पंडितजी ने बताया कि डेढ़ सौ साल पहले किसी भले सेठ ने इसे बनवाया था. उसके बच्चे बड़े होनहार निकले, एक- एक करके लिखाई-पढ़ाई के लिए वहां से सब निकल गए.न तो वापस लौट कर आये और न ही किसी ने उसे अपनी जायदाद समझ कर उसकी खोज खबर ली. गाँव वालों ने ही उसका एक हिस्सा आपसी बातचीत से लड़कियों की पढ़ाई के लिए एक स्कूल खोलने के लिए दे दिया और एक छोटे हिस्से में उसकी देखभाल करने वाला वह पंडित परिवार रह गया.
उस छोटे से गाँव में इतने उदार लोगों को देख-सुन कर अच्छा लगा. मन में आया कि, काश, मैं भी ऐसे ही परिवार का कोई सदस्य होता. मैं उन दिनों की कल्पना में खो गया जब यह हवेली उसी परिवार के लोगों से गुलज़ार रही होगी. सामने के दालान में कैसे बच्चे खेलते होंगे? उस हवेली की एक- एक दीवार छूने पर ऐसा लगता था, मानो अपने पूर्वजों की देह पर हाथ फिर रहा हो?