कुरुक्षेत्र में मिलेंगे". उनके इस वाक्य से लगा- यह आमंत्रण है या कोई ललकार. इतिहास ने यह नाम ऐसा ही बना दिया है. 
कुरुक्षेत्र जाने का मौका भी जल्दी ही मिल गया. अम्बाला के कहानी-लेखन महाविद्यालय का लेखक शिविर था. आमंत्रण मिलते ही जाने का कार्यक्रम बना लिया. शिविर के बाद महाभारत के दिनों को याद करते हुए हम लोग खूब घूमे. 
गहराती शाम को जब हम लौट रहे थे, अम्बाला की ओर  भागती हमारी दो कारें ज़रा आगे-पीछे हो गयीं.मित्रों द्वारा मोबाइल पर संदेशों का आदान-प्रदान बिलकुल बच्चों के से उत्साह से हो रहा था. कभी कोई आगे, तो कभी कोई. चालकों को इस उत्साह से और उमंग मिल रही थी, वे गाड़ियों की स्पीड और बढ़ाते जा रहे थे. शानदार राज-मार्ग पर गति नियंत्रण करने की बात सोचने की ज़रुरत किसी ने भी नहीं समझी. तेज़ी से पीछे छूट रहे थे, हरियाली और रास्ते. तभी अचानक संदेशों के आदान-प्रदान में बाधा आई. संपर्क जैसे यकायक टूट गया. थोड़ी देर तो अटकलें लगती रहीं कि नेट-वर्क की समस्या होगी, पर फिर चिंतित करने वाला विलम्ब होने लगा. हमारी गाड़ी से दूसरी गाड़ी का संपर्क टूट गया. उस गाड़ी के पीछे रह जाने का अनुमान था. हमारी गाड़ी रोक दी गयी. जब विलम्ब नागवार होने लगा, तो भारी मन से गाड़ी को वापस लौटाया गया.अब तरह-तरह की शंकाएं हो रही थीं, और इस शहर के नाम से जुड़े नक्षत्र याद आने लगे. 
कुछ दूर जाने पर सड़क के किनारे दूसरी गाड़ी को दुर्घटना-ग्रस्त पाया. यह किसी की उपलब्धि नहीं थीं, इस लिए इस घटना को फिर से याद करने का मन नहीं हो रहा. बात बदलता हूँ. इतना ज़रूर कहूँगा कि आजकल वाहनों की रफ़्तार को नई-पीढ़ी पतंग उड़ाने जैसा काम समझने लगी है.अपनी और दूसरों की जान को जोखिम में झोंकना एक मानसिक रोग ही है, जो एक दिन हमारी सभ्यता के ताबूत पर अपने हस्ताक्षर करके छोड़ेगा.      

शुक्रवार, 22 जुलाई 2011

समुद्र के किनारे खेलते टीन-एजर बच्चों का बनाया शहर शिलांग

गोहाटी में उतर कर टैक्सी से मेघालय की ओर बढ़ते हुए आपको यह देखते हुए मज़ा आता है कि जिस सड़क पर आप तेज़ी से दौड़ रहे हैं, उसके एक तरफ असम है और दूसरी तरफ मेघालय. दो राज्यों को चीरते हुए आप जिस शहर की ओर बढ़ते हैं वह भी इंसानी रहवास की किसी सुनहरी जागीर से कम नहीं है. शिलांग को देख कर ऐसा लगता है जैसे कुछ किशोर होते बच्चों ने सिन्दूरी शाम को सागर किनारे रंगों और लकड़ी-पत्थरों से खेलते हुए अपने सपनों की कोई रिहायशी बस्ती बसा कर छोड़ दी हो, जहाँ वे अभी नहीं, बड़े हो जाने के बाद घर बसाने आयेंगे. शिलांग आधुनिक शहर है. 
एक शाम मैं वहां इसी तरह घूमना चाहता था जैसे मैं उसी शहर का एक हिस्सा होऊं. मैंने ,जिस गेस्ट-हाउस में मैं ठहरा हुआ था, उसके लॉन में काम कर रहे किशोर से पूछा- क्या वह मुझे शहर घुमा कर ला सकता है? वह मुस्कराता हुआ तुरंत तैयार हो गया. लाल बनियान और प्रिंटेड लोअर में बग़ीचे में काम कर रहा वह लड़का पलक झपकते ही खाकी वर्दी-कैप में तैयार होकर एक गार्ड की तरह मेरे साथ चल पड़ा. 
हमने शहर के नए बाज़ार देखे. पुरानी संकरी टेढ़ी-मेढ़ी, ऊँची-नीची गलियां देखीं. मैं सोचता रहा कि इन गलियों में रहने वालों और दुकानों में काम करने वालों को याद कैसे रहता होगा कि वे कहाँ रहते हैं? लेकिन अब उनमे से कई चेहरे मुझे भी  याद हैं, और यह भी याद है कि वे कहाँ रहते हैं.हरे-भरे पहाड़ों पर सर्पीली सड़कों पर दौड़ती कारों को देखते समय मुझे लगातार यह लगता रहा कि बच्चे अपने इन खिलौनों को ढूंढते, कभी भी यहाँ आयेंगे. लेकिन अगर वे बड़े होकर आये तो? कोई बात नहीं. उनके साथ उनके बच्चे तो होंगे ही.      

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

देशप्रेम जागा फिरोजपुर में



फिरोजपुर वैसे तो छोटा सा ही शहर है, लेकिन यहाँ लोगों की सक्रियता अच्छी लगती है. शायद इसका एक कारण यह भी है कि यहाँ से थोड़ी ही दूर भारत की सीमा का होना लोगों में यह भाव जगाये रखता है कि वे लोग देश के प्रहरी हैं. 
मैंने 'मदर इंडिया' फिल्म वहीँ देखी.एक मित्र मिले जो मुझे देश की सीमा दिखाने भी ले गए.दरअसल यहाँ से सीमा पार करके जो देश है [पाकिस्तान] उस से हमारे रिश्ते अच्छे नहीं हैं ,इसी बात का असर यहाँ दीखता है. बेहद ठंडापन पसरा रहता है. वर्ना सीमाओं पर तो हलचल रहनी ही चाहिए. यह तो ऐसी जगह होती है जहाँ हर देश अपना 'बेहतर' देता है.कहते हैं कि जिनमे प्रेम ज्यादा होता है, उनमे जब दुश्मनी हो, तो वह भी गहरी होती है. फिर पाकिस्तान तो कभी हमारा ही हिस्सा रहा है. यह तो "सगे भाइयों" वाली दुश्मनी है. इसी ने फिरोजपुर के रंग और नूर भी छीन रखे हैं. 

मंगलवार, 19 जुलाई 2011

आखिर कुछ तो बात होती होगी ब्यूटी-पार्लर से निकले लोगों में



नैसर्गिक सौन्दर्य का कोई मुकाबला नहीं, ये माना पर आखिर सुन्दरता को तराशने का भी तो अपना महत्त्व है. इस बात पर अच्छा-खासा विवाद हो सकता है कि किसी राज्य का टूटना उसके हित में होता है या अहित में. लेकिन विवादों के परे ये तो हमें मानना ही पड़ेगा कि राज्यों को विकास के लिए ही छोटा बनाया जाता है. अर्थात किसी राज्य का विभाजन एक तरह से उसे विकास के लिए तराशना ही है. पंजाब को चार बार तराशा गया है. एक हिस्सा पाकिस्तान में चला गया,एक हिमाचल से वाबस्ता है, एक हरियाणा के रूप में अलग निकल गया और एक चंडीगढ़ के नाम से अब हरियाणा के साथ राजधानी रूप में केंद्र-शासित बना हुआ है. इस तरह बार-बार की  कटाई-छटाई ने पंजाब को किसी बगीचे के 'डिज़ाईनर' पेड़ की तरह बना दिया है.यह छोटा पर सम्पूर्ण प्रदेश बन गया है. 
इसके मुख्य शहरों में एक, लुधियाना की गति भी 'हवा-हवाई' है.यह काफी फ़ैल गया है. यहाँ के ऊनी- वस्त्र उद्योग का झंडा तो हर तरफ लहरा रहा है. शानदार आधुनिक दुकानों में रखा रंग-बिरंगा सामान यहाँ ऐसा लगता है मानो बर्फ की सिल्लियों की शक्ल में आइस-क्रीम सजी हो. ग्रामीण पंजाब से लुधियाना का रिश्ता अब सौतेले भाइयों से भी दूर का हो चला है. आस-पास के गाँव ऐसे लगते हैं जैसे शहर की खिडकियों से दूर देश का नज़ारा दिख रहा हो. लुधियाना के फंदों में अब दुनिया का गला है.

शनिवार, 16 जुलाई 2011

ab ham unhen pagdandiyan nahin express highway kahenge

यह अच्छी बात है या बुरी, कि अब जालंधर के आस-पास आपको गाँव नहीं मिलते. वे कहाँ गए? जब आप लुधियाना से सड़क के रास्ते जालंधर जाते हैं तो सारा रास्ता आपको कनाडा में होने का अहसास देता है. ऐसी दुकानों से आपका साक्षात्कार होता है, जो वर्षों पहले दिल्ली के कनाट-प्लेस वासियों को ही नसीब थीं. बीच में कहीं हरियाली और रास्ता दीखता भी है तो वह आपको वेनेज़ुएला और चिली की याद दिलाता है. 
कहीं किसी ढलान पर चारागाह में यदि कुछ मवेशी नज़र भी आते हैं तो वे कृष्ण की मुरली की याद नहीं दिलाते, बल्कि माइकल जैक्सन की थाप पर थिरकते दीखते हैं. 
मैं जब होटल के अपने कमरे में सुबह सोकर उठा, तो एक सिख युवक को चाय की ट्रे हाथ में लिए देखा. कमरे की हाउसकीपिंग के लिए भी सिख युवक ही थे. मैं यह इसलिए कह रहा हूँ कि हर जगह मेहनत और श्रम के काम में आप उन्हें आगे देखेंगे. सारे विकास और आर्थिक सम्पन्नता के बाद भी उनमे काम से जी चुराने की प्रवृत्ति नहीं आई है.वे अपने होटलों के मालिक होते हुए भी वहां के सब काम अपने हाथ से करना पसंद करते हैं. हमारे ही देश में ऐसे भी शहर हैं, जिनमे उन लोगों को जूते पहनाने-उतारने का काम दूसरे लोग करते हैं, जिनके पास पैसा आ जाता है. 
शीशे की दुकानों के पार्श्व में हरे-पीले फूल और खेत थोड़ा खिसक गए प्रतीत होते हैं. लेकिन मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि अमेरिका- कनाडा की अच्छी बातों को ग्रहण करने में सबसे ज्यादा तत्पर इसी अंचल के लोग हैं. 

सोमवार, 4 जुलाई 2011

उस दिन वही सबसे 'डिलीशियस डिश' थी बंगलौर में

यह लगभग ४३ साल पहले की बात है. मुझे बंगलौर के सेंट जोसेफ कॉलेज के छात्रावास में २७ दिन तक रहने का अवसर मिला. वहां कोई शिविर लगा हुआ था.पहले ही दिन हमसे कहा गया कि हम भोजन के लिए शाकाहारी या मांसाहारी मैस का चयन कर लें.यह भी कहा गया कि जो मैस चुनी जाएगी उसी में रहना होगा, बीच में बदलने की अनुमति नहीं मिलेगी. मैं शाकाहारी मैस का सदस्य बन गया. 
हमें रोज़ सुबह नाश्ते में उपमा, इडली, डोसा, आदि विविध व्यंजन मिलते थे, किन्तु भोजन में विभिन्न चीज़ों के साथ चावल ही मिलते थे. हमें उन दिनों राजस्थान में रहने के कारण चावल खाने की आदत बिलकुल नहीं थी.राजस्थान में रोटी ही खाई जाती थी. लगभग २२ दिन तक लगातार रोटी को याद करते हुए चावल खाते रहने की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा.
उसके बाद संयोग से एक दिन घर से फोन आया कि बंगलौर में दूर के रिश्ते की कोई आंटी हैं, जो मिलने आ रही हैं. आंटी को जब यह पता चला कि हम लोग इतने दिन में यहाँ विधान-सभा, लालबाग, मैसूर के वृन्दावन गार्डन आदि सब घूम चुके हैं, तो वे शाम को शिविर-प्रभारी से अनुमति दिलवा कर वहां के एक शानदार होटल में खाना खिलाने ले गईं. उन्होंने बहुत उत्साह से आठ-दस व्यंजनों के नाम गिना कर मुझसे मेरी पसंद पूछी. वे अत्यधिक उत्साह में थीं और मुझे कुछ विशेष खिलाना चाहती थीं. 
मेरे मुंह खोलते ही उनके उत्साह पर मानो पानी पड़ गया.क्योंकि मैंने उनसे भिखारी की तरह दो "रोटी"की मांग की थी. [यह घटना ४३ साल पहले की है, आज के बंगलौर में तो शायद रोटी की इतनी वैरायटी मिल जाएँ कि चयन की माथा-पच्ची करनी भारी पड़ जाय]        

शनिवार, 2 जुलाई 2011

ग्रीन-रूम में कपड़े बदलता हुआ कोलकाता

किसी सुपरस्टार को मेक-अप के बिना देखना भी दिलचस्प अनुभव है. और वह भी तब, जब वह आपके आगमन से बेखबर, मुंह फेर कर खड़ा हो. मैंने पहली बार कोलकाता ऐसे ही देखा था. जब कोलकाता की सारी खासियतों को ग्रहण लगा हुआ था.बल्कि यों कहें कि उस समय वह उलझनों में घिरा हुआ था. 
मुझे मुंबई से एक मीटिंग में कोलकाता जाना था. वैसे तो उसी शाम को वापस लौट भी आना था, पर मैंने मन ही मन तय कर रखा था कि मैं एक दिन और रुक कर, वह पूरा समय शहर को देखने में बिताउंगा.मैं और मेरे मित्र वीरेंद्र याग्निक सुबह आठ बजे विमान से कोलकाता के लिए रवाना हो गए. करीब पौने ग्यारह बजे जब हम विमान तल की लॉबी से बाहर आये तो हमें यह सनसनीखेज़ सूचना मिली कि कोलकाता ने हमसे मिलने से इनकार कर दिया है. अर्थात उस दिन किसी कारणवश कोलकाता बंद का ऐलान हो गया.खबर हमारे लिए विशेष थी पर साम्यवाद की चपेट में घिरे शहर में यह रोज़मर्रा की बात थी और शहर इसका अच्छा-ख़ासा अभ्यस्त था.
नतीजा यह हुआ कि जो गाड़ी हमें लेने एयरपोर्ट पर आने वाली थी वह भी नहीं पहुंच सकी और हमें फोन से सलाह दी गई कि हम आज एयरपोर्ट के आस-पास किसी होटल में ठहर जाएँ. 
नहा-धोकर दोपहर को जब हम बाहर निकले तो इक्का-दुक्का वाहनों की आवा-जाही शुरू हो चुकी थी. हम विक्टोरिया मैदान पहुंच गए. गार्डन में एक पेड़ के नीचे बैठ कर चने खाते हुए हमने थोड़ी ही दूर पर हो रही एक विशाल आम-सभा की आवाजें सुनीं. उस समय एक महिला बोल रही थी. "दो-चार सौ नौकरियों में आरक्षण पाकर यह मत समझो कि हमारा काम हो गया,अभी तो हमें सवर्णों के गले में पट्टा डाल कर उन्हें सड़क पर उसी तरह घसीटना है, जैसा सदियों से उन्होंने हमारे साथ किया"यह शब्द स्वयं मायावती जी के मुख से सुनने का अवसर हमें वहीँ मिला. हमें तो भाषण के बाद की इस घोषणा से ही उनका परिचय मिला कि- अभी आप सुश्री मायावती जी को सुन रहे थे. 
शाम को हम आराम से शहर घूम पाए, और हमने हाथ से खींची जाने वाली रिक्शा-गाड़ी का आनंद भी वहीँ लिया.हमारे देश में यह अच्छी बात है कि सुबह शुरू होने वाले 'इन्कलाब' की हवा अमूमन शाम तक निकल  जाती है.          

रविवार, 26 जून 2011

अहमदाबाद से पहला परिचय अच्छा नहीं था

मैं उन दिनों जयपुर में पढ़ता था, दसवी में.स्कूल में नोटिस लगा कि बंगलौर में एक कैम्प लग रहा है जिसमे भाग लेने के लिए राजस्थान से १५ विद्यार्थियों का चयन होगा.एक लम्बी और कठिन प्रक्रिया के बाद जो विद्यार्थी चुने गए, उनमे हम तीन जयपुर से भी थे. 
हमें अहमदाबाद होकर बंगलौर जाना था, जिसका आरक्षण विद्यालय ने करवा दिया. हम तीनों के साथ जयपुर से एक टीचर भी थे. यह अध्यापक काफी युवा थे और इनकी नई-नई शादी हुई थी.ये अपने साथ अपनी नव-विवाहिता पत्नी को भी ले गए, और हम तीनों को यह ताकीद कर दी गई कि हम यह बात अपने घरवालों या स्कूल में न बताएं. जयपुर से रात भर का सफ़र करके हम अगली सुबह अहमदाबाद पहुँच गए.यहाँ से दिन भर के विराम के बाद देर रात को हमारी अगली ट्रेन थी. सुबह दैनिक-कार्यों से निवृत होकर हमने अपना सामान स्टेशन के क्लॉक-रूम में रखा और शहर घूमने के लिए निकल पड़े. गाँधी-आश्रम होकर हम एक भीड़-भरी बस से कांकरिया झील आ ही रहे थे कि बस में अपने टीचर की घबराहट-भरी आवाज़ सुन कर हम सन्न रह गए. किसी ने उनका पर्स जेब से निकाल लिया था. इसी पर्स में हमारे आगे के यात्रा-टिकट, स्टेशन पर रखे सामान की रसीद और काफी सारी धन-राशि थी.बस रुकवा कर हम सब उतरे और हमारे सर नजदीक के फुटपाथ पर सर पकड़ कर बैठ गए. 
नई-नवेली गुरुमाता के पर्स में पड़े कुछ पैसों से हम सब किसी तरह स्टेशन आये. भूख-प्यास सब हवा हो गई. अब हमारी अगली चिंता यह थी कि बिना रसीद के स्टेशन पर अपना सामान वापस कैसे लें. आगे की यात्रा के टिकटों का प्रबंध भी करना था.हमारे सर ने तो हताशा से यह घोषणा कर दी कि अब कुछ नहीं हो सकता,किसी तरह अपने-अपने पैसे इकट्ठे करो और वापस लौटो. 
किन्तु हमारी गुरुमाता साहस और हिम्मत में सर से कई गुणा आगे निकलीं.उन्होंने घोषणा की, कि यदि सामान मिल जाता है तो सब समस्या हल हो जाएगी.वे अपनी शापिंग को तिलांजलि देकर पैसों से सबकी मदद करने को तैयार थीं. उन सब को चिंतामग्न बैठा छोड़ कर मैं और एक अन्य मित्र स्टेशन-मास्टर से मिलने चल दिए.मैडम की बात से हमें बहुत सहारा मिला था. 
सारी बात पूरी संजीदगी से सुनने के बाद स्टेशन-मास्टर साहब ने हमसे कहा कि यदि हम किसी स्थानीय व्यक्ति को जमानतदार के तौर पर साथ में ला सकें तो वे सामान दिलवाने में हमारी मदद करेंगे. हम न तो किसी को जानते थे और न ही हमारे पास कोई पहचान-पत्र या सबूत थे.पर हमने हिम्मत नहीं छोड़ी. हम स्टेशन से बाहर निकल कर बाज़ार में आ गए. दुकानों के बोर्ड पढ़ते-पढ़ते हम एक मारवाड़ी होटल तक पहुँचने में कामयाब हो गए. किस्मत अच्छी थी कि एक बैरे से बातचीत में हमें सेठ के जयपुर का होने की खबर मिल गयी. हमने भिखारियों  को भी मात देने वाली दयनीयता से सेठ के सामने सारा किस्सा बयान कर डाला.सेठजी पहले तो कुछ असमंजस में पड़े पर फिर हमारे स्कूल का नाम सुन, आश्वस्त होकर गद्दी से उतर हमारे आगे-आगे चल पड़े. 
अब हम शान से चल रहे थे क्योंकि एक स्थानीय होटल का मालिक हमारा रहनुमा बन चुका था.हमारा सारा काम हो गया और हम अगले दिन सुबह की गाड़ी से बंगलौर के लिए रवाना हो पाए. 
निश्चय ही अब हमारे 'हीरो' हमारे सर नहीं, बल्कि मैडम बन चुकी थीं. 
इतना सा आपको और बता दूं कि बंगलौर से मैं उस कैम्प में तत्कालीन उपराष्ट्रपति महोदय के हाथों पुरस्कार लेकर लौटा. और ज़िन्दगी के बहुत सारे सबक भी.                 

बुधवार, 22 जून 2011

तब सपने में भी नहीं सोचा था कि एक दिन राजधानी बनेगा देहरादून

यह साठ के दशक के आखिरी सालों की बात है.राजस्थान में पढ़ते हुए हम गर्मियों की छुट्टियों में देहरादून जाया करते थे. वहां राजपुर रोड पर एक बड़े से बंगले में मेरे अंकल रहते थे. ढेर सारे फलों से लदे पेड़ों वाले  अहाते में हम सुबह-शाम खूब खेलते और हर दूसरे दिन घूमने जाते. देहरादून तब ऐसा था कि जैसे शहरों की भीड़-भाड़ से दूर कहीं हरे-भरे वीराने में आ गए हों. एक दिन दोपहर को शाम की चाय के साथ के नाश्ते के लिए कुछ अच्छा सा लेने की गरज से मैं और मेरी चचेरी बहन पास के बाज़ार में गए. गली में एक जगह पर कुछ दूर मुझे एक कागज़ पड़ा दिखाई दिया. मैंने अपनी आदत के अनुसार लोगों को एक सुन्दर जगह को गन्दा करने के लिए कोसते हुए सड़क के किनारे उतर कर वह कागज़ उठा लिया. वह कागज़ ब्रुक-बोंड चाय का एक खाली रैपर था. मैंने उसे कचरे की पेटी में फेंकते-फेंकते भी सरसरी तौर पर पढ़ लिया. उस पर एक "पज़ल" की शक्ल में प्रतियोगिता की सूचना थी.मैं उसे घर ले आया. मैंने गंदे कागज़ को धोया और फिर उसे किताबों के बीच दबा कर सुखाया. प्रतियोगिता यह थी कि उसमे कुछ लोगों के फोटो बने थे, जिनमे शरीर किसी एक वेशभूषा में था तथा चेहरा किसी दूसरे व्यक्तित्व का. जैसे एक सिख चेहरा था पर धड़ किसी पंडित का. ऐसे ही चेहरा किसान का था पर धड़ वकील का. बस, उन चेहरों को सही मिलान करके जमाना था और उसके साथ चाय पर एक छोटा सा स्लोगन लिखना था. मैंने उसे पूरा करके भेज दिया और कुछ दिन बाद स्कूल खुलने पर हम लोग वापस राजस्थान आ गए. 
लगभग एक साल के बाद, एक दिन सुबह-सुबह अखबार आया तो मैं यह देख कर दंग रह गया कि उस प्रतियोगिता का दूसरा पुरस्कार मुझे मिला था, और बड़े-बड़े अक्षरों के साथ मेरा नाम छपा था.मुझे पचास साल पहले दो हज़ार रूपये का पुरस्कार मिला था जिसकी आज की कीमत शायद लाख हो. 
अब देहरादून बहुत बड़ा हो गया है. कचरा भी सड़कों पर खूब रहता है, पर मेरा दिल कचरे में हाथ डालने से घबराता है. राजधानियों के कचरे में क्या पता क्या हो? कोई बम्ब ही फट जाये. 

'सर्दी हो चाहे गर्मी,या होवे बरसात. ब्रुकबोंड की चाय, रहती है लाजवाब'.       

गुरुवार, 9 जून 2011

मुझे ही यकीन नहीं, तो आप कैसे करेंगे कि शिमला मैंने कैसे देखा

खूबसूरत शिमला हर कोई ऐसे देखता है कि सालों इसे देखने के सपने देखता है, और फिर नज़रों से इसके नज़ारे जी भर-भर देखता है. पर जब मैंने शिमला देखा तो मुझे दो बातें सीखने को मिलीं. एक- बॉस इज आलवेज़ राइट और दूसरी- अफसर के अगाड़ी और घोड़े के पिछाड़ी चलने वाला और चाहे जो हो, बुद्धिमान तो नहीं. 
उन दिनों मैं दिल्ली में नौकरी करता था. चंडीगढ़ में कोई सरकारी मीटिंग हुई. हैड- ऑफिस से मेरे बॉस भी आये. मीटिंग ख़त्म होते ही मेरे बॉस ने ऐलान किया कि यहाँ से शिमला काफी पास है, देखने चलेंगे. हम कार से  चल दिए.अफसर के साथ पर्यटन का जैसा भी डरा-सहमा आनंद हो सकता है, उसी को महसूस कर के मैं चल दिया.कालका का रमणीक रास्ता पार करके जब हम शिमला की चढ़ाई पर आये, तो मौसम खुशनुमा होने लगा. थोड़ी ही देर में अच्छी-खासी ठण्ड पड़ने लगी. मैं तो दिल्ली से आने के कारण एक स्वेटर रख लाया था, पर बॉस दक्षिण भारत से आने के कारण गर्म-कपड़ों से दूर-दूर तक परिचित नहीं थे. जब वे मॉल रोड पर ठण्ड से सिकुड़े-सहमे सर झुकाए चल रहे थे, मैं नया स्वेटर पहन कर शान से  आगे-आगे चल रहा था.तभी पीछे से आवाज़ आई- गोविलजी,आपका स्वेटर मुझे दे दीजिये. मैं जैसे आसमान से गिरा, बिना किसी लाग-लपेट के ये कैसा फरमान आया? पर गलती मेरी थी, मैंने अफसर के अगाड़ी चल कर अपने स्वेटर का डिजायन खुद उनसे पसंद कराया था.अब कोई चारा नहीं था. मन ही मन मैंने बॉस के हमेशा राइट होने के जुमले को कोसा और भरी ठण्ड में मॉल रोड के बीचों-बीच बेमन से स्वेटर उतारा. अब बॉस प्रफुल्लित होकर शिमला देख रहे थे और मैं मन मसोस कर घड़ी.कब शाम हो और हम निकलें. लेकिन जैसे इतना ही काफी नहीं था. बॉस की दिलचस्पी अब शिमला में बढ़ती ही जा रही थी.वे बोले- चलिए, हम याक़ की सवारी करेंगे.
याक़ वो खतरनाक जानवर था जिस पर बैठा कर वहां एक पहाड़ी रास्ते पर चक्कर कटवाया जा रहा था. रास्ता भी दुर्गम था. एक ओर खाई थी दूसरी ओर कड़ी चढ़ाई. हम दोनों एक-एक याक़ पर बैठ गए और पहाड़ी का चक्कर लगाने लगे. आदमी केवल एक था और वह दोनों जानवरों की रस्सी पकड़े आगे-पीछे चल रहा था.थोड़ी ही देर में उन्हें डर लगने लगा, और वे उस आदमी से  बोले-तुम दूसरी रस्सी छोड़ दो, केवल मेरे साथ चलो.आदमी ने निरीहता से मेरी ओर देखा, मैंने मन ही मन दोहराया- यस, ही इज राइट, जाओ. और मैं  मन ही मन हनुमान-चालीसा का पाठ करता हुआ उस दुर्गम रास्ते पर अनजान जानवर के साथ अकेले सफ़र पर चलता रहा. आप खुद अनुमान लगा सकते हैं कि मुझे कैसा दिख रहा होगा शिमला? उस दिन मन ही मन में मैंने यह कसम भी खाई कि बड़ा अफसर बन जाने के बाद एक दिन घोर गर्मी के मौसम में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों का कोट पहन कर अकेला गधे पर बैठ कर चलूँगा और उनसे कहूँगा कि मेरी रस्सी तुम pakdo.              

मंगलवार, 7 जून 2011

प्रशासनिक हिरासत में देखा जम्मू

जम्मू कश्मीर राज्य की राजधानी है, परन्तु जब पहली बार मुझे जम्मू देखने का मौका मिला तो इसका यही, राजधानी होना जी का जंजाल बन गया. मैं अमृतसर से चल कर जम्मू पहुंचा था और एक होटल में ठहरा हुआ था. यह वही डरावनी काली रात थी जब स्वर्ण-मंदिर में ऑपरेशन ब्लू-स्टार हुआ था और अगली सुबह कई  शहरों में कर्फ्यू लग गया था. 
कुछ दिन तो सब ठीक-ठाक चलता रहा, पर जल्दी ही लोगों को परदेस में कर्फ्यू लग जाने का मतलब समझ में आने लगा.हज़ारों लोग इधर-उधर फंस गए. लोगों के पैसे ख़त्म होने लगे. लोगों के अपने-अपने घरों से संपर्क टूटने लगे. होटलों- धर्मशालाओं में खाना-पानी बीतने लगा. चोर-लुटेरे सक्रिय होने लगे.दिन में एक घंटे के लिए कर्फ्यू में ढील दी जाती, तब मैं ऑटो-रिक्शा करके स्टेशन जाता और पता करता कि गाड़ियाँ जानी शुरू कब होंगीं.सड़कों पर सन्नाटा फैला रहता और प्रशासनिक अमला लाचार  सा घूमता रहता.यहाँ मैंने पुलिस वालों को लोगों की मदद करते भी देखा. वे घरों और होटलों की खिड़कियों से पैसे व बर्तन लेकर जाते और इधर-उधर से कम से कम छोटे बच्चों के लिए दूध दवा लाकर देते.डाकघरों में लोगों की भीड़ लगती, सबके पास यही काम, घर वालों को सन्देश भेजना कि पैसे भेजो. एक दिन एक अनपढ़ सा एक युवक मेरे पास आकर बोला कि यदि मेरे पास बीस रूपये हों तो उसे देदूं, वह डाक से मुझे वापस लौटा देगा. मैंने उस से इसका कारण पूछा तो वह बोला कि वह अपने घर टेलीग्राम कर रहा है, जिसमे बीस रूपये कम पड़ गए हैं.मैंने उसका टेलीग्राम फार्म लेकर देखा, तो पता चला कि उसने जो मैटर हिंदी में लिखा है उसके पोस्ट-मास्टर उस से पिचहत्तर रूपये चार्ज  कर रहा है.मैंने उससे नया फार्म लाने के लिए कहा, और अंग्रेजी में उसे तार लिख कर दे दिया. उस तार के पच्चीस रूपये लगे. लड़का इतनी कृतज्ञता से मुझे देखने लगा कि शायद बीस रूपये दे देने के बाद भी नहीं देखता, क्योंकि उसका काम भी हो गया था और उस के पास तीस रूपये और भी बच गए थे. बाद में मैंने यह काम कई और लोगों के लिए भी किया. 
खैर, वह यात्रा तो जैसे-तैसे पूरी हुई, पर बाद में कई बार जम्मू जाना हुआ. तब कटरा जाकर वैष्णो देवी के दर्शन भी किये और उधमपुर का सैन्य इलाका भी देखा.वही सड़कें, वही गलियां जो कर्फ्यू के दिनों में डरावनी दिखती थीं, सुहावनी दिखने लगीं.         

रविवार, 5 जून 2011

उन दिनों श्रीनगर में भीड़-भाड़ बिलकुल भी नहीं थी.

घर में से जब सब बच्चे और बड़े अपने-अपने स्कूल या दफ्तर चले जाते हैं, तो पीछे घर में रह जाने वाले इक्का-दुक्का लोगों को अपने घर में टंगे कलेंडर जैसे दिखाई देते हैं, वैसा ही लगता था उन दिनों श्रीनगर. जिस पर नज़र डाल कर तारीख भी देखी जा सके और तवारीफ़  भी.मंज़ूर सुबह-सुबह होटल के मेरे कमरे पर आ जाता था, और मेरे तैयार होने और नाश्ता करने के दौरान मुझे शहर की मौजूदा हलचल की जानकारी भी देता जाता था. एक दिन बोला- आज डल लेक में राजेश खन्ना और रीना राय की शूटिंग चल रही है, पहले वहीँ चलेंगे.
जब हम पहुंचे  तो पता लगा कि शूटिंग एक दिन पहले ही बंद करके सब जा चुके हैं.पर उस दिन डल झील में हमने करीब पांच घंटे सैर की. पानी की दुनिया को नज़दीक से देखा. पानी पर व्यापार, पानी पर इंतज़ार, पानी पर ज़िन्दगी अद्भुत है. जो लोग वहां घूमने आते हैं, उनकी आँखे चम्मच की तरह चपलता से चारों ओर के नज़ारे चख लेना चाहती  हैं.वहां के रहवासियों को लगता है, जो जितना अभिभूत होगा वह उतना ही दे जायेगा. इसलिए वे भी परोसने में कोई कोताही नहीं करते. 
लगे हाथ आपको यह भी बता दूं कि वहां की किस बात ने 'सांझा' कहानी का खाका मेरे दिमाग में  बनाया? जिस तरह एक बर्तन में रखा दूध अचानक फट जाता है, वैसे ही किसी छोटी सी बात पर मची भगदड़ वहां के निवासियों को अपने धर्मों में बाँट देती है. दूध कितना भी अचानक फटे, कुशल गृहणी इसका कारण जानती है, ठीक वैसे ही संबंधों के बीच नीबू निचोड़ देने वाले आतताई भी जानते हैं कि दंगे क्यों भड़के? उन्नीस साल के किशोर मंज़ूर ने अपने शरीर के कई ऐसे घावों के निशान मुझे दिखाए, जिनके लिए वो खुद कतई ज़िम्मेदार नहीं था. आप सोचेंगे कि ऐसे लोगों को पकड़ कर तड़ीपार क्यों नहीं किया जाता? दबी जुबां में इसका कारण यही है कि ऐसे लोग निरापद सरकारी बंगलों में भी हो सकते हैं और बस्ती पार की रहस्यमयी गलियों में भी.जिस तरह सेहरा में नखलिस्तान होते हैं, वैसे ही नखलिस्तानों की इस बस्ती में टापू की शक्ल में सेहरा भी.         

गुरुवार, 2 जून 2011

उस कहानी का नायक कश्मीर में मेरी नाव चलाता रहा

आपको राजस्थान के पूरे तैतीस जिले घुमाने के बाद अब हम रुख कर रहे हैं भारत के कुछ और शहरों का. सबसे पहले मैं कश्मीर की बात करूँगा. कश्मीर में भी वहां के सिरमौर श्रीनगर की . श्रीनगर को देखने की इच्छा पहली बार बचपन में तब मन में जगी जब मैंने दो फ़िल्में देखीं. इनमे से एक तो थी "आरज़ू" और दूसरी थी "जब जब फूल खिले". लेकिन जिस आरज़ू से मैं कश्मीर को देखना चाहता था, वह जब पूरी हुई तब तक कश्मीर न जाने किसकी बद-नज़र का शिकार होकर उजड़ चुका था.मुझे वहां घूमते हुए बराबर यह अहसास होता रहा कि वास्तव में फूल देर से खिले.लेकिन दिलचस्प बात यह है कि जिस तरह अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी सत्तर साल के होने के बाद भी अमिताभ बच्चन और हेमा मालिनी ही होते हैं, कश्मीर भी अपने अतीत की सुनहरी मछलियों के हाथ से फिसल जाने के बावजूद कश्मीर ही था. 
मुझे कश्मीर मंज़ूर अहमद डार नाम के एक लड़के ने दिखाया.यह लगभग पांच दिन मेरे साथ रहा. बाद में मैंने इसी लड़के पर अपनी कहानी "सांझा" लिखी, जो दिल्ली के अखबार नवभारत टाइम्स में छपी. लगे हाथों एक बात आपको और बताता हूँ, कि जब फिल्म सत्ताधीश की पटकथा मैं लिख रहा था, उसमे सांझा का करेक्टर भी डाला गया था, जिसे अभिनीत करने के लिए गोवा के युवक श्याम सुन्दर थली से बात की गई थी.थली यह जानने के बाद, कि वह सांझा जैसा दीखता है, मेरे पास आने-जाने लगा था क्योंकि सांझा कहानी उसने भी पढ़ी थी. थली ने ही मुझे गोवा घुमाया, जब पहली बार मैं गोवा में कुछ दिन रहने गया. गोवा की बात भी करेंगे, लेकिन पहले कश्मीर की.      

गुरुवार, 19 मई 2011

आखिर विचार और विकास का सम्बन्ध जान गया जयपुर

राजस्थान की राजधानी और गुलाबी नगरी जयपुर आज तेज़ी से बढ़ कर विश्व मानचित्र पर आने को आतुर है. ऐसा और पहले हो सकता था, लेकिन आज़ादी के बाद पहले पैतीस-चालीस साल जयपुर ने अपने पैरों पर आप कुल्हाड़ी मारी.यह स्वतंत्र और जनसंघ जैसी पार्टियों को वोट देकर अपना प्रतिनिधि  विधानसभा में भेजता रहा, और सरकार कांग्रेस की बनती रही.अतः स्वतंत्र पार्टी की राजमाता गायत्री देवी और जनसंघ के भैरों सिंह शेखावत व सतीश चन्द्र अग्रवाल जैसे कद्दावर और जुझारू नेताओं की सारी शक्ति तत्कालीन सरकारों से विरोध-मतभेद रखने में खर्च होती रही, और बदले में जयपुर एक अदद बड़ी रेलवे लाइन को भी तरसता रहा. इस रस्साकशी में जयपुर अन्य राज्यों की राजधानियों से काफी पिछड़ गया. बदलते समय के साथ राज्य और केंद्र में एकसाथ बीजेपी भी आई और इसी तरह कांग्रेस भी आई. नतीजा यह हुआ कि जयपुर ने विकास की राह पकड़ ली. आज जयपुर ठीक वैसे ही पनप रहा है जैसे एशियाड के समय कभी दिल्ली पनपा था.आज जयपुर की शान केवल आमेर, सिटी-पैलेस, जंतर-मंतर,म्यूजियम, रामनिवास बाग़ ही नहीं हैं बल्कि वर्ड ट्रेड पार्क,दर्ज़नों अत्याधुनिक मॉल ,और बीसियों पांच सितारा होटल भी हैं.देश के हर बड़े शहर से जयपुर सीधी गाड़ियों से ही नहीं, हवाई मार्ग से भी जुड़ा है.अंतर-राष्ट्रीय विमानतल जयपुर की शान है. विदेशी पर्यटक यहाँ अब ऐसे घूमते  देखे जाते हैं, मानो वे अपने देश में ही घूम रहे हों. शानदार विधान-सभा भवन मौजूद है, लेकिन उसमे बैठ कर कौन क्या करता है, ये तो राम ही जाने.        

बुधवार, 18 मई 2011

बुरा भी अच्छे के लिए हुआ अजमेर में

राजस्थान में जब  गुर्जरों का आरक्षण  के लिए आक्रामक आन्दोलन चला,तो मीणा बहुल क्षेत्रों में मीणा समुदाय के लोग भी इसके प्रति मानसिक लामबंदी की तैयारी  करने लगे. क्योंकि गुर्जरों द्वारा आरक्षण मांगने में उनकी थाली के घी की ओर ही अंगुली उठाई जा रही थी.नतीजा यह हुआ कि दूरदर्शी सचिन पायलेट ने अपनी ज़मीन का भू-डोल समयपूर्व ही भांप लिया,और वे अजमेर से सांसद बने.पायलेट केंद्र में मंत्री बने तो अजमेर की पिछले कुछ समय से अवरुद्ध पाइप-लाइनें  भी खुलीं. आज अजमेर फिर कई बातों को लेकर सुर्ख़ियों में है. 
वैसे अजमेर शहर कभी पर्यटन,पानी और पढ़ाई को लेकर राजस्थान का सिरमौर रहा है. सुप्रसिद्ध ख्वाजा की दरगाह बड़ी संख्या में जियारत  करने वालों को यहाँ खींचती रही है.अजमेर सुन्दर भी है, साफ भी. पर्यटन की द्रष्टि से यहाँ आनासागर, फाईसागर, ढाई-दिन का झोंपड़ा और जैन मंदिर जैसे अनेकों दर्शनीय स्थान हैं जो शहर के महत्त्व को बढाते हैं. इसे किसी समय प्रांत की शैक्षणिक नगरी का दर्ज़ा भी प्राप्त था. प्रसिद्द 'पुष्कर तीर्थ' भी अजमेर के निकट है. यहाँ ब्रह्मा-मंदिर विशेष आकर्षण है. पुष्कर की अवस्थिति कभी प्राकृतिक जल-संग्रहण से ही निर्मित हुई थी किन्तु अब यहाँ जल-संसाधन के विशेष प्रयास और प्रयोग किये गए हैं. अजमेर संभाग मुख्यालय है जो नागौर, भीलवाडा और टोंक जिलों के समावेश से प्रशासनिक इकाई बनाया गया है. स्कूली-शिक्षा का माध्यमिक शिक्षा बोर्ड इसके महत्त्व को बढाता है.        

मंगलवार, 17 मई 2011

विश्वसनीय लगते हैं सीकर के युवा

बड़े शहरों में रहने वाले लोग तरह-तरह की सुविधाओं और अनुभवों के कारण धीरे-धीरे अतिचतुर हो जाते हैं, जिस से उनकी विश्वसनीयता दाव पर लग जाती है.इसी तरह ग्रामीण-क्षेत्रों में रहने वाले लोग अल्प-शिक्षित और भोले-भाले रह जाने के कारण उनकी क्षमता पर पूरा विश्वास नहीं हो पाता. इन दोनों स्थितियों के बीच की जो उचित-तम स्थिति है, वह आप सीकर के युवाओं में देख सकते हैं. 
दिल्ली-जयपुर जैसे शहरों के लोगों की बातचीत और 'बोडी -लैंग्वेज' में आपको एक बनावटीपन दिखेगा.शेखावाटी की तरफ के लोग हरियाणवी माहौल की भांति आपको बहुत ही बेबाक और कहीं-कहीं अक्खड़ तरीके से बोलते दिखेंगे. इन दोनों के बीच का जो संभ्रांत- संतुलन है वह आपको सीकर के युवाओं में मिलेगा. इन कारणों से सीकर के लोग विश्वसनीय भी लगते हैं और आकर्षक भी. वैसे सीकर शहर में कुछ भी महत्वपूर्ण नहीं दिखाई देता. न तो यह् पर्यटन -व्यापार-कृषि की दृष्टि से कुछ विशेष है, और न ही प्राकृतिक सौन्दर्य में. यहाँ के राजस्थानियों का कई दूसरी जगहों पर जाकर व्यापार करना या पैसा कमाना ज़रूर शहर की तकदीर लिखता रहा है. यहाँ आपको असंख्य बड़ी-बड़ी ऐसी हवेलियाँ मिलेंगी जिनके निर्माण का ही नहीं, रख-रखाव तक का खर्चा बाहर से आ रहा है. अनेक दानवीरों के चलते कई शिक्षण-संस्थाएं भी यहाँ पनपी हैं. सुप्रसिद्ध खाटू-धाम और सालासर भी इसी जिले में हैं. राजमार्गों पर तेज़ी से पनपते होटल-रिसोर्ट और अन्य केन्द्रों ने सीकर से जयपुर की दूरी को और कम कर दिया है.    

सोमवार, 16 मई 2011

नाम पर मत जाइये भीलवाड़ा के

नाम पर मत जाइये, नाम में कुछ नहीं रखा. अब 'भीलों'' जैसा यहाँ कुछ नहीं दीखता. भील तो उघड़े बदन रहते हैं, पर भीलवाड़ा राजस्थान में कपड़ा उद्योग का पर्याय है.भील आखेट से अपनी उदरपूर्ति करते रहे, किन्तु भीलवाड़ा के लोग शिकार करते नहीं, शिकार होते रहे, विकास और बदलाव के. 
मुझे लगता है कि भीलवाड़ा में साहित्यिक माहौल व अभिरुचि भी अन्य नगरों के मुकाबले कुछ ज्यादा है. बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका 'बालवाटिका' यहीं से प्रकाशित होती है. यहाँ के कुछ आयोजनों में कभी-कभी मुझे भी शामिल होने का अवसर मिला है. मैंने देखा है कि व्यापारी, शिक्षक, विद्यार्थी व अन्य पेशेवर लोग साहित्यिक गतिविधियों के लिए मुलायम कोण रखते हैं. वे चाव से इनमे शिरकत करते हैं. शायद उद्योगों के बाहुल्य से इस तरह की गतिविधियों को आर्थिक-प्रश्रय सहज उपलब्ध हो जाता हो. भीलवाड़ा में आरंभिक शिक्षा पर भी काफी बल दिया गया है. यहाँ विद्यालयों की पर्याप्त संख्या और उनमे चलते नवाचार आकर्षित करते हैं. कुल मिला कर ऐसा लगता है जैसे शहर एक 'आदर्श' रचने के लिए कसमसा रहा हो. किसी शहर की ऐसी सोच का सम्मान सरकारों को भी करना चाहिए, और उसे बेहतर साधन-सुविधाएँ उपलब्ध करवाने चाहिए. केन्द्रीय मंत्री व राजस्थान के कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष जोशीजी शायद इस भावना को भांप चुके हैं. 

रविवार, 15 मई 2011

परम्पराओं और जीवन-शैली की गहरी पैठ आधुनिकता के लिए चुनौती है बूंदी में

राजस्थान के राजे-रजवाड़ों की स्मृतियाँ और शान-शौकत के चिन्ह अब भी जिन शहरों में बचे हैं, उनमे बूंदी भी है. जयपुर से कोटा जाने वाले राजमार्ग पर कोटा से थोडा पहले ही इसका मुख्यालय है. इस शहर को पहाड़ियों ने इस तरह से घेर रखा है, कि यह पहाड़ों की गोद में पत्थरों की कारीगरी का बेहतरीन नमूना है. पर्यटक इसे कोतुहल से देखते हैं. सरकार भी बूंदी महोत्सव का आयोजन करके पर्यटकों के लिए एकसाथ इसकी सभी विशेषताओं को परोसने की ज़िम्मेदारी उठाती है.पुराने ज़माने में लोग कितने मेहनत-कश रहे होंगे, और स्थापत्यकला को जीवन से जोड़ने के शिल्प में उन्हें कैसा महारत हासिल होगा, इसकी शानदार मिसाल बूंदी है. यद्यपि एक आधुनिक शहर के रूप में विकसित होने और जीवन-शैली को मौजूदा दौर का बनाने की कोशिशों में यही विशेषताएं बाधा भी बनती हैं. फिर भी माहौल अब तेज़ी से बदल रहा है. 
जो राजा बदलते समय के साथ बदलने में यकीन रखते थे, उनके नगर भी आधुनिक हो गए, पर जिनकी अपने संस्कारों, परम्पराओं और जीवन-शैली पर गहरी पैठ थी, उनके नगर आज भी आधुनिकता की चुनौती  से जूझ रहे हैं.बूंदी के केशोरायपाटन और लाखेरी जैसे कसबे औद्योगिक विकास में काफी आगे हैं. लाखेरी तो किसी उद्योग नगर की संस्कृति ही जी रहा है. पानी की पूरे जिले में कोई कमी नहीं है. चम्बल नदी के तट जिले को जगह-जगह से भिगोते हैं.   

शनिवार, 14 मई 2011

पाली जिले का रणकपुर अद्भुत है

यदि मुझसे कोई पूछे कि राजस्थान में ऐसी कौन सी जगह है जहाँ आप शांति से अपने खुद के साथ रहते हुए कुछ दिन बिताना चाहेंगे, तो मेरा जवाब होगा पाली जिले के रणकपुर में. न जाने क्यों , यह पूरा क्षेत्र ऐसा लगता है जैसे हम उस काल में पहुँच गए हों जब समाज और देश में सचमुच धर्म और आध्यात्म का बोलबाला था. जब कलाकार ईश्वर को बनाया करते थे,संगीतकार ईश्वर को गाया करते थे, और व्यापारी ईश्वर को हाज़िर-नाजिर जान कर व्यापार किया करते थे. राजा तब ईश्वर से केवल वोट दिलवाने का रिश्ता ही नहीं रखते थे, बल्कि उसमे आस्था भी रखते थे. 
पाली जिला वैसे तो जोधपुर के निकट बाद में बना जिला है, पर यह मेवाड़ और मारवाड़ के बीच प्राकृतिक विभाजन भी है. यदि आप उदयपुर से चारभुजा-देसुरी होते हुए पाली जिले में प्रवेश करें तो आपको अपरिमित प्राकृतिक सौन्दर्य के भी दर्शन होते हैं. इसी हरे-भरे माहौल के बीच अनेकों मंदिर-मठ जगह-जगह आपका ध्यान खींचते हैं. 
पाली में व्यापारी और पैसा बहुत है. इसी के चलते लोगों में एक सहिष्णुता और संतृप्ति  के दर्शन होते हैं. यहाँ के लोग बोली से शांत और स्वकेंद्रित लगते हैं. समीपवर्ती जोधपुर शहर का तेज़ी से हुआ विकास यहाँ भी लहराता है. स्थान-स्थान पर अच्छे होटल और विश्रामगृह भी आपको मिलेंगे क्योंकि जयपुर से अहमदाबाद की ओर जाने वाला यातायात यहाँ से काफी गुज़रता है.    

चित्तौडगढ़ ने टूटने न दिया कभी शीशे का बदन या बदन का शीशा

मानव सभ्यता के दो कोण देखिये. एक ओर तीस वर्ष का युवक पिच्चासी वर्ष के वृद्ध के लिए कहता है कि यह मेरा पिता है, और तथाकथित पिता इस से इंकार करता है. विवश होकर सरकार को वृद्ध के शरीर का जैविक परीक्षण कराना पड़ता है.दूसरी ओर एक राजकुमारी को विवाह प्रस्ताव के साथ एक युवक देखना चाहता है, और इसके लिए लाजवंती राजकन्या को सीधे युवक को न दिखा कर एक इमारत में शीशे के सामने खड़ा किया जाता है, जहाँ वह दूसरी इमारत की पानी में उतरती सीढ़ियों पर खड़ी  कन्या का अक्स शीशे में दूर से देख पाता है.इतना ही नहीं, बल्कि खिड़की के छज्जे पर एक सैनिक नंगी तलवार लेकर बैठाया जाता है, ताकि युवक गलती से भी झांक कर कहीं राजकन्या को सीधे न देख ले. 
इन दोनों घटनाओं में शताब्दियों का समय अंतराल है. लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ता, चित्तौड़ को आज भी अपने इतिहास में दर्ज इस दर्प-दीप्त कथानक पर फख्र है. वहां के किले में यह आख्यान आज भी जीवंत है, और देशी-विदेशी सैलानियों को हैरत में डालता है. इसी शहर में विजय का सर्वकालिक, सार्वभौमिक 'विजय-स्तम्भ' भी स्थित है. चित्तौड़ की कीर्ति की  यही इतिश्री नहीं है, इसका नाम राजकन्या मीरा से भी जुड़ा है,जिसने एक पत्थर के टुकड़े से तराश कर बनाई गयी मूर्ती को अपने तमाम रिश्तों से ऊपर प्रतिष्ठापित कर दिया, और दीवानगी की तमाम हदें पार कर लीं. आज चित्तौड़ तेज़ी से औद्योगिक विकास की दौड़ में शामिल एक शहर है, जिसकी फितरत से राजस्थानी आन-बाण और शान अब भी टपकती है.       

गुरुवार, 12 मई 2011

हाशिये का अकेलापन बारां ने भी झेला है

मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर है एक और आदिवासीबहुल जिला बारां. जब हम राजस्थान के पिछड़े जिलों की बात करते हैं, तो हमें बारां का नाम भी लेना पड़ता है. ऐसा हम ही नहीं कहते, बल्कि सरकार खुद भी कहती है. सरकार ने पिछड़े जिलों के विकास के लिए जो विशेष फंड की व्यवस्था की है, उसके हितग्राहियों में बारां भी है. बारां शहर में आपको एक विचित्रता और भी दिखती है. यह मूल रूप से तो छोटा सा फैला-फैला मामूली शहर है, पर बाद में जिला मुख्यालय बनने और विकास की सूची में आने से यहाँ सरकारी इमारतें नई और बड़ी-बड़ी बन रही हैं.इस से यह भी नए-पुराने शहर में बँट गया है.फिर भी उन्नति को लेकर यहाँ के रहवासियों में एक भोला उत्साह है. यही उत्साह यह भी बताता है कि इन लोगों में सामूहिकता की भावना विशेष है, वरना अब बड़े शहरों में अपने शहर से लगाव भला कितनों को रह गया है? कुछ समय पूर्व जब इसका निकटवर्ती जिला झालावाड सुर्ख़ियों में आया था तो फ्लड लाइट इस पर भी पड़ी.नतीजतन कोटा के साथ मिल कर एक सुनहरा त्रिकोण यहाँ भी बन गया जो चौड़ी शानदार सड़क और काली-सिंध नदी के आकर्षक  नज़ारे में बदल गया. जिस पर आदमी मेहरबान नहीं होता, उस पर कुदरत ज्यादा मेहरबान होती है. राजस्थान के कई नामी-गिरामी जिले इस रूप में बारां से ईर्ष्या कर सकते हैं कि यहाँ हरियाली की छटा बेहद आकर्षक है. वन-प्रांतर में अरण्य-जीवों की संभावना भी बलवती है. 

बुधवार, 11 मई 2011

राज- बत्तीसी और अकल- दाढ़ माने प्रतापगढ़

मैं अपनी यात्रा में जब उदयपुर से चित्तौड़ की ओर आ रहा था बीच में निम्बाहेडा  और छोटी व बड़ी सादड़ी पड़े.यह इलाका सीमेंट के उत्पादन के लिए जाना जाता है. यहीं वह महत्वपूर्ण खबर भी मिली कि राजस्थान का जो नया जिला बन रहा है वह इस इलाके से लगता हुआ ही है.मैं प्रतापगढ़ को देखने का लोभ छोड़ नहीं सका. जिले की तब-तक केवल घोषणा ही हुई थी, मुख्यालय के दफ्तरों ने काम करना शुरू नहीं किया था. मेरी दिलचस्पी यह जानने में थी कि चित्तौड़ के कुछ हिस्से को निकाल कर यह जिला किस आधार पर बनाया जा रहा है? मेरी जानकारी के अनुसार उस समय लगभग नौ शहर जिला बनने की दावेदारी में थे.मैंने वहां कई लोगों से बात की. छोटे-बड़े, ग्रामीण-शहरी, व्यापारी-कर्मचारी कई लोगों से मैं मिला. बाद में अपने अवलोकन की पुष्टि के लिए मैं राजस्थान पत्रिका अखबार के कार्यालय में भी गया. मुझे इस शहर के जिला बनने के प्रमुख रूप से दो कारण दिखाई दिए. एक कारण तो यह, कि दक्षिणी राजस्थान की लम्बी-चौड़ी आदिवासी बेल्ट का संतुलित विकास करने की द्रष्टि से उदयपुर संभाग का कुछ हिस्सा चिन्हित करना ज़रूरी समझा गया , ताकि इसका त्वरित विकास हो सके. इस हिस्से की अब उदयपुर संभाग काफी घना हो जाने के कारण अनदेखी हो रही थी. दूसरे, इस इलाके के बहुत सारे लोग विदेशों में थे और छोटे-छोटे गाँव-ढाणी तक में विदेशी पैसा खूब आ रहा था. इस तथ्य को जिले की अर्थ-व्यवस्था के पक्ष में माना गया. और इस तरह यह जिला बन गया. मुझे लगा, सर्कार ने यह निर्णय राजनैतिक सोच से नहीं लिया, बल्कि समझ-बूझ कर अकल से लिया है. बस, इस राज-बत्तीसी में अकल-दाढ़ आ गयी.         

मंगलवार, 10 मई 2011

होने लगेगा कभी तो करौली भी विकसित

करौली छोटा सा शहर है, लेकिन मुझे इस से एक विचित्र सा लगाव है. इसका कारण भी आपको बताता हूँ. जब मैं बहुत ही छोटा था, तो मुझे एक 'टेलेंट-खोज' परीक्षा के लिए परीक्षा-केंद्र के रूप में करौली ही मिला था. मेरे पिता ने अपनी व्यस्तता के चलते एक अन्य सज्जन के साथ मुझे परीक्षा देने भेजा था. परीक्षा के दौरान वहां के अध्यापकों ने मेरा बहुत ही ध्यान रखा. मेरे मन में तभी से इस शहर के लिए एक आकर्षण हो गया. लौटते समय हम आखिरी बस चूक गए थे, और हमें वाहन बदल-बदल कर वापस आना पड़ा, पर इस से करौली के प्रति लगाव कम क्यों होता? हाँ, अब जब बरसों बाद मैंने करौली को दोबारा देखा, तो मुझे थोडा सा दुःख ज़रूर हुआ, क्योंकि करौली अभी भी ज्यादा विकसित नहीं है. लेकिन विकास की संभावनाएं धूमिल नहीं हुई हैं. मेरे एक मित्र को यहाँ पर विश्व-विद्यालय खोलने की अनुज्ञा मिली है और मैंने देखा, शहर के एक किनारे पर उन्हें मिली ज़मीन में तेज़ी से इमारतें बनने का सिलसिला शुरू हो चुका है. यहाँ की मिट्टी हलकी सी लाली लिए हुए है,और अभी बड़े शहरों की मिट्टी की तरह गन्दी नहीं हुई है. उसमे से ख़ुशबू आती है.यहाँ के पत्थरों में भी लाली है. जब विकास होगा तो इन खूबसूरत प्राकृतिक पत्थरों को खोद-खोद कर शानदार इमारतें बन सकेंगी. मैं करौली में घूमते हुए वहाँ की गलियों में उन बच्चों को ढूंढता रहा, जिन्होंने मेरे साथ वर्षों पहले वहाँ परीक्षा दी होगी. लेकिन अब वे दिखाई थोड़े ही देते, अब तो वे अपने बच्चों के बच्चों की परीक्षा की चिंता में घूम रहे होंगे. सरकार ने यहाँ की सड़कें खूब चौड़ी बना दी हैं. शहर से कुछ दूरी पर कैला देवी का भव्य मंदिर है, जहाँ अच्छी चहल-पहल रहती है.      

सोमवार, 9 मई 2011

धौलपुर, जिसके शफ्फाक- सफ़ेद नाम पर दस्युओं ने छींटे लगा दिए

जिस तरह मध्य प्रदेश के भिंड-मुरैना के नाम पर समाज-कंटकों ने दाग लगा दिए, वैसे ही राजस्थान के धौलपुर पर भी बदनामी का साया पड़ा. कुछ लोग सामाजिक जीवन से छिटक कर असामाजिक हो जाते हैं, और उन्ही की गतिविधियाँ उनके गाँव-शहर के नाम पर भी अपना असर दिखा कर रहती हैं. धौलपुर की छवि भी एक समय ऐसी ही बन गयी थी, जिसके चलते यहाँ के निवासियों की बोली में एक आक्रामकता आज भी सुनाई देती है. यूं तो यह धवलपुर है, अर्थात श्वेत शहर. डाकुओं को जीवन में बहुत कम लोगों ने देखा होता है, पर उनके किस्से-कहानियां सब सुनते हैं. ऐसे ही अनेकों प्रसंग धौलपुर से भी जुड़े हैं. धौलपुर एक ऐतिहासिक शहर है. यहाँ के कई स्थानों पर मुग़ल-कालीन नगरों की झलक मिलती है. तेज़ धूप के इस शहर में मुग़ल-स्थापत्य भी देखा जा सकता है.यहाँ आसमान जितना साफ दिखाई देता है , धूप की तल्खी भी उसी मिजाज़ की है. यहाँ की संस्कृति मध्यप्रदेश, उत्तरप्रदेश और राजस्थान, तीनों की मिश्रित संस्कृति है, जो भाषा से लेकर खान-पान और व्यवहार तक में देखी जा सकती है.यहाँ पत्थर बहुतायत में होता है. बड़ी-बड़ी शिलाओं का इस्तेमाल गाँव तक के मकानों में होता है. पथरीली भूमि पर पत्थर की पतली कटी हुई लम्बी-लम्बी पट्टियाँ यहाँ खड़े आकार में आसानी से लगाई जाती हैं. इनका भार भी दीवारें और नीव आसानी से इसलिए सह लेती हैं, कि ज़मीन सख्त है. पहली बार वहां गए सैलानियों को तो ऐसा लगता रहता है कि यह पट्टियाँ कहीं दीवारों से निकल कर गिर न पड़ें. यहाँ सैनिक स्कूल होने से देश को सैनिक प्रदान करने का श्रेय भी इस नगर को है. आखेट-युगीन प्रवृत्तियां यहाँ की मानसिकता में आज भी रची-बसी हैं.    

रविवार, 8 मई 2011

एक शहर, बजता है नाम जिसका- झुंझुनू

यदि सब घर के लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी एक ही जगह रहते चले आते हैं तो उनका काम मौन से भी चल जाता है और परदे की ओट से खांस-खखार कर भी. लेकिन यदि पत्नी गाँव में रहे और पति रोज़ी कमाने की खातिर परदेस में , तो फिर काम खांस-खखार कर नहीं चल पाता. तब तो एक-दूसरे को पातियाँ भी भेजनी पड़ती हैं और बोल-बोल कर फोन भी घनघनाने पड़ते हैं. इस सब से और कुछ हो न हो सब लिख-पढ़ ज़रूर जाते हैं. यही कारण है की झुंझुनू खूब पढ़े-लिखों का ही नहीं , बल्कि शिक्षा का अच्छा -ख़ासा केंद्र ही बन गया. शेखावाटी के बहुत से लोग बरसों से रोज़ी-रोटी और व्यापार के लिए दूर-दराज़ में आते-जाते जो रहे. इस जिले के हर भाग में शिक्षण-संस्थाओं की भरमार है. पिलानी का नाम तो दुनिया भर में जाना-पहचाना है.यहाँ के कालेज और स्कूलों ने तो राजस्थान में बरसों से शिक्षा की गुणवत्ता का अलख जगा रखा है. खास बात यह है ,    यहाँ सरकारी प्रयासों से नहीं बल्कि निजी कोशिशों से बड़े-बड़े संस्थान बने हैं. बिरला बंधुओं ने एक मिसाल कायम की है, सबसे पहले, जिसे बाद में कई दानवीरों ने दोहराया है. झुंझुनू क्षेत्र की बोली में थोड़ी सी हरियाणवी और कौरवी की झलक मिलती है. बरसों पहले जिस 'सती प्रथा' का उन्मूलन समाज सुधारकों ने कर दिया था, उसकी याद दिलाने वाला 'रानी सती का मंदिर' भी यहीं है.राजस्थानी संस्कृति को चारों दिशाओं में फ़ैलाने का काम भी यहाँ के लोगों ने खूब किया है.यहाँ के हृष्ट-पुष्ट लोग खेलों में भी देश की शान रहे हैं.      

मिट्टी के घरोंदे ही नहीं शहर भी बनते हैं, बीकानेर से

पाकिस्तान की सीमा से लगे शहरों में शुमार है रसगुल्लों का शहर भी. यह भी एक आश्चर्य ही है कि  विश्व भर में खाई जाने वाली यहाँ की भुजिया इस रेगिस्तानी शहर में जन्म लेकर भी किरकिरी नहीं, कुरकुरी होती है. राजस्थान का पापड -पोल  भी यही है.कड़कना तो जैसे इस शहर का स्वभाव ही है.जाड़े में यह रहवासियों को कंपकपा  भी देता है. जब आप बीकानेर शहर के नजदीक आने लगते हैं तो आपको दर्शन होते हैं प्रसिद्द करणी माता मंदिर के. इस मंदिर को कुछ लोग भगवान गणेश का गैरेज भी कहते हैं.चौंकिए  मत,इस मंदिर के अहाते में आपको लाखों की तादाद में चूहे दिखाई देते है. और चूहे गणेश का वाहन हैं,  तो यह गणेश का गैरेज हुआ कि नहीं? बीकानेर शहर ऐतिहासिक तो है ही, यह सुन्दर भी है. यह काफी खुला-खुला दीखता है. अब बाज़ारों की चहल-पहल कम नहीं रही है, फिर भी इसमें पारंपरिक शहरों की झलक बरकरार है. यह शहर काफी विनम्र है. अब यदि आप इसका कोई सबूत मांगें तो  आप खुद ही देख सकते हैं कि यदि आप इसके चारों ओर घूमें तो आपको सैंकड़ों की संख्या में ऐसे गाँव मिलेंगे जिनके नाम में 'सर' आता है.आप खुद ही बताइये, जो नगर अपने गाँवों को सर कह कर बोलता हो, वह विनम्र हुआ कि नहीं?बाकी सारे राज्य में तो बेचारे गाँव शहरों को सर-सर कह कर पुकारते हैं. बीकानेर हमेशा से ही मुझे एक ज़िम्मेदार शहर लगता है. यहाँ के लोग जो कहते हैं उस पर कायम भी रहते हैं. आप को एक निष्ठां इन लोगों में ज़रूर मिलेगी.        

शनिवार, 7 मई 2011

बर्फखाना और भट्टी, दोनों का नसीब पाया है चूरू ने

मैं उन दिनों वनस्थली रहता था, जिसके रेलवे-स्टेशन का नाम 'बनस्थली-निवाई' है. एक बार चूरू में एक प्रेस-कांफ्रेंस के दौरान एक स्थानीय पत्रकार ने मुझसे पूछा कि आप जहाँ से आये हैं , उस जगह का नाम हिंदी में वनस्थली और अंग्रेजी में बनस्थली क्यों लिखा जाता है. मैंने उन्हें उत्तर दिया कि बनस्थली और निवाई शहर का स्टेशन कॉमन  है, यदि 'बी' की जगह 'वी' लिखा जाता तो क्रमानुसार पहले निवाई का नाम लिखा जाता. पत्रकार महोदय ने कहा- इसका मतलब नाम भी उपयोगिता देख कर रखे जाते हैं. लेकिन चूरू में हमें यह जानकारी नहीं मिल सकी कि इस नाम का अर्थ क्या है और यह क्यों पड़ा होगा? पर इस रेतीले जिले की महिमा देख कर कहना पड़ता है कि नाम में क्या रखा है? सर्दी के मौसम में यह हिल-स्टेशनों को भी मात देने वाला मैदानी शहर बन जाता है. यहाँ मिट्टी में पानी के बर्फ़ की तरह जम जाने की ख़बरें आती हैं. गर्मी में यही रेत-कण चिंगारी बन जाते हैं. वर्षा वैसे तो होती ही कम है, पर जो होती है वो भी रेत में ऐसे गिरती है जैसे गरम तवे पर पानी की बूँद. यहाँ आंधियां ज़रूर मौलिक और रंगीन चलती हैं. गर्द के गुबार ऐसे उड़ते हैं मानो अभी-अभी शिव का तांडव हो कर चुका हो. नजदीक का छोटा और शैक्षणिक शहर,जिसका नाम सरदार शहर है ,  इस जिले का 'थिंक-टैंक' है .मुझे चूरू के आस-पास घूमते हुए हमेशा ऐसे गावों की याद आती है जो युद्ध की पृष्ठ-भूमि वाली फिल्मों में दर्शाए जाते हैं. लेकिन शायद यह शहर 'जय जवान' से ज्यादा 'जय किसान' की मिसाल वाला है. सारा जिला रेत का समंदर सा दीखता है, जिसमे कम पानी में पनपने वाले पेड़ कहीं-कहीं द्रश्य को खूबसूरत बनाते हैं.     

गुरुवार, 5 मई 2011

बाड़मेर की छाया आबू की किरणें और गुजरात का तड़का माने- जालौर

सिरोही और बाड़मेर के बीच का सैंडविच शहर है जालौर . इसकी सीमायें गुजरात से मिलती हैं. हलचल और शोरगुल से दूर , यह एक शांत सा शहर है. जहाँ सिरोही हिल-स्टेशन माउन्ट आबू के कारन देश भर की नज़रों में रहता है, जालौर में केवल वही लोग आते-जाते हैं जो जालौर आते हैं. वैसे तो यहाँ आबादी छितरी-छितरी है लेकिन गुजरात पास में होने के कारण छोटा-छोटा कारोबार करने वाले व्यापारी यहाँ अच्छी तादाद में हैं. किसी समय देश की केन्द्रीय राजनीति में अहम् स्थान रखने वाले बूटा सिंह इसी इलाके से चुनाव लड़ कर लोकसभा में पहुंचा करते थे.जालौर को पर्यटकों का रास्ता भी माना जाता है. जालौर राजनैतिक रूप से बहुत जागरूक शहर है, शायद इसका कारण यही है कि इसने काफी समय तक देश को केन्द्रीय गृहमंत्री दिया है. मुझे जालौर में ghoomte  हुए एक विचित्र बात देखने को मिली कि इस जिले में जिला-मुख्यालय से ज्यादा सजगता आस-पास के ग्रामीण इलाकों में नज़र आती है. मैं आपको यहभी बतादूँ कि यह आकलन मैंने किस आधार पर किया. मुझे काफी देर तक यहाँ के जिला-अधिकारी के साथ बैठने का मौका मिला और इस बीच मैंने देखा कि उनके पास लगातार आते जाने वाले मामले इन्ही क्षेत्रों से थे और जब वे उस क्षेत्र की समस्याओं का कोई समाधान करते थे तो ज़्यादातर मिसालें गावों के मामलों की ही आती थीं.  

बुधवार, 4 मई 2011

पुरुषार्थ और धीरज की मित्रता टूटने से बना हनुमानगढ़

 पुरुषार्थ और धीरज मित्र नहीं होते. कभी साथ-साथ रहें भी तो जल्दी ही अलग हो जाते हैं. श्रीगंगानगर की तेज़-रफ़्तार प्रगतिकामी जिजीविषा धैर्य की मंथर प्रयत्नशीलता से अलग हुई तो राजस्थान में हनुमानगढ़ जिला बन गया. हनुमानगढ़ शहर भी दो भागों में बँटा हुआ है,एक जंक्शन के नाम से जाना जाता है दूसरा टाउन के नाम से. चूरू जिले के रतनगढ़ शहर से शैक्षणिक नगरी 'सरदारशहर' होते हुए जब राजमार्ग से हनुमानगढ़ की ओर आते हैं तो रास्ता काफी लम्बा प्रतीत होता है. लेकिन इसी रास्ते पर मंशापूर्ण हनुमान जी का एक विशाल और आधुनिक मंदिर अवस्थित है जो मुसाफिरों को मंजिल से पहले का आरामदेह पड़ाव देता है. इस लम्बी यात्रा में यह मानो सहरा का नखलिस्तान है जिसकी कोई मुसाफिर अनदेखी नहीं कर पाता. हनुमानगढ़ के लोग शैक्षणिक और सामाजिक गतिविधियों में अच्छी रूचि लेने वाले हैं. शायद यही तत्व इसके जन्म का भी एक कारक बना है. यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में खेतों को सुन्दर पतली मेड़ों से सीमाबद्ध किया जाता है. हरियाली और पानी की जो कमी सर्वत्र दिखाई देती है वह धीरे-धीरे यहाँ ओझल होती दिखाई देती है. हनुमानगढ़ के युवा उत्सवधर्मी होते हैं और ऐसे आयोजनों से जुड़ने को लालायित रहते हैं जिनमे उन्हें अपनी प्रतिभा दिखाने का मौका मिले.तीज-त्यौहार इस शहर में अब भी पुरातन एकाग्रता से मनाये जाते हैं. दिनचर्या में कस्बाई मानसिकता के साथ बोली में पंजाबी और हरियाणवी का पुट इस नगरी की विशेषता है.    

मंगलवार, 3 मई 2011

डूंगरपुर में वहां शाम होते ही रात होने लगती है

जिस दिन हम लोग डूंगरपुर पहुंचे उसके अगले दिन दो बातें खास थीं. एक तो वहां की तत्कालीन जिला कलेक्टर महोदया को राजस्थान के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार "दैनिक भास्कर" ने अपने व्यापक सर्वेक्षण में राज्य का सर्वश्रेष्ठ जिला कलेक्टर चुना था, दूसरे उसी दिन 'राजस्थान दिवस' के समारोह का आगाज़ हो रहा था. सुबह एक छोटे से समारोह में मैंने कलेक्टर महोदया को फूलों का गुलदस्ता भेंट कर बधाई दी, फिर उनके साथ ही राजस्थान दिवस के समारोह में भी शिरकत की. इस अवसर पर एक प्रदर्शनी का भी आयोजन था. डूंगरपुर दक्षिणी राजस्थान का एक आदिवासी बहुल जिला है जिसकी सीमायें उदयपुर और बांसवाडा से लगती हैं. यह एक कस्बानुमा छोटा सा शहर है, जो बीच में बने एक बड़े जलाशय के इर्द-गिर्द बसा है. इसकी सीधी बसावट में पुराने मंदिरों का बाहुल्य है. शहर से कुछ दूरी पर एक रमणीक स्थल पर पुरानी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने दर्शाता एक और सुन्दर मंदिर बना है. यह बड़ी शांत जगह है. थोड़ी-थोड़ी उदास भी. ऐसा लगता है कि लम्बे समय तक उपेक्षित रहने की नाराजगी इस जगह के मन को अभी भी कड़वा किये हुए है.शहर के आस-पास खेतों और वनों की हरियाली तो है किन्तु लोग अब भी बहुत सम्रद्ध नहीं हैं. पर्यटन नगर उदयपुर की छाया इसे केवल भौगोलिक रूप में मिली है, व्यापारिक या व्यावसायिक रूप में नहीं. इसकी कुछ बस्तियां महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों से साम्य रखती हैं , जबकि यह गुजरात के निकट है. जीवन यहाँ बहुत चुप-चुप सा है, शाम होते ही रात होने लगती है. हो सकता है कि मेरी बात पूरी तरह सच न हो , लेकिन मुझे लगा कि यहाँ महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा सजग हैं. वे अपनी बेहतरी के लिए स्वप्नदर्शी ही नहीं प्रयत्नशील भी हैं. 

सोमवार, 2 मई 2011

अभी गेंद जिसके पाले में है- जोधपुर

राजस्थान की राजधानी जयपुर को कभी-कभी विचित्र चुनौती मिलती रही है. यह चुनौती है व्यक्तिगत पसंद के आधार पर प्रभावशाली लोगों का उनके अपने नगरों को जयपुर के मुकाबले खड़ा करने का प्रयास करना. यह प्रयास कब और कितना कारगर रहा, यह फ़िलहाल हमारी चर्चा का विषय नहीं है. वर्षों पहले तत्कालीन मुख्य-मंत्री सुखाडिया ने तो राजधानी ही जयपुर से उठा कर उदयपुर ले जाने का प्रयास किया था. जयपुर कुछ जिद्दी भी तो रहा. लाख सर पटकने के बावजूद भी कभी सत्ता-पक्ष के हाथ में आकर ही नहीं देता था. अब है, मगर घर की मुर्गी की तरह, जो दाल-बराबर ही होती है. लिहाज़ा जोधपुर इन दिनों खूब पनप रहा है. सूर्य-नगरी का सूरज इन दिनों परवान पर है. राज्य में जो भी कुछ नया होता है, पहले एक बार तो जोधपुर की संभावनाओं के द्वार पर दस्तक होती ही है. पर्यटन नक़्शे पर पीले-पत्थरों की इबारत लिखने वाले जोधपुर ने कई प्रतिष्ठित देशी और विदेशी बारातों की अगवानी की है. वीआइपी हनीमून चाहे जहाँ मनाएं , फेरे जोधपुर में लेना पसंद करते हैं. कहने को मावे की कचौरी अब आपको हर कहीं मिल जाएगी, पर जिसने जोधपुर की कचौरी नहीं खाई उसने कचौरी का असली स्वाद ही शायद नहीं चखा. फ़िल्मी हीरोइनों ने जिन शहरों को मशहूर किया है उनमे बीकानेर की चमेली के साथ-साथ जोधपुर की जुगनी भी है. इस शहर में घूमना एक मज़बूत अनुभव है. साफ-सुथरा प्यारा सा शहर. 

रविवार, 1 मई 2011

उजले मन के सांवले लोग

बांसवाडा के एक विद्यालय में खड़े-खड़े शिक्षकों से विमर्श करते हुए जब एक व्यक्ति ने मुझे बताया कि इस पिछड़े क्षेत्र का विकास करना कोई बाएं  हाथ का खेल नहीं था, तब मेरा ध्यान सहज ही इस बात पर चला गया कि बांसवाडा क्षेत्र ने राज्य को हरिदेव जोशी के रूप में एक बार मुख्यमंत्री दिया था, जिनका एक हाथ वास्तव में ही नहीं था. शायद शिक्षक महोदय का कटाक्ष इसी ओर था.लेकिन इस कटाक्ष की आज कोई गुंजाईश नहीं है. उदयपुर से बहुत हरे-भरे जंगलों , घुमावदार रास्तों और पथरीले टीले-पर्वतों के बीच से गुज़रते हुए जब आप बांसवाडा में दाखिल होते हैं, तो आपको सहज अनुमान नहीं होता कि यहाँ के आदिवासियों का जीवन कभी कितना कष्टकर रहा होगा. प्रगति की धूप तो दूर की बात है, विकास की हवा तक यहाँ काफी मंद चाल से चली. बांसवाडा शहर में दाखिल होते समय दिन लगभग हमने पूरा खर्च कर दिया था. अच्छी-खासी शाम हो गयी थी. शहर के बाहरी इलाके में मुझे एक शानदार होटल 'रिलेक्स-इन' दिखाई दिया. मैं उसी में ठहर गया. भीतर तो दूर-दूर तक कहीं इस बात का अहसास नहीं था कि मैं कभी भीलों और आदिवासियों का क्षेत्र कहे जाने वाले बांसवाडा में हूँ. यहाँ के लोगों को यदि आप ध्यान से देखें तो आप पाएंगे कि ये दुबले-पतले मगर मज़बूत लोग हैं. और थोड़े  सांवले होने पर भी इनके मन बेहद उजले हैं.यदि कभी आपके मन में आये कि इसका नाम बांसवाडा क्यों पड़ा, तो आपकी हैरानी ख़त्म करने के लिए आपको यहाँ बांस के जंगल भी दिख जायेंगे.     

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

कभी झालावाड के दिन भी बहुरे थे

आज से आठ-दस साल पहले यह शहर एकाएक खास हो गया था. शहर में लाखों लोग होते हैं, लाखों इमारतें. लेकिन किसी एक इन्सान से ही पूरा का पूरा शहर लोकप्रियता में कैसे नहा उठता है, इसकी जीवंत हलचल का साक्षी बना था राजस्थान का झालावाड जिला, जब वसुंधरा राजे सिंधिया राज्य की मुख्य मंत्री बनीं. संभाग मुख्यालय कोटा तो कुछ दिनों के लिए जैसे झालावाड और जयपुर के बीच का 'मिड-वे' बन कर रह गया था. खूब विकास के काम हुए, खूब फेर-बदल हुयी और खूब नए-नए काम सोचे गए.महल-हवेलियों के इस छोटे से सामंती शहर में भव्य मिनी सचिवालय का निर्माण भी उन्ही दिनों शुरू हुआ.कोटा, बारां और झालावाड का शानदार आधुनिक सड़क-ट्रायंगल भी अस्तित्व में आया. अन्ता, इकलेरा और शाहाबाद जैसे आस-पास के कसबे भी उन दिनों विकास की नई करवट लेने लगे. झालावाड का जिला कलेक्ट्रेट पुराने समय के दरबारों की चहल-पहल याद दिलाता है. झालावाड के सर्किट हाउस में ठहरने के दौरान ही मुझे पता चला कि इसके जिस कक्ष में वसुंधरा जी ठहरती हैं, उसमे नवीनीकरण का काम जोरों से हो रहा है. झालावाड जाने के दौरान तरह-तरह के पत्थरों की खानें रास्ते में मन मोह लेती हैं. शहर से कुछ दूर ही वह 'त्रिपुर-सुंदरी' मंदिर है जिसकी मान्यता की मान्यता वसुंधरा राजे के साथ बढ़ गई है, क्योंकि यही वह स्थान है जहाँ से पहली बार राजस्थान की सत्ता हासिल करने का अभियान पदयात्रा आरम्भ करके उन्होंने चलाया था . जनता भी खूब है. पद यात्रा से प्रभावित होकर किसी को सत्ता सौंप भी देतीहै और मन-माफिक न निकलने पर नाराज़ होकर वापस पदयात्री भी बना देती है.    

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

वाह, जो है ही नहीं, वो भी क्या खूब है?

यदि आप किसी शहर को ढूँढने निकलें और चारों तरफ देखने के बाद वह आपको कहीं दिखाई न दे, तो कृपया मायूस न हों.वहीँ खड़े-खड़े लोगों से पूछें कि राजसमन्द कहाँ है? आपको जवाब मिलेगा कि यहीं है. यह सब कुछ एक पहेली सा लग रहा है न ? पर सच यही है. राजसमन्द राजस्थान का एक मात्र ऐसा जिला है, जिसका नाम है कांकरोली. अर्थात यह कोई शहर नहीं बल्कि एक क्षेत्र है जिसका सबसे बड़ा शहर कांकरोली है. इस चमत्कार पर हैरान न हों क्योंकि इसी जिले में तो वह चमत्कारी 'श्रीनाथजी' का प्रसिद्द मंदिर है, जिसकी महिमा किसी चमत्कार से कम नहीं है. उदयपुर संभाग का यह अपेक्षाकृत नया जिला सुकून देने वाला है, क्योंकि यह सरकारी मदद पर नहीं पलता, बल्कि अपनी रोटी आप कमाता है. इसके बड़े क्षेत्र में कीमती खनिज-भंडार हैं. मिनरल-मार्बल-मार्ग इसे खूबसूरत और महत्वपूर्ण बनाते है. इसकी संस्कृति एक प्रकार से मेवाड़ और मारवाड़ की सम्मिलित संस्कृति है. यहाँ घूमने पर आपको किसी प्राचीन परंपरागत समाज के दर्शन नहीं होते बल्कि एक प्रगतिशील नया ज़माना अपनी झलक दिखलाता है. शायद यह एक सिद्ध सत्य ही है कि जब भी दो संस्कृतियाँ एक साथ मिल कर रहती हैं तो वे दकियानूसीपन से आसानी से उबर जाती हैं. यह जिला अपने गहरी आस्थाओं वाले मंदिरों के लिए भी जाना जाता है. इसे पाली-जोधपुर जैसे पश्चिमी जिलों से खूबसूरत पहाड़ियां अलग करती हैं.   

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

एक खूबसूरत, कैल्शियम - कमी वाला शहर

कुछ बच्चे बचपन में मिट्टी खाते हैं. कुछ लोगों को तो बड़े होने तक मिट्टी की गंध अच्छी लगती रहती है. कहा जाता है कि ऐसे लोगों में कैल्शियम की कमी होती है.किन्तु राजस्थान के सीमावर्ती शहर जैसलमेर ने इतनी मिट्टी खाई है कि आज वह मिट्टी से बना सलोना खिलौना-शहर ही बन गया है. पूरा शहर ऐसा लगता है जैसे बच्चों ने अपने हाथों से छोटे-छोटे खिलौने बना कर इसे सजाया है. जैसलमेर का किला तो धूप में चमकता कोई जादुई महल सा दीखता है.मैं जब अपनी यात्रा के दौरान जैसलमेर पहुंचा तो दोपहर हो चुकी थी. एक होटल की सबसे ऊपरी मंजिल पर जब मैं खाना खाने बैठा तो मैं वहां उस समय खाना खाने वाला अकेला व्यक्ति था. मैंने एक वेटर से पूछा-इस पूरी मंजिल पर इतनी सजावट हो रही है और यहाँ कोई नहीं है, क्या बात है? तब उसने मुझे बताया कि यहाँ कल शाम तक अमिताभ बच्चन ठहरे हुए थे, आज सुबह ही गए हैं. और तभी मुझे याद आया कि एक बार अमिताभ ने यह कहा था कि भारत में उन्हें पर्यटन स्थलों में सबसे ज्यादा जैसलमेर ही पसंद है. यह याद आते ही मेरी यात्रा एकाएक महत्वपूर्ण हो गयी. वास्तव में सामने दिखाई देता किला तिलस्मी लगने लगा. इस शहर को चारों ओर से रेत के टीलों ने इस तरह घेर रखा है कि देशी-विदेशी पर्यटक ऊंटों पर बैठ कर इस द्रश्यावली को निहारे बिना नहीं लौटते.और ऐसा करते समय उनके चेहरों पर ऐसा दर्प होता है मानो वे सोने को रौंद रहे हों.       

छलकते शीशे सी सतह वाला शहर

उस शहर का लगभग आधा जिस्म कांच का ही है. कांच भी सपाट नहीं, बल्कि छलकता हुआ. झीलों पर छोटी-छोटी लहरें हीरे की कनियों के समान दमकती हैं.पहचान लिया आपने. यह राजस्थान के दक्षिण में बसा उदयपुर  ही है.यहाँ की मेवाड़ी  बोली इतनी मीठी है कि बोलने वालों का मुंह देखते रह जाते हैं लोग. इस शहर की फितरत में फूल और पत्थर दोनों हैं. जितना आकर्षक गुलाब बाग उतनी ही नयनाभिराम मोती मगरी पर बनी महाराणा प्रताप की मूर्ति.दुनिया भर के सैलानी यहाँ झील के उस पार नहीं , बल्कि झील के बीचों-बीच बने जल-महल का सौन्दर्य निहारने आते हैं. फतहसागर में नौका-विहार भी युवाओं का खास शगल है. कुछ साल पहले इस शहर ने भी बुरे दिन देखे थे, जब लगातार कम होती बरसात ने इन झीलों को सुखा डाला था. दर्पण, जैसे मिट्टी हो गए थे. सुखाडिया सर्किल इस शहर की शामों को गुलज़ार करने की खास जगह है. इस शहर को चारों ओर से अब भव्य और चौड़ी सड़कों से जोड़  दिया गया है.उदयपुर को पहाड़ों ने भी संवारा है. इसके महल, मंदिर तो अनोखे हैं ही, सहेलियों की बाड़ी भी लोग देखना पसंद करते हैं. राजे-रजवाड़ों की समाप्ति के बावजूद इस शहर के सामंती रंग-ढंग अब तक कम नहीं हुए हैं.यहाँ की बोली ही नहीं लिबास में भी पुराने दिन झलकते हैं. कहने को इस के ढेरों खूबसूरत होटलों में विदेशी पर्यटक भी बड़ी तादाद में ठहरते हैं.      

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

जैसे ज़मीन पर अल्मोड़ा

जिस तरह पथरीली नदी "कोसी"  पहाड़ी शहर अल्मोड़ा को घेर कर बहती है, उसी तरह राजस्थान की बनास नदी टोंक के इर्द-गिर्द बहती है. मुस्लिम आबादी का बाहुल्य लिए टोंक जिला एक धीमी रफ़्तार से विकसित होता जिला है. वैसे इसके पास अथाह पानी का खज़ाना है, जो बीसलपुर बाँध में सुरक्षित है. टोंक  में शायद पानी का वही नज़ारा  है जो बिहार में कोयले का, पंजाब में गेंहू का और दिल्ली में कुर्सी का.लेकिन फ़िलहाल टोंक का पानी टोंक की नहीं, बल्कि जयपुर की प्यास बुझाने को आतुर है. वह पाइपों के ज़रिये जयपुर ले जाया जा रहा है. टोंक की सभी तहसीलों की फितरत में भी बला की विविधता है.देवली ने जहाँ सैन्य छावनी की कमान संभाली है, मालपुरा के डिग्गी ने इसके धार्मिक महत्त्व को प्रतिपादित किया है. निवाई व्यापारिक मंडी है, और साथ ही साथ शिक्षा का चमत्कारिक केंद्र है. विश्व-प्रसिद्द ' बनस्थली विद्यापीठ' और एक नया विश्व विद्यालय - मोदी विश्व-विद्यालय भी यहीं है. टोंक के नमदा उद्योग और बीडी के कारखानों की अपनी महत्ता है. टोंक की एक विशेषता ऐसी है,जो आधुनिक सत्ता और शासन पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाती है. यह जिला मुख्यालय रेल मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है. इसके विकास में भी यह सबसे बड़ी बाधा है. कहते हैं कि बहुत ज्यादा रसोइये भोजन को बिगाड़ देते हैं. पिछले कई सालों तक इसे सरकार में बहुत मंत्री मिले शायद इसी से यहाँ जायका बिगड़ा हुआ है.    

रविवार, 24 अप्रैल 2011

वहां ब्रेन ही उगने थे पथरीले शहर कोटा में

राजस्थान के दक्षिण में फैले कोटा शहर में वर्षों पहले हादसा हुआ था.कुछ बड़े उपक्रम जिनमे देश भर की अभियांत्रिकी की अनन्य मेधा बसती थी, एक-एक कर के बंद हो गए. किसी को पता नहीं चला कि   यह क्यों हुआ, कैसे हुआ.कोई नहीं जानता था कि  वहां नियति भविष्य के खेतों के लिए बौर झाड़ रही है.तैयार किये जा रहे हैं - बीज . बंद कारखानों के उच्च शिक्षित अभियंताओं ने अपने जीविकोपार्जन के लिए नई उम्र की नई फसल को अपने संचित ज्ञान के गुर सिखाने शुरू किये, और देखते-देखते पत्थरों - तले सुनहरे भविष्य के अंकुर फूटने लगे. यह कहानी उस कोटा शहर की है जहाँ कोचिंग की नई परिभाषा गढ़ी गयी.जेके,इंस्ट्रुमेंटेशन जैसे नामी  कारखानों के उत्पाद क्या बंद हुए , देश भर के प्रौद्योगिकी संस्थानों [आइआइटी ] को दिया  जाने वाला कच्चा माल , अर्थात अभियांत्रिकी के विद्यार्थी कोटा में तैयार किये जाने लगे. औध्योगिक नगरी ने कोचिंग को उद्योग बनाने में भी देर नहीं लगाई.इस तरह यह शहर एक नए रास्ते पर चल पड़ा. आज यह शिक्षा के अधुनातन कारखाने के रूप में देश भरमे ख्यात है. किसी समय का यह राजपूती परम्परावादी रवायत का शहर आज प्रगति शील विचारों का ज़बरदस्त हिमायती बन चुका है.इसकी अग्रगामी सोच ने निकटवर्ती बारां, झालावाड और बूंदी जैसे धीमे चल रहे शहरों को भी रफ़्तार का महत्त्व समझाया है.       

रामपुरों और सीतापुरों की भीड़ में एक 'भरतपुर'

अयोध्या के राजवंश की कहानी ने देश-दुनिया को कई पात्र दिए.कुछ पात्र तो इतने लोकप्रिय हुए कि उनके नाम के मंदिरों, मोहल्लों और नगरों की बाढ़  सी आ गयी. कुछ पात्र ऐसे भी हुए जिनके नामों पर लानतें भेजी गईं और किसी ने वे नाम न रखे. आज तो आलम ये है कि लोग नाम दूसरे पात्रों के रख रहे हैं और काम दूसरे पात्रों के अपना रहे हैं.राजस्थान के यूपी बोर्डर पर भरतपुर नाम के जिले ने भरत को भी भारतीयों की स्मृतियों में बनाये रखा है.यह संभाग मुख्यालय भी है , जो जयपुर से उत्तरप्रदेश में जाने वालों के लिए सिंहद्वार है. आगरा से लगा यह जिला अपने में कई ऐतिहासिक इमारतों को समेटे हुए है. यहाँ स्थित "पक्षियों का अंतर राष्ट्रीय बसेरा-घना बर्ड सेंक्चुरी "देशी-विदेशी पर्यटकों की पसंदीदा जगह है. इसी के चलते यहाँ होटल व्यवसाय ने भी अच्छी तरक्की की है. जिस तरह गंगानगर ने राजस्थान को पंजाबी लहजे से जोड़ दिया उसी तरह भरतपुर ने ब्रज भाषा की मिठास को राजस्थानी में घोला है. अब सुन्दर सड़क-मार्ग से जुड़ा यह जिला राजस्थानी -हरियाली का प्रतिनिधित्व तो करता ही है , यह दबंगई में भी किसी से कम नहीं है.इसकी दोस्ती धौलपुर और करौली जैसे शहरों से जो है. शायद केकयी का बेटा होने से जो छवि भरत को मिली वही भरतपुर को भी मिल गयी. लेकिन जैसे भरत का राम से प्रगाढ़ प्रेम था, वैसे ही इसका प्रेम भी राजधानी जयपुर से है.       

कृषि उत्पादन की श्री वृद्धि और विकास की गंगा का शहर

राजस्थान में एक छोटा पंजाब भी है. अब इस पंजाब पर हरियाणा की जीवंत झलक भी है. दरअसल कई साल पहले पूरा पंजाब एक ही हुआ करता था.जब इसके दोनों छोरों के बीच वर्चस्व की खींच-तान हुई तो दो टुकड़े - पंजाब और हरियाणा तो हुए ही, चंडीगढ़ अलग निकल गया.इन तीनों हिस्सों की संस्कृति का पडोसी धर्म निभाते हुए हमारा श्री गंगानगर भी इनकी गंध पा गया. इनकी जैसी ही हरी-भरी धरती भी इस जिले को मिली और मिले इनके जैसे ही मेहनती किसान भी. इस तरह राजस्थान का यह भौगोलिक सिरमौर सम्पन्नता का सिरमौर भी बन गया. बाद में इसका कुछ हिस्सा हनुमान गढ़ जिले में भी गया. इस जिले के शहर-कस्बों की तरह ही इसके गाँव भी जीवंत होते हैं. इसके खेत -खलिहानों की गरिमा इन्हें हरी-भरी रौनक से भर देती है. इस जिले के किसान कृषि-कर्म के लिए एक प्रकार के सैनिक ही हैं, वे सोना उगलती फसलों के लिए प्रशासन से लड़ने-भिड़ने में भी गुरेज़ नहीं करते. सड़क के रास्ते श्री गंगानगर से बीकानेर आने के दौरान भारत की शांति पूर्ण जुझारुता के दर्शन होते हैं. एक-एक पेड़ , एक-एक झुरमुट के तले "उसने कहा था " जैसी कहानियों की स्मृति-गंध आती प्रतीत होती है. शहर की औद्योगिक हलचल भी दिलचस्प है. सड़कें चौड़ी-चौड़ी हैं और उन पर मेहनत-कश लोगों की अँगुलियों की छाप के थापे गली-गली लगे हैं.     

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

पापा से ज्यादा दादा का लाडला - अलवर

राजस्थान का अलवर शहर अपने संभाग मुख्यालय - जयपुर की बनिस्बत देश की राजधानी दिल्ली के प्रभा-मंडल अर्थात राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से ज्यादा प्रभावित है. नीमराना से लेकर शाहजहांपुर, बहरोड़ और सरिस्का तक इसकी भव्यता दिल्ली की तर्ज़ पर ही है. इस शहर की मिठास भी कम नहीं है. यहाँ का मिल्क केक या मिश्रीमावा देश भर के लोगों की ज़बान को मीठा करता रहा है. सरिस्का के बाघों ने राज्य के मुख्य मंत्री को जितना लुभाया उससे कहीं ज्यादा देश के प्रधान मंत्री को चौकन्ना बनाया है. जब-जब यहाँ शेरों की दहाड़ मंद पड़ी तब-तब अफसरों को नेताओं की दहाड़ सुननी पड़ी. इस शहर का जिला कलेक्ट्रेट भी बड़ा आलीशान है. वहां एक कक्ष से दूसरे गलियारे - चौबारे घूमते हुए राज्य के राजसी दिनों की याद ताज़ा हो जाती है. ऐसा आभास होता है कि पुराने दिनों में रजवाड़ों के दरबारी और सिपहसालार इन्ही सीढ़ियों से गर्व से गुज़रते और विनम्रता से झुकते हुए चलते होंगे.इस शहर ने औद्योगिक ऊँचाइयों को छूने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.पर्यटन के नक़्शे पर भी अलवर की अच्छी-खासी दखल है. सिलीसेढ़ और पान्दुपोल   सैलानियों को लुभाते हैं.वर्षों तक छोटी लाइन पर चली प्रतिष्ठित गाड़ी - पिंकसिटी ने मुसाफिरों को अलवर से जोड़े रखा है. इस शहर को राजस्थानी संस्कृति से बेहद प्रेम है, जिसका अहसास इसके नाम के बीचोंबीच छिपे 'लव ' अक्षरों से होता है.    

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

उसे मीत कम मुसाफिर ज्यादा मिले

सवाईमाधोपुर की यही कहानी है।कहने को इसका नाता जयपुर से इतना नजदीकी है कि केवल एक घंटे की दूरी है , पर राजधानी से इसके मन की दूरी शायद कुछ ज्यादा ही रही कि इसका विकास नहीं के बराबर हुआ। वर्षों तक जहाँ जयपुर में केवल छोटी लाइन थी, सवाईमाधोपुर को बड़ी लाइन पर होने का गौरव प्राप्त था। नतीजा यह हुआ कि यह शहर बड़ी-बड़ी ट्रेनों के गुजरने का माध्यम ही बना रहा। वहां ज़्यादातर मुसाफिरों की भरमार ही रहती थी जो इधर - उधर की गाड़ियाँ बदल कर अपने रास्ते चले जाते थे, और यह नगर वीरान अकेला-अकेला सा रह जाता था। शहर शिक्षा, व्यापार,उद्योग के नाम पर एक क़स्बा सा ही बना रहा। हाँ, पर्यटन की द्रष्टि से इसकी किस्मत ख़राब नहीं रही। प्रसिद्ध रणथम्भौर यहीं पर है। शेर-बाघ के शौक़ीन यहाँ आते रहे और इसी से उस इलाके में होटल - व्यवसाय भी पल्लवित हुआ। अबतो शेरों की पनाह-गाह के रूप में इसकी ख्याति इस कदर हो चली है कि बड़े - बड़े वीआइपी परिवार भी यहाँ आते रहते हैं।प्रियंका वाड्रा तो कई बार यहाँ आती ही रहती हैं। वर्षों तक जयपुर से मुंबई जाने-आने के लिए मैंने भी सवाई माधोपुर में गाड़ी बदली। ग्यारह साल में दो बार ऐसा भी हुआ कि जयपुर वाली गाड़ी देर से पहुंची और मुंबई की गाड़ी निकल गयी। सुबह से रात तक वहीँ स्टेशन पर रहना पड़ा। कुछ साल पहले, वहां एक शगूफा और हुआ । मशहूर कर दिया गया कि वहां के किसी हैंडपंप के पानी से नहाने पर सभी रोग दूर हो जाते है। खैर, अब वह जगह नहीं है। लेकिन रोग हैं, और वे धीरे-धीरे शिक्षा से ही दूर होंगे। शिक्षा पर वहां बहुत ध्यान देने की ज़रुरत है।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

पारस पत्थर का छुआ एक शहर

राजस्थान का सिरोही जिला वैसे तो एक किनारे का छोटा सा जिला है, पर इसके पास एक पारस पत्थर है।इस पत्थर की रगड़ खा-खा कर यह मशहूर भी हो गया है और कीमती भी। यह पारस पत्थर है- राज्य का एक मात्र किन्तु बेहद उम्दा हिल-स्टेशन माउंट आबू। ज़ाहिर है कि हिल स्टेशन है तो ठंडा तो होगा ही, लेकिन केवल ठंडा नहीं, यह बहुत खूबसूरत शहर है।इसके बीचों-बीच बनी नक्की झील नैनीताल के नज़ारे ताज़ा कर देती है। आबू में ही बेमिसाल नक्काशी की मिसाल देलवाडा मंदिर हैं। ये मंदिर यहाँ आने वालों को हैरत और सुकून का नायब अहसास भेंट करते हैं। सिरोही जिले में जब आप आबू रोड स्टेशन के नजदीक से आबू पर्वत की चढ़ाई शुरू करते हैं, तभी से आपको इस पवित्र पावन और मनोरम शहर की भव्यता भी परिचय मिलने लग जाता है। रास्ते में घना जंगल पड़ता है जिसमे किसी भी जानवर के कहीं भी मिल जाने की उत्सुकता बरक़रार रहती है। संयोग ऐसा रहा कि मैं जब इस स्थान पर था लगातार हलकी-हलकी बारिश भी होती रही।विख्यात प्रजा पिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय भी यहीं अवस्थित है। लगता है , कि संन्यास लेने के लिए पहाड़ों में चले जाने का जो मुहावरा बना है, वह आबू पर्वत जैसी ही जगह को देख कर बना होगा। कहने को सिरोही शहर छोटा ही है, किन्तु पिछले दिनों यह और भी कारणों से चर्चा में आया। सर्किट हाउस में ही मुझे यह भी जानकारी मिली कि सामने जो सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल है , वह भी अपने शैक्षणिक प्रयोगों और अनुप्रयोगों को लेकर राज्य में महत्त्व पूर्ण स्थान रखता है। शिक्षा की द्रष्टि से पिछड़े इस प्रदेश में ऐसी बातों की अनदेखी नहीं की जा सकती।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

संवेगी हवाओं के गुजरने से दौसा

राजस्थान के दौसा जिले में राजनैतिक जागरूकता या संवेदनशीलता कुछ अधिक है। अभी हम यह बात नहीं कर रहे कि यह सकारात्मक है या नकारात्मक, लेकिन वहां जन-शक्ति में आंदोलनात्मक आवेग और आवेश दीखते रहते हैं। इसके तीन कारण हैं।सबसे पहला प्रमुख कारण तो यह है कि यह अपेक्षाकृत नया जिला है, जिसे कुछ वर्ष पहले जयपुर से अलग करके बनाया गया था। इसी से यह तथ्य भी उजागर होता है कि लम्बे समय तक जयपुर का भाग रहने के कारण इसकी अपनी समस्याएं और विकास-प्रश्न जयपुर की समस्याओं टेल दबे रहे, उन्हें अलग से आवाज़ नहीं मिली। वो अब मिल रही है। दूसरे, संविधान-निर्माताओं ने " आरक्षण " के लाभ की जो परिकल्पना समाज के लिए की थी, यह क्षेत्र उसकी अच्छी मिसाल है। इस ' मीणा बहुल ' जिले के हजारों लोग पढाई और नौकरी में अब अच्छी-अच्छी जगहों पर लग कर छा गए हैं, और वास्तव में किसी समय की यह पिछड़ी जनजाति अब विकसित समुदाय के रूप में देश भर में पहचानी जा रही है। तीसरा कारण यह है कि देश के सर्वाधिक राजनीतिबाज़ माने जाने वाले ' उत्तर प्रदेश ' से जो रास्ता राजस्थान की राजधानी तक आता है , यह शहर उसी पर अवस्थित है। संवेगी हवाएं इसे मथती ही रहती हैं।जयपुर से देशी-विदेशी सैलानी जब ताजमहल के नगर जाते हैं , तो इसी शहर की परिक्रमा सी करते गुज़रते हैं। नव-निर्मित राजमार्ग पर शांत वातावरण में बने जिला-कलेक्ट्रेट, सर्किट-हाउस और अन्य सरकारी भवन इसकी गरिमा को बढ़ाते हैं। अपने एक बाजू से यह लालसोट और गंगापुर जैसे पीछे रह गए इलाकों को छूता है, तो इसका दूसरा बाजू शान से जयपुर की अंगुली थामे है।

रविवार, 17 अप्रैल 2011

अरेबियन नाइट्स का मज़ा राजस्थान में

मैं नागौर पहुँचने वाला था। अभी तक पुष्कर की अगरबत्तियों वाली गंध मन के किसी कौने में रमी हुई थी।मारवाड़ मुंडवा को हम थोड़ी देर पहले छोड़ चुके थे। इस छोटे से कसबे ने मेरी वर्षों पुरानी यादें ताज़ा कर दी थीं।इस का नाम मैं बचपन के उन दिनों से ही सुनता आया था जब यहाँ के युवकों ने रेडियो पर ख़त लिख-लिख कर अपनी पसंद के फ़िल्मी गीतों को सुन-सुन कर अपना और गाँव का नाम प्रसिद्द कर दिया था। दिन भर रेडियो बोलता था, अब सुनिए मारवाड़ मुंडवा से आनंद खत्री और आनंद अकेला की पसंद का यह गीत जिसे आशा भोंसले ने फिल्म वक्त के लिए गाया है। इन्ही यादों ने इस जगह को अमर कर छोड़ा था। कुछ ही देर में नागौर शहर की इमारतें दूर से दिखाई देने लगीं। इसी समय मेरे मोबाईल की घंटी बजी और मुझे सूचना मिली कि थोड़ी ही देर में "जी बिजनस" चेनल पर मेरी बेटी का इंटरव्यू आने वाला है।इतना समय नहीं था कि मैं सर्किट हाउस में, जहाँ मैं ठहरने वाला था, पहुँच कर टीवी देख सकूं। मैंने गाड़ी का रुख बाज़ार की ओर करवाया और मेन मार्केट के बीचोंबीच गाड़ी रुकवाई।वहां एक शॉप कीपर से अनुरोध कर के मैं वह कार्यक्रम देखने में सफल रहा। इसी के साथ मेरी यह धारणा भी बनी कि नागौर एक छोटा शहर ही है। क्योंकि बड़े शहर में कोई व्यापारी ऐसी रिक्वेस्ट मानने में वक्त जाया नहीं करता। खैर, मैंने उसे बड़े दिल वाला शहर माना, चाहे छोटा ही सही।खूब सूरत लाल-लाल पत्थरों से बना वह शहर मुझे मुस्लिम देशों के शहरों जैसा लगा। बगदाद का छोटा रूप सा। ऐसी कहानिया, जिनमे सौदागर अशर्फियाँ कमाने आते हैं, ज़रूर नागौर की कहानियां भी होंगी।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

बाड़मेर के तन-बदन

बाड़मेर राजस्थान ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा का जिला है जिसके पार पाकिस्तान है।भौगोलिक द्रष्टि से देखें तो यह काफी बड़ा है, क्योंकि यहाँ जनसँख्या का घनत्व काफी कम है। यह बेहद खुला-खुला सा क्षेत्र है। चौड़ी सड़कें और सीमित मात्रा में पेड़।द्रश्य इतना विस्तृत सा दीखता है कि कभी-कभी तो किसी रूसी भूभाग में होने का अहसास होता है।जब सड़क मार्ग से जोधपुर से बाड़मेर के लिए चलें तो चारों ओर फैले वीराने आपको शुरू से ही अपने आगोश में लेने लगते हैं। कुछ जोधपुर के , और कुछ बाड़मेर के गांवों से होकर जब बाड़मेर पहुँचते हैं तो वातावरण बड़ा विराट सा दिखने लग जाता है। संयोग से यदि रास्ते में सूर्यास्त का समय पड़े तो आसमान ऐसा लगता है, जैसे किसी चितेरे ने अभी-अभी आसमान के प्याले में अपनी गुलाबी-सिंदूरी तूलिका धोई है।शहर के बाज़ारों से गुज़रते हुए एक बात पर आपका ध्यान ज़रूर जायेगा। वहां घूम रही महिलाएं आपका ध्यान ज़रूर खीचेंगी। उन महिलाओं के व्यक्तित्व में आपको कई बातों का बेमिसाल असर दिखेगा। पहली बात तो यह, कि पाकिस्तान वहां से नज़दीक होने के कारण मुस्लिम ग्रामीण सौन्दर्य की झलक किसी न किसी कोण से वहां के रहवासियों में आ गयी है।जिस तरह कश्मीर और हिमाचल का सौन्दर्य अपनी आभा बिखेरता है, उसी तरह आप बाड़मेर के चेहरों पर भी नायाब प्रभा-कण पाएंगे। जोधपुर के पुष्ट संगमरमरी लहरिया में लिपटे बदन कुछ-कुछ खिसक कर बाड़मेर तक भी पहुँच गए हैं। और लम्बे-चौड़े सैन्य पड़ाव ने वहां के लोगों में मिलिटरी एरिया वाली स्मार्टनेस और चपलता भी भर दी है। पैसा तो अन्यान्य कारणों से वहां खूब है ही।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

दूध का जला

इतनी बड़ी और लगातार चलने वाली यात्रा में नींद पूरी तरह न ले पाना क्यों हुआ, इसका भी एक कारण रहा।मैं अपनी यात्रा के साथी ड्रायवरों में से किसी पर भी कोई संदेह या अकुशलता की शिकायत नहीं कर रहा हूँ। वे सभी पूरे मन और उत्साह से मेरी यात्रा को सफल बनने में लगे रहे। फिर भी नींद न ले पाने का कारण बन कर एक छोटी सी घटना जो हुयी वह आपको सुना देना चाहता हूँ। हम लोग रात का खाना खाकर चित्तौडगढ़ से निकल रहे थे। रात के लगभग ग्यारह बजे थे। मैं ड्रायवर के साथ वाली आगे की सीट पर बैठा था। खाने से पूरी तरह तृप्त होकर अब ड्रायवर लम्बी दूरी पार कर जाने के मूड में था। उसने मुझसे आग्रह किया कि मैं पीछे वाली सीट पर जाकर आराम से सो जाऊं।हमें एक लम्बा और अपेक्षा कृत सुनसान रास्ता लेना था जो कोटा को जाता था। मैं पीछे वाली सीट पर आकर सो गया। लगभग पौने दो घंटे के बाद किसी स्पीड-ब्रेकर पर झटके से मेरी आँख खुली।मैंने खिड़की से बाहर देखा। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नरहा जब मैंने देखा कि गाड़ी चित्तौडगढ़ के बाहरी क्षेत्र के उसी चौराहे से गुज़र रही थी जिस से पौने दो घंटे पहले हम चले थे। पूछने पर चालक ने संकोच से बताया कि वह एक चौराहे पर गलत दिशा में मुड गया था जहाँ से उसे लगभग पचपन किलो मीटर जाकर वापस लौटना पड़ा। मेरे उसे कुछ भी न कहने पर उसने रफ़्तार बढ़ा कर समय बचाने का प्रयास स्वतः ही कर दिया। उस घटना के बाद मैं रस्ते में कभी सो न सका। बाद में मुझे यह भी पताचला कि एक चौराहे पर दिशा-सूचक बोर्ड अंग्रेजी में लगा होने के कारण ड्रायवर उसे पढ़ नहीं सका था। शायद यह भूल राज मार्ग प्राधिकरण के साथ-साथ उस महकमे की भी थी जिसने संकेतों को समझने की परीक्षा लिए बिना चालक को लाइसेंस जारी किया था।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अनोखा, अद्भुत और अपरम्पार

एक सौ इक्कीस करोड़ लोग एक जगह रहें तो उन्हें हर बात की एक लम्बी रेंज चाहिए। यही रेंज हमारी भी सीमा है। हम इस सीमा में रहते हुए एक एक कर उन बातों का ज़िक्र करेंगे जो इस एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों के राष्ट्र को अनोखा,अद्भुत और अपरम्पार बनाती हैं।हम अपनी बात का आरंभ भारत के एक राज्य ' राजस्थान ' से करते हैं। आज इसे क्षेत्रफल की नज़र से देश का सबसे बड़ा राज्य होने का दर्ज़ा प्राप्त है। ऐसा हमेशा से नहीं रहा। यह तो जब कुछ वर्ष पहले भारत के तीन बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार का विभाजन हुआ तो स्वतः हो गया। उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और बिहार से झारखण्ड राज्य बन कर अलग हुए तब राजस्थान सबसे बड़ा राज्य बन गया। अब इस राजस्थान में कुल ३३ जिले हैं। यहाँ से २५ सांसद देश की लोक सभा में जाते हैं।यहाँ से कुल २०० विधायक चुने जाकर विधानसभा में बैठते हैं। जयपुर इस राज्य की राजधानी है जिसे पिछले काफी समय से ' पिंक सिटी ' या गुलाबी नगरी कह कर संबोधित किया जाता है। इसका कारण यह है कि इस शहर के पुराने भवनों पर गहरा भूरा सा गुलाबी देसी रंग किया जाता था। इस रंग ने इसे प्राकृतिक रंग से रंगे , सौंधी गंध वाले नियोजित शहर का दर्ज़ा दिया। और यह देश-विदेश में गुलाबी शहर के नाम से ख्यात हो गया। लोग बदलाव और नयापन पसंद करते हैं, इसलिए नए बने भवनों पर अब दूसरे रंग दीखते हैं। फिर भी कोई कोई शासक -प्रशासक इस के रंग की महिमा को बनाये रखने का प्रयास समय-समय पर करता रहा है।