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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

शनिवार, 30 अप्रैल 2011

कभी झालावाड के दिन भी बहुरे थे

आज से आठ-दस साल पहले यह शहर एकाएक खास हो गया था. शहर में लाखों लोग होते हैं, लाखों इमारतें. लेकिन किसी एक इन्सान से ही पूरा का पूरा शहर लोकप्रियता में कैसे नहा उठता है, इसकी जीवंत हलचल का साक्षी बना था राजस्थान का झालावाड जिला, जब वसुंधरा राजे सिंधिया राज्य की मुख्य मंत्री बनीं. संभाग मुख्यालय कोटा तो कुछ दिनों के लिए जैसे झालावाड और जयपुर के बीच का 'मिड-वे' बन कर रह गया था. खूब विकास के काम हुए, खूब फेर-बदल हुयी और खूब नए-नए काम सोचे गए.महल-हवेलियों के इस छोटे से सामंती शहर में भव्य मिनी सचिवालय का निर्माण भी उन्ही दिनों शुरू हुआ.कोटा, बारां और झालावाड का शानदार आधुनिक सड़क-ट्रायंगल भी अस्तित्व में आया. अन्ता, इकलेरा और शाहाबाद जैसे आस-पास के कसबे भी उन दिनों विकास की नई करवट लेने लगे. झालावाड का जिला कलेक्ट्रेट पुराने समय के दरबारों की चहल-पहल याद दिलाता है. झालावाड के सर्किट हाउस में ठहरने के दौरान ही मुझे पता चला कि इसके जिस कक्ष में वसुंधरा जी ठहरती हैं, उसमे नवीनीकरण का काम जोरों से हो रहा है. झालावाड जाने के दौरान तरह-तरह के पत्थरों की खानें रास्ते में मन मोह लेती हैं. शहर से कुछ दूर ही वह 'त्रिपुर-सुंदरी' मंदिर है जिसकी मान्यता की मान्यता वसुंधरा राजे के साथ बढ़ गई है, क्योंकि यही वह स्थान है जहाँ से पहली बार राजस्थान की सत्ता हासिल करने का अभियान पदयात्रा आरम्भ करके उन्होंने चलाया था . जनता भी खूब है. पद यात्रा से प्रभावित होकर किसी को सत्ता सौंप भी देतीहै और मन-माफिक न निकलने पर नाराज़ होकर वापस पदयात्री भी बना देती है.    

शुक्रवार, 29 अप्रैल 2011

वाह, जो है ही नहीं, वो भी क्या खूब है?

यदि आप किसी शहर को ढूँढने निकलें और चारों तरफ देखने के बाद वह आपको कहीं दिखाई न दे, तो कृपया मायूस न हों.वहीँ खड़े-खड़े लोगों से पूछें कि राजसमन्द कहाँ है? आपको जवाब मिलेगा कि यहीं है. यह सब कुछ एक पहेली सा लग रहा है न ? पर सच यही है. राजसमन्द राजस्थान का एक मात्र ऐसा जिला है, जिसका नाम है कांकरोली. अर्थात यह कोई शहर नहीं बल्कि एक क्षेत्र है जिसका सबसे बड़ा शहर कांकरोली है. इस चमत्कार पर हैरान न हों क्योंकि इसी जिले में तो वह चमत्कारी 'श्रीनाथजी' का प्रसिद्द मंदिर है, जिसकी महिमा किसी चमत्कार से कम नहीं है. उदयपुर संभाग का यह अपेक्षाकृत नया जिला सुकून देने वाला है, क्योंकि यह सरकारी मदद पर नहीं पलता, बल्कि अपनी रोटी आप कमाता है. इसके बड़े क्षेत्र में कीमती खनिज-भंडार हैं. मिनरल-मार्बल-मार्ग इसे खूबसूरत और महत्वपूर्ण बनाते है. इसकी संस्कृति एक प्रकार से मेवाड़ और मारवाड़ की सम्मिलित संस्कृति है. यहाँ घूमने पर आपको किसी प्राचीन परंपरागत समाज के दर्शन नहीं होते बल्कि एक प्रगतिशील नया ज़माना अपनी झलक दिखलाता है. शायद यह एक सिद्ध सत्य ही है कि जब भी दो संस्कृतियाँ एक साथ मिल कर रहती हैं तो वे दकियानूसीपन से आसानी से उबर जाती हैं. यह जिला अपने गहरी आस्थाओं वाले मंदिरों के लिए भी जाना जाता है. इसे पाली-जोधपुर जैसे पश्चिमी जिलों से खूबसूरत पहाड़ियां अलग करती हैं.   

गुरुवार, 28 अप्रैल 2011

एक खूबसूरत, कैल्शियम - कमी वाला शहर

कुछ बच्चे बचपन में मिट्टी खाते हैं. कुछ लोगों को तो बड़े होने तक मिट्टी की गंध अच्छी लगती रहती है. कहा जाता है कि ऐसे लोगों में कैल्शियम की कमी होती है.किन्तु राजस्थान के सीमावर्ती शहर जैसलमेर ने इतनी मिट्टी खाई है कि आज वह मिट्टी से बना सलोना खिलौना-शहर ही बन गया है. पूरा शहर ऐसा लगता है जैसे बच्चों ने अपने हाथों से छोटे-छोटे खिलौने बना कर इसे सजाया है. जैसलमेर का किला तो धूप में चमकता कोई जादुई महल सा दीखता है.मैं जब अपनी यात्रा के दौरान जैसलमेर पहुंचा तो दोपहर हो चुकी थी. एक होटल की सबसे ऊपरी मंजिल पर जब मैं खाना खाने बैठा तो मैं वहां उस समय खाना खाने वाला अकेला व्यक्ति था. मैंने एक वेटर से पूछा-इस पूरी मंजिल पर इतनी सजावट हो रही है और यहाँ कोई नहीं है, क्या बात है? तब उसने मुझे बताया कि यहाँ कल शाम तक अमिताभ बच्चन ठहरे हुए थे, आज सुबह ही गए हैं. और तभी मुझे याद आया कि एक बार अमिताभ ने यह कहा था कि भारत में उन्हें पर्यटन स्थलों में सबसे ज्यादा जैसलमेर ही पसंद है. यह याद आते ही मेरी यात्रा एकाएक महत्वपूर्ण हो गयी. वास्तव में सामने दिखाई देता किला तिलस्मी लगने लगा. इस शहर को चारों ओर से रेत के टीलों ने इस तरह घेर रखा है कि देशी-विदेशी पर्यटक ऊंटों पर बैठ कर इस द्रश्यावली को निहारे बिना नहीं लौटते.और ऐसा करते समय उनके चेहरों पर ऐसा दर्प होता है मानो वे सोने को रौंद रहे हों.       

छलकते शीशे सी सतह वाला शहर

उस शहर का लगभग आधा जिस्म कांच का ही है. कांच भी सपाट नहीं, बल्कि छलकता हुआ. झीलों पर छोटी-छोटी लहरें हीरे की कनियों के समान दमकती हैं.पहचान लिया आपने. यह राजस्थान के दक्षिण में बसा उदयपुर  ही है.यहाँ की मेवाड़ी  बोली इतनी मीठी है कि बोलने वालों का मुंह देखते रह जाते हैं लोग. इस शहर की फितरत में फूल और पत्थर दोनों हैं. जितना आकर्षक गुलाब बाग उतनी ही नयनाभिराम मोती मगरी पर बनी महाराणा प्रताप की मूर्ति.दुनिया भर के सैलानी यहाँ झील के उस पार नहीं , बल्कि झील के बीचों-बीच बने जल-महल का सौन्दर्य निहारने आते हैं. फतहसागर में नौका-विहार भी युवाओं का खास शगल है. कुछ साल पहले इस शहर ने भी बुरे दिन देखे थे, जब लगातार कम होती बरसात ने इन झीलों को सुखा डाला था. दर्पण, जैसे मिट्टी हो गए थे. सुखाडिया सर्किल इस शहर की शामों को गुलज़ार करने की खास जगह है. इस शहर को चारों ओर से अब भव्य और चौड़ी सड़कों से जोड़  दिया गया है.उदयपुर को पहाड़ों ने भी संवारा है. इसके महल, मंदिर तो अनोखे हैं ही, सहेलियों की बाड़ी भी लोग देखना पसंद करते हैं. राजे-रजवाड़ों की समाप्ति के बावजूद इस शहर के सामंती रंग-ढंग अब तक कम नहीं हुए हैं.यहाँ की बोली ही नहीं लिबास में भी पुराने दिन झलकते हैं. कहने को इस के ढेरों खूबसूरत होटलों में विदेशी पर्यटक भी बड़ी तादाद में ठहरते हैं.      

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

जैसे ज़मीन पर अल्मोड़ा

जिस तरह पथरीली नदी "कोसी"  पहाड़ी शहर अल्मोड़ा को घेर कर बहती है, उसी तरह राजस्थान की बनास नदी टोंक के इर्द-गिर्द बहती है. मुस्लिम आबादी का बाहुल्य लिए टोंक जिला एक धीमी रफ़्तार से विकसित होता जिला है. वैसे इसके पास अथाह पानी का खज़ाना है, जो बीसलपुर बाँध में सुरक्षित है. टोंक  में शायद पानी का वही नज़ारा  है जो बिहार में कोयले का, पंजाब में गेंहू का और दिल्ली में कुर्सी का.लेकिन फ़िलहाल टोंक का पानी टोंक की नहीं, बल्कि जयपुर की प्यास बुझाने को आतुर है. वह पाइपों के ज़रिये जयपुर ले जाया जा रहा है. टोंक की सभी तहसीलों की फितरत में भी बला की विविधता है.देवली ने जहाँ सैन्य छावनी की कमान संभाली है, मालपुरा के डिग्गी ने इसके धार्मिक महत्त्व को प्रतिपादित किया है. निवाई व्यापारिक मंडी है, और साथ ही साथ शिक्षा का चमत्कारिक केंद्र है. विश्व-प्रसिद्द ' बनस्थली विद्यापीठ' और एक नया विश्व विद्यालय - मोदी विश्व-विद्यालय भी यहीं है. टोंक के नमदा उद्योग और बीडी के कारखानों की अपनी महत्ता है. टोंक की एक विशेषता ऐसी है,जो आधुनिक सत्ता और शासन पर एक बड़ा सवालिया निशान लगाती है. यह जिला मुख्यालय रेल मार्ग से जुड़ा हुआ नहीं है. इसके विकास में भी यह सबसे बड़ी बाधा है. कहते हैं कि बहुत ज्यादा रसोइये भोजन को बिगाड़ देते हैं. पिछले कई सालों तक इसे सरकार में बहुत मंत्री मिले शायद इसी से यहाँ जायका बिगड़ा हुआ है.    

रविवार, 24 अप्रैल 2011

वहां ब्रेन ही उगने थे पथरीले शहर कोटा में

राजस्थान के दक्षिण में फैले कोटा शहर में वर्षों पहले हादसा हुआ था.कुछ बड़े उपक्रम जिनमे देश भर की अभियांत्रिकी की अनन्य मेधा बसती थी, एक-एक कर के बंद हो गए. किसी को पता नहीं चला कि   यह क्यों हुआ, कैसे हुआ.कोई नहीं जानता था कि  वहां नियति भविष्य के खेतों के लिए बौर झाड़ रही है.तैयार किये जा रहे हैं - बीज . बंद कारखानों के उच्च शिक्षित अभियंताओं ने अपने जीविकोपार्जन के लिए नई उम्र की नई फसल को अपने संचित ज्ञान के गुर सिखाने शुरू किये, और देखते-देखते पत्थरों - तले सुनहरे भविष्य के अंकुर फूटने लगे. यह कहानी उस कोटा शहर की है जहाँ कोचिंग की नई परिभाषा गढ़ी गयी.जेके,इंस्ट्रुमेंटेशन जैसे नामी  कारखानों के उत्पाद क्या बंद हुए , देश भर के प्रौद्योगिकी संस्थानों [आइआइटी ] को दिया  जाने वाला कच्चा माल , अर्थात अभियांत्रिकी के विद्यार्थी कोटा में तैयार किये जाने लगे. औध्योगिक नगरी ने कोचिंग को उद्योग बनाने में भी देर नहीं लगाई.इस तरह यह शहर एक नए रास्ते पर चल पड़ा. आज यह शिक्षा के अधुनातन कारखाने के रूप में देश भरमे ख्यात है. किसी समय का यह राजपूती परम्परावादी रवायत का शहर आज प्रगति शील विचारों का ज़बरदस्त हिमायती बन चुका है.इसकी अग्रगामी सोच ने निकटवर्ती बारां, झालावाड और बूंदी जैसे धीमे चल रहे शहरों को भी रफ़्तार का महत्त्व समझाया है.       

रामपुरों और सीतापुरों की भीड़ में एक 'भरतपुर'

अयोध्या के राजवंश की कहानी ने देश-दुनिया को कई पात्र दिए.कुछ पात्र तो इतने लोकप्रिय हुए कि उनके नाम के मंदिरों, मोहल्लों और नगरों की बाढ़  सी आ गयी. कुछ पात्र ऐसे भी हुए जिनके नामों पर लानतें भेजी गईं और किसी ने वे नाम न रखे. आज तो आलम ये है कि लोग नाम दूसरे पात्रों के रख रहे हैं और काम दूसरे पात्रों के अपना रहे हैं.राजस्थान के यूपी बोर्डर पर भरतपुर नाम के जिले ने भरत को भी भारतीयों की स्मृतियों में बनाये रखा है.यह संभाग मुख्यालय भी है , जो जयपुर से उत्तरप्रदेश में जाने वालों के लिए सिंहद्वार है. आगरा से लगा यह जिला अपने में कई ऐतिहासिक इमारतों को समेटे हुए है. यहाँ स्थित "पक्षियों का अंतर राष्ट्रीय बसेरा-घना बर्ड सेंक्चुरी "देशी-विदेशी पर्यटकों की पसंदीदा जगह है. इसी के चलते यहाँ होटल व्यवसाय ने भी अच्छी तरक्की की है. जिस तरह गंगानगर ने राजस्थान को पंजाबी लहजे से जोड़ दिया उसी तरह भरतपुर ने ब्रज भाषा की मिठास को राजस्थानी में घोला है. अब सुन्दर सड़क-मार्ग से जुड़ा यह जिला राजस्थानी -हरियाली का प्रतिनिधित्व तो करता ही है , यह दबंगई में भी किसी से कम नहीं है.इसकी दोस्ती धौलपुर और करौली जैसे शहरों से जो है. शायद केकयी का बेटा होने से जो छवि भरत को मिली वही भरतपुर को भी मिल गयी. लेकिन जैसे भरत का राम से प्रगाढ़ प्रेम था, वैसे ही इसका प्रेम भी राजधानी जयपुर से है.       

कृषि उत्पादन की श्री वृद्धि और विकास की गंगा का शहर

राजस्थान में एक छोटा पंजाब भी है. अब इस पंजाब पर हरियाणा की जीवंत झलक भी है. दरअसल कई साल पहले पूरा पंजाब एक ही हुआ करता था.जब इसके दोनों छोरों के बीच वर्चस्व की खींच-तान हुई तो दो टुकड़े - पंजाब और हरियाणा तो हुए ही, चंडीगढ़ अलग निकल गया.इन तीनों हिस्सों की संस्कृति का पडोसी धर्म निभाते हुए हमारा श्री गंगानगर भी इनकी गंध पा गया. इनकी जैसी ही हरी-भरी धरती भी इस जिले को मिली और मिले इनके जैसे ही मेहनती किसान भी. इस तरह राजस्थान का यह भौगोलिक सिरमौर सम्पन्नता का सिरमौर भी बन गया. बाद में इसका कुछ हिस्सा हनुमान गढ़ जिले में भी गया. इस जिले के शहर-कस्बों की तरह ही इसके गाँव भी जीवंत होते हैं. इसके खेत -खलिहानों की गरिमा इन्हें हरी-भरी रौनक से भर देती है. इस जिले के किसान कृषि-कर्म के लिए एक प्रकार के सैनिक ही हैं, वे सोना उगलती फसलों के लिए प्रशासन से लड़ने-भिड़ने में भी गुरेज़ नहीं करते. सड़क के रास्ते श्री गंगानगर से बीकानेर आने के दौरान भारत की शांति पूर्ण जुझारुता के दर्शन होते हैं. एक-एक पेड़ , एक-एक झुरमुट के तले "उसने कहा था " जैसी कहानियों की स्मृति-गंध आती प्रतीत होती है. शहर की औद्योगिक हलचल भी दिलचस्प है. सड़कें चौड़ी-चौड़ी हैं और उन पर मेहनत-कश लोगों की अँगुलियों की छाप के थापे गली-गली लगे हैं.     

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

पापा से ज्यादा दादा का लाडला - अलवर

राजस्थान का अलवर शहर अपने संभाग मुख्यालय - जयपुर की बनिस्बत देश की राजधानी दिल्ली के प्रभा-मंडल अर्थात राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र से ज्यादा प्रभावित है. नीमराना से लेकर शाहजहांपुर, बहरोड़ और सरिस्का तक इसकी भव्यता दिल्ली की तर्ज़ पर ही है. इस शहर की मिठास भी कम नहीं है. यहाँ का मिल्क केक या मिश्रीमावा देश भर के लोगों की ज़बान को मीठा करता रहा है. सरिस्का के बाघों ने राज्य के मुख्य मंत्री को जितना लुभाया उससे कहीं ज्यादा देश के प्रधान मंत्री को चौकन्ना बनाया है. जब-जब यहाँ शेरों की दहाड़ मंद पड़ी तब-तब अफसरों को नेताओं की दहाड़ सुननी पड़ी. इस शहर का जिला कलेक्ट्रेट भी बड़ा आलीशान है. वहां एक कक्ष से दूसरे गलियारे - चौबारे घूमते हुए राज्य के राजसी दिनों की याद ताज़ा हो जाती है. ऐसा आभास होता है कि पुराने दिनों में रजवाड़ों के दरबारी और सिपहसालार इन्ही सीढ़ियों से गर्व से गुज़रते और विनम्रता से झुकते हुए चलते होंगे.इस शहर ने औद्योगिक ऊँचाइयों को छूने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है.पर्यटन के नक़्शे पर भी अलवर की अच्छी-खासी दखल है. सिलीसेढ़ और पान्दुपोल   सैलानियों को लुभाते हैं.वर्षों तक छोटी लाइन पर चली प्रतिष्ठित गाड़ी - पिंकसिटी ने मुसाफिरों को अलवर से जोड़े रखा है. इस शहर को राजस्थानी संस्कृति से बेहद प्रेम है, जिसका अहसास इसके नाम के बीचोंबीच छिपे 'लव ' अक्षरों से होता है.    

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

उसे मीत कम मुसाफिर ज्यादा मिले

सवाईमाधोपुर की यही कहानी है।कहने को इसका नाता जयपुर से इतना नजदीकी है कि केवल एक घंटे की दूरी है , पर राजधानी से इसके मन की दूरी शायद कुछ ज्यादा ही रही कि इसका विकास नहीं के बराबर हुआ। वर्षों तक जहाँ जयपुर में केवल छोटी लाइन थी, सवाईमाधोपुर को बड़ी लाइन पर होने का गौरव प्राप्त था। नतीजा यह हुआ कि यह शहर बड़ी-बड़ी ट्रेनों के गुजरने का माध्यम ही बना रहा। वहां ज़्यादातर मुसाफिरों की भरमार ही रहती थी जो इधर - उधर की गाड़ियाँ बदल कर अपने रास्ते चले जाते थे, और यह नगर वीरान अकेला-अकेला सा रह जाता था। शहर शिक्षा, व्यापार,उद्योग के नाम पर एक क़स्बा सा ही बना रहा। हाँ, पर्यटन की द्रष्टि से इसकी किस्मत ख़राब नहीं रही। प्रसिद्ध रणथम्भौर यहीं पर है। शेर-बाघ के शौक़ीन यहाँ आते रहे और इसी से उस इलाके में होटल - व्यवसाय भी पल्लवित हुआ। अबतो शेरों की पनाह-गाह के रूप में इसकी ख्याति इस कदर हो चली है कि बड़े - बड़े वीआइपी परिवार भी यहाँ आते रहते हैं।प्रियंका वाड्रा तो कई बार यहाँ आती ही रहती हैं। वर्षों तक जयपुर से मुंबई जाने-आने के लिए मैंने भी सवाई माधोपुर में गाड़ी बदली। ग्यारह साल में दो बार ऐसा भी हुआ कि जयपुर वाली गाड़ी देर से पहुंची और मुंबई की गाड़ी निकल गयी। सुबह से रात तक वहीँ स्टेशन पर रहना पड़ा। कुछ साल पहले, वहां एक शगूफा और हुआ । मशहूर कर दिया गया कि वहां के किसी हैंडपंप के पानी से नहाने पर सभी रोग दूर हो जाते है। खैर, अब वह जगह नहीं है। लेकिन रोग हैं, और वे धीरे-धीरे शिक्षा से ही दूर होंगे। शिक्षा पर वहां बहुत ध्यान देने की ज़रुरत है।

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

पारस पत्थर का छुआ एक शहर

राजस्थान का सिरोही जिला वैसे तो एक किनारे का छोटा सा जिला है, पर इसके पास एक पारस पत्थर है।इस पत्थर की रगड़ खा-खा कर यह मशहूर भी हो गया है और कीमती भी। यह पारस पत्थर है- राज्य का एक मात्र किन्तु बेहद उम्दा हिल-स्टेशन माउंट आबू। ज़ाहिर है कि हिल स्टेशन है तो ठंडा तो होगा ही, लेकिन केवल ठंडा नहीं, यह बहुत खूबसूरत शहर है।इसके बीचों-बीच बनी नक्की झील नैनीताल के नज़ारे ताज़ा कर देती है। आबू में ही बेमिसाल नक्काशी की मिसाल देलवाडा मंदिर हैं। ये मंदिर यहाँ आने वालों को हैरत और सुकून का नायब अहसास भेंट करते हैं। सिरोही जिले में जब आप आबू रोड स्टेशन के नजदीक से आबू पर्वत की चढ़ाई शुरू करते हैं, तभी से आपको इस पवित्र पावन और मनोरम शहर की भव्यता भी परिचय मिलने लग जाता है। रास्ते में घना जंगल पड़ता है जिसमे किसी भी जानवर के कहीं भी मिल जाने की उत्सुकता बरक़रार रहती है। संयोग ऐसा रहा कि मैं जब इस स्थान पर था लगातार हलकी-हलकी बारिश भी होती रही।विख्यात प्रजा पिता ब्रह्मा कुमारी ईश्वरीय विश्व विद्यालय भी यहीं अवस्थित है। लगता है , कि संन्यास लेने के लिए पहाड़ों में चले जाने का जो मुहावरा बना है, वह आबू पर्वत जैसी ही जगह को देख कर बना होगा। कहने को सिरोही शहर छोटा ही है, किन्तु पिछले दिनों यह और भी कारणों से चर्चा में आया। सर्किट हाउस में ही मुझे यह भी जानकारी मिली कि सामने जो सरकारी सीनियर सेकेंडरी स्कूल है , वह भी अपने शैक्षणिक प्रयोगों और अनुप्रयोगों को लेकर राज्य में महत्त्व पूर्ण स्थान रखता है। शिक्षा की द्रष्टि से पिछड़े इस प्रदेश में ऐसी बातों की अनदेखी नहीं की जा सकती।

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

संवेगी हवाओं के गुजरने से दौसा

राजस्थान के दौसा जिले में राजनैतिक जागरूकता या संवेदनशीलता कुछ अधिक है। अभी हम यह बात नहीं कर रहे कि यह सकारात्मक है या नकारात्मक, लेकिन वहां जन-शक्ति में आंदोलनात्मक आवेग और आवेश दीखते रहते हैं। इसके तीन कारण हैं।सबसे पहला प्रमुख कारण तो यह है कि यह अपेक्षाकृत नया जिला है, जिसे कुछ वर्ष पहले जयपुर से अलग करके बनाया गया था। इसी से यह तथ्य भी उजागर होता है कि लम्बे समय तक जयपुर का भाग रहने के कारण इसकी अपनी समस्याएं और विकास-प्रश्न जयपुर की समस्याओं टेल दबे रहे, उन्हें अलग से आवाज़ नहीं मिली। वो अब मिल रही है। दूसरे, संविधान-निर्माताओं ने " आरक्षण " के लाभ की जो परिकल्पना समाज के लिए की थी, यह क्षेत्र उसकी अच्छी मिसाल है। इस ' मीणा बहुल ' जिले के हजारों लोग पढाई और नौकरी में अब अच्छी-अच्छी जगहों पर लग कर छा गए हैं, और वास्तव में किसी समय की यह पिछड़ी जनजाति अब विकसित समुदाय के रूप में देश भर में पहचानी जा रही है। तीसरा कारण यह है कि देश के सर्वाधिक राजनीतिबाज़ माने जाने वाले ' उत्तर प्रदेश ' से जो रास्ता राजस्थान की राजधानी तक आता है , यह शहर उसी पर अवस्थित है। संवेगी हवाएं इसे मथती ही रहती हैं।जयपुर से देशी-विदेशी सैलानी जब ताजमहल के नगर जाते हैं , तो इसी शहर की परिक्रमा सी करते गुज़रते हैं। नव-निर्मित राजमार्ग पर शांत वातावरण में बने जिला-कलेक्ट्रेट, सर्किट-हाउस और अन्य सरकारी भवन इसकी गरिमा को बढ़ाते हैं। अपने एक बाजू से यह लालसोट और गंगापुर जैसे पीछे रह गए इलाकों को छूता है, तो इसका दूसरा बाजू शान से जयपुर की अंगुली थामे है।

रविवार, 17 अप्रैल 2011

अरेबियन नाइट्स का मज़ा राजस्थान में

मैं नागौर पहुँचने वाला था। अभी तक पुष्कर की अगरबत्तियों वाली गंध मन के किसी कौने में रमी हुई थी।मारवाड़ मुंडवा को हम थोड़ी देर पहले छोड़ चुके थे। इस छोटे से कसबे ने मेरी वर्षों पुरानी यादें ताज़ा कर दी थीं।इस का नाम मैं बचपन के उन दिनों से ही सुनता आया था जब यहाँ के युवकों ने रेडियो पर ख़त लिख-लिख कर अपनी पसंद के फ़िल्मी गीतों को सुन-सुन कर अपना और गाँव का नाम प्रसिद्द कर दिया था। दिन भर रेडियो बोलता था, अब सुनिए मारवाड़ मुंडवा से आनंद खत्री और आनंद अकेला की पसंद का यह गीत जिसे आशा भोंसले ने फिल्म वक्त के लिए गाया है। इन्ही यादों ने इस जगह को अमर कर छोड़ा था। कुछ ही देर में नागौर शहर की इमारतें दूर से दिखाई देने लगीं। इसी समय मेरे मोबाईल की घंटी बजी और मुझे सूचना मिली कि थोड़ी ही देर में "जी बिजनस" चेनल पर मेरी बेटी का इंटरव्यू आने वाला है।इतना समय नहीं था कि मैं सर्किट हाउस में, जहाँ मैं ठहरने वाला था, पहुँच कर टीवी देख सकूं। मैंने गाड़ी का रुख बाज़ार की ओर करवाया और मेन मार्केट के बीचोंबीच गाड़ी रुकवाई।वहां एक शॉप कीपर से अनुरोध कर के मैं वह कार्यक्रम देखने में सफल रहा। इसी के साथ मेरी यह धारणा भी बनी कि नागौर एक छोटा शहर ही है। क्योंकि बड़े शहर में कोई व्यापारी ऐसी रिक्वेस्ट मानने में वक्त जाया नहीं करता। खैर, मैंने उसे बड़े दिल वाला शहर माना, चाहे छोटा ही सही।खूब सूरत लाल-लाल पत्थरों से बना वह शहर मुझे मुस्लिम देशों के शहरों जैसा लगा। बगदाद का छोटा रूप सा। ऐसी कहानिया, जिनमे सौदागर अशर्फियाँ कमाने आते हैं, ज़रूर नागौर की कहानियां भी होंगी।

शनिवार, 16 अप्रैल 2011

बाड़मेर के तन-बदन

बाड़मेर राजस्थान ही नहीं, बल्कि भारत की सीमा का जिला है जिसके पार पाकिस्तान है।भौगोलिक द्रष्टि से देखें तो यह काफी बड़ा है, क्योंकि यहाँ जनसँख्या का घनत्व काफी कम है। यह बेहद खुला-खुला सा क्षेत्र है। चौड़ी सड़कें और सीमित मात्रा में पेड़।द्रश्य इतना विस्तृत सा दीखता है कि कभी-कभी तो किसी रूसी भूभाग में होने का अहसास होता है।जब सड़क मार्ग से जोधपुर से बाड़मेर के लिए चलें तो चारों ओर फैले वीराने आपको शुरू से ही अपने आगोश में लेने लगते हैं। कुछ जोधपुर के , और कुछ बाड़मेर के गांवों से होकर जब बाड़मेर पहुँचते हैं तो वातावरण बड़ा विराट सा दिखने लग जाता है। संयोग से यदि रास्ते में सूर्यास्त का समय पड़े तो आसमान ऐसा लगता है, जैसे किसी चितेरे ने अभी-अभी आसमान के प्याले में अपनी गुलाबी-सिंदूरी तूलिका धोई है।शहर के बाज़ारों से गुज़रते हुए एक बात पर आपका ध्यान ज़रूर जायेगा। वहां घूम रही महिलाएं आपका ध्यान ज़रूर खीचेंगी। उन महिलाओं के व्यक्तित्व में आपको कई बातों का बेमिसाल असर दिखेगा। पहली बात तो यह, कि पाकिस्तान वहां से नज़दीक होने के कारण मुस्लिम ग्रामीण सौन्दर्य की झलक किसी न किसी कोण से वहां के रहवासियों में आ गयी है।जिस तरह कश्मीर और हिमाचल का सौन्दर्य अपनी आभा बिखेरता है, उसी तरह आप बाड़मेर के चेहरों पर भी नायाब प्रभा-कण पाएंगे। जोधपुर के पुष्ट संगमरमरी लहरिया में लिपटे बदन कुछ-कुछ खिसक कर बाड़मेर तक भी पहुँच गए हैं। और लम्बे-चौड़े सैन्य पड़ाव ने वहां के लोगों में मिलिटरी एरिया वाली स्मार्टनेस और चपलता भी भर दी है। पैसा तो अन्यान्य कारणों से वहां खूब है ही।

शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

दूध का जला

इतनी बड़ी और लगातार चलने वाली यात्रा में नींद पूरी तरह न ले पाना क्यों हुआ, इसका भी एक कारण रहा।मैं अपनी यात्रा के साथी ड्रायवरों में से किसी पर भी कोई संदेह या अकुशलता की शिकायत नहीं कर रहा हूँ। वे सभी पूरे मन और उत्साह से मेरी यात्रा को सफल बनने में लगे रहे। फिर भी नींद न ले पाने का कारण बन कर एक छोटी सी घटना जो हुयी वह आपको सुना देना चाहता हूँ। हम लोग रात का खाना खाकर चित्तौडगढ़ से निकल रहे थे। रात के लगभग ग्यारह बजे थे। मैं ड्रायवर के साथ वाली आगे की सीट पर बैठा था। खाने से पूरी तरह तृप्त होकर अब ड्रायवर लम्बी दूरी पार कर जाने के मूड में था। उसने मुझसे आग्रह किया कि मैं पीछे वाली सीट पर जाकर आराम से सो जाऊं।हमें एक लम्बा और अपेक्षा कृत सुनसान रास्ता लेना था जो कोटा को जाता था। मैं पीछे वाली सीट पर आकर सो गया। लगभग पौने दो घंटे के बाद किसी स्पीड-ब्रेकर पर झटके से मेरी आँख खुली।मैंने खिड़की से बाहर देखा। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नरहा जब मैंने देखा कि गाड़ी चित्तौडगढ़ के बाहरी क्षेत्र के उसी चौराहे से गुज़र रही थी जिस से पौने दो घंटे पहले हम चले थे। पूछने पर चालक ने संकोच से बताया कि वह एक चौराहे पर गलत दिशा में मुड गया था जहाँ से उसे लगभग पचपन किलो मीटर जाकर वापस लौटना पड़ा। मेरे उसे कुछ भी न कहने पर उसने रफ़्तार बढ़ा कर समय बचाने का प्रयास स्वतः ही कर दिया। उस घटना के बाद मैं रस्ते में कभी सो न सका। बाद में मुझे यह भी पताचला कि एक चौराहे पर दिशा-सूचक बोर्ड अंग्रेजी में लगा होने के कारण ड्रायवर उसे पढ़ नहीं सका था। शायद यह भूल राज मार्ग प्राधिकरण के साथ-साथ उस महकमे की भी थी जिसने संकेतों को समझने की परीक्षा लिए बिना चालक को लाइसेंस जारी किया था।

मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

अनोखा, अद्भुत और अपरम्पार

एक सौ इक्कीस करोड़ लोग एक जगह रहें तो उन्हें हर बात की एक लम्बी रेंज चाहिए। यही रेंज हमारी भी सीमा है। हम इस सीमा में रहते हुए एक एक कर उन बातों का ज़िक्र करेंगे जो इस एक सौ इक्कीस करोड़ लोगों के राष्ट्र को अनोखा,अद्भुत और अपरम्पार बनाती हैं।हम अपनी बात का आरंभ भारत के एक राज्य ' राजस्थान ' से करते हैं। आज इसे क्षेत्रफल की नज़र से देश का सबसे बड़ा राज्य होने का दर्ज़ा प्राप्त है। ऐसा हमेशा से नहीं रहा। यह तो जब कुछ वर्ष पहले भारत के तीन बड़े राज्यों, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और बिहार का विभाजन हुआ तो स्वतः हो गया। उत्तर प्रदेश से उत्तराखंड, मध्य प्रदेश से छत्तीसगढ़ और बिहार से झारखण्ड राज्य बन कर अलग हुए तब राजस्थान सबसे बड़ा राज्य बन गया। अब इस राजस्थान में कुल ३३ जिले हैं। यहाँ से २५ सांसद देश की लोक सभा में जाते हैं।यहाँ से कुल २०० विधायक चुने जाकर विधानसभा में बैठते हैं। जयपुर इस राज्य की राजधानी है जिसे पिछले काफी समय से ' पिंक सिटी ' या गुलाबी नगरी कह कर संबोधित किया जाता है। इसका कारण यह है कि इस शहर के पुराने भवनों पर गहरा भूरा सा गुलाबी देसी रंग किया जाता था। इस रंग ने इसे प्राकृतिक रंग से रंगे , सौंधी गंध वाले नियोजित शहर का दर्ज़ा दिया। और यह देश-विदेश में गुलाबी शहर के नाम से ख्यात हो गया। लोग बदलाव और नयापन पसंद करते हैं, इसलिए नए बने भवनों पर अब दूसरे रंग दीखते हैं। फिर भी कोई कोई शासक -प्रशासक इस के रंग की महिमा को बनाये रखने का प्रयास समय-समय पर करता रहा है।