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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

"डायरी-22"

आज शाम को लड़के आकर मुझे भी खेलने के लिए बुला कर ले गए। कबड्डी मैंने जीवन में पहली बार खेली। करण  के साथ दो बार खेल देखने ज़रूर गया था। पहली बार में तो मुझे ऐसा लगा, कि  इस खेल में केवल मिट्टी  में लोट-पोट होकर  अपने शरीर को जोखिम में डालना है। लेकिन बाद में मैंने खेलने वालों और देखने वालों के चेहरे पर उल्लास-भरी मुस्कान देखी  तो मेरी दिलचस्पी भी इस खेल में बढ़ी। और आज तो मैं खुद मैदान में उतर गया।
लड़के मुझे छूने और पकड़ने में संकोच कर रहे थे। लेकिन जब मैंने करण की टांग पकड़ कर उसे गिराया, और वह मुझे दूर तक घसीटने के बाद भी अंक नहीं बना पाया, तो उसकी टीम के लड़के भी संकोच छोड़ कर मेरे प्रति आक्रामक हुए। मुझे अच्छा लगा, क्योंकि इसी से मुझे चुनौती मिली। बिना किसी खर्च के खेला जाने वाला यह खेल मनोरंजक है। मैं इसके नियम सीख लूँगा। इसे हम अपने देश में भी खेलेंगे। यह खेल मित्रों को करीब लाता है।और खिड़की-झरोखों में परदे की ओट से लड़कियों को भी।

"डायरी-21"

मैं दिन में किसी समय मौका देख कर, अकेलापन ढूंढ कर लिखता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी  कोई ज़रुरत नहीं। यहाँ न कोई मेरी भाषा समझता है और न ही किसी को लिखे हुए अक्षर देखने की जिज्ञासा है। किसी दुराव-छिपाव की कोई ज़रुरत नहीं। लेकिन अब मुझे इस बात का खतरा है कि  कहीं मैं और सख्त होकर टिप्पणी  न करने लगूं।हाँ, कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि  मुझे इनकी निंदा करनी चाहिए। ये इतना पक्षपात क्यों करते हैं?
आज महल के पिछवाड़े एक ऊंचे से पेड़ पर रस्सी का झूला डाल कर महल की सभी महिलायें देर तक झूलीं। वे कुछ गाती भी रहीं, और हंसती-हंसाती रहीं।
लेकिन तभी एकाएक माहौल बदल गया, जब मंदिर के बाहरी  दालान में झाड़ू लगाने वाली औरत की छोटी सी बिटिया, थोड़ी देर के लिए खाली पड़े झूले पर आकर बैठ गई।सभी का मूड खराब हो गया। दौड़ कर कुछ दासियों ने उसे ऐसे उतारा, मानो किसी फूल पर आकर चील बैठ गई हो। ऐसा उस नन्ही लड़की की जाति  के कारण हुआ। लेकिन अब जाति तो उसकी जीवन-भर यही रहेगी। तो क्या झूला बार-बार इसी तरह धोया जाता रहेगा?

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

"डायरी-20"

ये लोग दो भागों में बँटे हैं।बहुत थोड़े से पहली श्रेणी के हैं, जो नया तलाश करते हैं। ये वही हैं, जो घर से-शहर से निकल भी जाते हैं।
दूसरी श्रेणी के लोग ज्यादा हैं। ये अपने अतीत से अधिक जुड़े हैं। इनके घरों में अपने माता-पिता या पूर्वजों की तस्वीरें दीवारों पर टँगी मिलती हैं। ये उनके गौरव को ही जीना चाहते हैं। इनकी रूचि अपनी सार्थकता बनाने में बहुत कम है। रोज़ की सफाई में इन तस्वीरों को डस्टिंग करके साफ़ करना और विभिन्न खास मौकों पर इन पर फूलों की माला चढ़ा कर इन्हें सजा देना इन लोगों को अच्छा लगता है। ये उनके आस-पास सुगन्धित धुंए से वातावरण को महकाना भी पसंद करते हैं।
करण  की माताजी ने आज जब "भगवान कृष्ण" की पूजा की, तब उनकी तस्वीर के साथ वैसा ही बर्ताव किया, जैसा पूर्वजों की तस्वीर के साथ होता है।
इस सुगन्धित धुंए से वातावरण के मक्खी-मच्छर हट जाते हैं, किन्तु पूजा के बाद कुछ मीठा तस्वीरों के आगे ज़रूर रखा जाता है, जो चींटों को पसंद होता है।

"डायरी-19"

एक बात अद्भुत है। विवाह के बाद लड़की की पूरी ज़िम्मेदारी उसके पति को ही उठानी पड़ती है।वह यदि एक पैसा भी न कमाए, तो भी उसका जीवन मज़े में गुजरता है। उस पर इस शंका की तलवार नहीं लटकती, कि  यदि उसका पति कहीं चला गया तो उसका जीवन यापन कैसे होगा।
लेकिन करण  की दादी ने आज मुझे एक ऐसी घटना सुनाई, कि  मैं शाम को खाना न खा सका। मुझे यही ख्याल आता रहा कि  ऐसा कोई कैसे कर सकता है?उन्होंने बताया कि  जब कोई लड़का मर जाता है तो उसकी पत्नी को भी अपना जीवन समाप्त करना पड़ता है। वह अपने पति का सिर  अपनी गोद में रख कर उसकी चिता पर बैठ जाती है, और सारे सगे सम्बन्धियों के देखते-देखते चिता में आग लगा दी जाती है। पति की देह तो मृत होती है पर पत्नी को जिंदा ही जलना पड़ता है। यह कैसी मनुष्यता है बाबा।
ये लोग कहते हैं कि  ऐसा दो कारणों से किया जाता है। एक तो इसलिए, कि  इस कारण हर औरत अपने पति को हर हालत में, और हर परिस्थिति में जीवित रखना चाहती है, और दूसरे इसलिए, कि  पति के न रहने के बाद औरत की देह को दूसरे लोग खराब न कर सकें। ये सब क्या है?

सोमवार, 26 नवंबर 2012

"डायरी-18"

आज मैं जो लिखूंगा वह किसी को अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी मैं लिखूंगा, क्योंकि मैंने पिछले दिनों में कई लोगों से इस बारे में बात की है।
विवाह के बाद यहाँ लम्बे समय तक जो साथ चलता है, उसके सभी कारण ख़ुशी के नहीं हैं। इस समायोजन में बड़ी भूमिका लड़कियों की ही है। लड़कियों को इस "सुनहरे रिश्ते"की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उन्हें बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि  वे पति और  ससुराल में सबको खुश रखने के लिए ही पैदा हुई हैं। खुद उनके माता-पिता भी बचपन से ही लड़कियों को कठिन प्रशिक्षण देना शुरू कर देते हैं, ताकि वे पराये घर में जाकर उनका नाम खराब न करें। घर के सभी काम उन्हें सिखाये जाते हैं, जबकि लड़के घर में इन कामों की ओर  देखना भी पसंद नहीं करते। विवाह के समय लड़कियों को सिखाया जाता है कि  अब कुछ भी हो, उन्हें उस घर से मर कर ही निकलना है। यदि विवाह से पहले किसी लड़के और लड़की के बीच शरीर सम्बन्ध हो जाये, तो यह माना जाता है कि  लड़की खराब हो गई, और लड़के का कुछ नहीं बिगड़ा।

"डायरी-17"

मुझे आश्चर्य हो रहा है, करण  के माता-पिता, इकत्तीस साल से साथ हैं। उसके दादा छियासठ साल तक केवल उसकी दादी के साथ रहे। यहाँ सभी लोग एक बार विवाह होने के बाद, सारा जीवन उसी व्यक्ति के साथ रह लेते हैं, जिसके साथ उनकी शादी होती है। अनपढ़ भी, गरीब भी, व्यापारी भी, किसान भी।
मैं यह खोज करना चाहता हूँ, कि  ये लोग जीवन साथी चुनते समय कौन सी बातें देखते हैं, क्या कोई ऐसी परीक्षा है, जिससे इतने खरे रिश्ते मिलें? ये लोग एक दूसरे को बिना देखे शादी कर लेते हैं, फिर भी इतना लम्बा समय साथ गुजारते हैं। मेरे एक मित्र के माता-पिता तो सात साल साथ रह कर जीवन साथी बने, और केवल पांच साल तक ही दोनों साथ रह पाए।
क्या किसी की सभी, सारी आदतें ऐसी हो सकती हैं, कि  हम जीवन भर उसे पसंद करते रह सकें।हम केवल तस्वीरों से या दूसरों से सुन कर किसी के शरीर के बारे में इतना कैसे जान सकते हैं कि  हमेशा उसे पसंद करते रह सकें?या शरीर की सम्बंधों में कोई भूमिका नहीं होती?
क्या परदे-घूंघट बातों को छिपाने के लिए हैं? क्या इन्हें इच्छाओं को मारना और शिकायत में मुंह न खोलना अच्छी तरह सिखा दिया जाता है। मैं जानना चाहता हूँ, ये जीते हैं या सहते हैं?

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

"डायरी-16"

वही हुआ,रात को सोने के लिए जब हम दोनों अपने कमरे में आये, करण ने मुझे बहुत चिढ़ाया। वह देर तक हँसता रहा। उसे गौशाला में काम करने वाले लड़के ने सब बता दिया। जब यहाँ सभी को पता चल गया, तो फिर आपको ही क्यों न बता दूं?
मुझे करण  ने पहले कभी बताया था, कि  महल से थोड़ी दूर पिछवाड़े में एक बहुत पुराना मंदिर है। यह मंदिर एक अंधे कुए में अधर-झूलती चट्टान पर बना है। इसे चारों ओर  से एक बूढ़े बड़ के पेड़ ने घेर रखा है। यहाँ तक पहुंचना आसान नहीं है। इस मंदिर की एक बहुत पुरानी और बड़ी मान्यता है। यदि कोई भी लड़की किसी तरह वहां पहुँच कर उस बड़  के पेड़ में किसी लड़के के नाम का धागा बाँध दे, तो वह लड़का उसे पति के रूप में  मिल जाता है।
उस दिन महल में शोर मच रहा था कि  सुबह उस अंधे कुए में किसी का बछड़ा गिर गया। लेकिन बाद में सबको पता चला कि  कोई बछड़ा नहीं, बल्कि दादाजी की सेवा करने वाली वही लड़की गिरी थी, जिसे सीढ़ियों से उतरते देख मुझे शरीरों में रिदम होने का पता चला था। उस बुद्धू लड़की ने किसी को बता भी दिया कि  वह पेड़ पर मेरे नाम का धागा बाँधने चढ़ी थी। मैं दिन भर अपने कमरे में छिपा रहा।

सोमवार, 19 नवंबर 2012

"डायरी-15"

आज बहुत मज़ा आया। पर मुझे शर्म भी आ रही है।मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि  ऐसा भी हो सकता है। लेकिन अब हो गया है तो लिखता भी हूँ। क्या यहाँ अक्सर ऐसा हो जाता है? ये लोग ऐसे दीखते तो नहीं? पर दिखने से क्या होता है? और किसी के साथ चाहे होता हो या न होता हो, मेरे साथ तो हो ही गया है न !
नहीं, मुझे यह लिखना नहीं चाहिए। क्या पता कब कौन देखे, और क्या सोचे? न भी लिखूं, तो भी मेरी याद में तो यह घटना रह जाने वाली ही है। मैं इसे आसानी से भूल नहीं पाऊंगा। ज़रूर यह करण  को भी पता चलेगा ही। उसके राजदार यहाँ बहुत लोग हैं, उस से थोड़े ही कुछ छिपा होगा।
लेकिन यदि करण  को मालूम हो जाता, तो वह मुझे कुछ तो बताता। आकर मुझे छेड़ता। हो सकता है, वह मौका मिलने पर बताये भी। हो सकता है वह मुझे बाद में छेड़े। वापस कालेज लौटने के बाद वहीँ चिढ़ाये।
आज-आज इंतज़ार करूंगा। यदि करण  को मालूम होगा तो वह मुझे बता ही देगा। न मालूम होगा तो मैं खुद क्यों बताऊँ।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

"डायरी-14"

मेरी हॉबी-क्लास में एक बार एक लड़के ने बताया था कि  हॉबी जिंदगी में कभी बदलती नहीं है। जो हमें अच्छा लगता है, वह काम हम जीवन-पर्यंत करते रहते हैं। करें न भी, पर करते रह सकते हैं, हमारी क्षमता मिटती  नहीं है।
यहाँ, इस शहर में लोगों की सबसे बड़ी हॉबी बैठ कर बातें करते रहना है। लोग सुबह नहाने-खाने के बाद पेड़ों के नीचे, दुकानों पर, मैदानों में, बैठते हैं। यदि सामने कोई न हो तो वे चुपचाप बैठते हैं, किन्तु किसी भी उम्र, व्यवसाय या अभिरुचि के किसी भी परिचित-अपरिचित  व्यक्ति के उनके सामने आकर बैठते ही वे बातें करने लग जाते हैं। एक दूसरे के सामने आते ही एक-दूसरे  का सब कुछ जान लिया जाता है। इसके बाद वे किसी तीसरे के बारे में बातें करने लगते हैं। किसी भी व्यक्ति को उसकी अनुपस्थिति में अच्छा नहीं बताया जाता। रेल और बसों के समय पर नहीं चलने की आलोचना की जाती है। आसपास से किसी भी लड़की या महिला के गुजरने पर हर उम्र के लोग उस ओर देखने लगते हैं और युवा उसी के बारे में बातें करने लगते है।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

"डायरी-13"

वे ज़रूर मुझसे जलते होंगे। वे यहाँ के स्थानीय हैं, यहीं पैदा हुए, यहीं सारा जीवन खपायेंगे, फिर भी एक अजनबी पर उनसे ज्यादा विश्वास करना उनका मनोबल तोड़ सकता है। हाँ, इनके लिए मैं तो अजनबी ही हूँ। पर ऐसा कुछ नहीं होगा। इनका मनोबल नहीं टूटेगा, क्योंकि इनमें मनोबल है ही नहीं। ये सेवक हैं, और वही करेंगे जो कहा जायेगा।
फिर भी, ये इंसान तो हैं ही। इनकी आँखों में गज़ब की निरीहता आ जाती है, जब "खजाने" वाले कमरे में करण  की माताजी के जाते समय इन सभी को गलियारे में बाहर दूर ही रोक दिया जाता है। भीतर कोई नहीं जा सकता। कोई नहीं। वह सेविका भी नहीं, जो चांदी की ट्रे में चाबियों का गुच्छा उठा कर यहाँ तक लाती है। यहाँ से चाबियां खुद आंटी अपने हाथों में उठा लेती हैं। भीतर केवल आंटी, करण  और मैं ही जाते हैं।
सोना-चांदी-हीरे और इतना धन एक साथ रखा मैंने कभी, कहीं नहीं देखा। आंटी गहने निकालती हैं, तो वही करण ट्रे थाम कर खड़ा  होता है, जो कालेज में छात्र-वृत्ति का आवेदन देता है।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

"डायरी -12"

मैंने संगीत की कक्षा में पढ़ा था कि 'शरीर में एक म्यूजिकल रिदम' होती है। मैंने इस अवधारणा को पढ़कर दिमाग से निकाल दिया था, क्योंकि यह लय की बात  मुझे समझ में नहीं आई थी।
 आज हम लोग जब दोपहर की चाय नीचे, करण के दादा के पास बैठ कर पी रहे थे, तब उन्होंने किसी काम से एक सेविका को बुलवाया। वह ऊपर थी, उसे आवाज़ देने के लिए मैं ही गया,क्योंकि करण  दादाजी की पगड़ी को ठीक कर रहा था। पगड़ी उसके हाथ में लिपटी हुई थी। मैं आवाज़ देकर कुछ देर गलियारे में ही रुक गया, यह देखने के लिए, कि  क्या उसने मेरी आवाज़ सुन कर समझ ली है, और वह आ रही है या नहीं, क्योंकि सीढियां घुमावदार और बहुत सारी थीं।
वह आ रही थी।
हाँ, मेरी म्यूज़िक टीचर ने ठीक कहा था ,शरीर में रिदम होती है। अब मैं समझा कि  टीचर का क्या मतलब था। हम, बहुत घेरदार कपड़े पहने किसी युवा लड़की को सीढियां उतरते देख कर ये कंसेप्ट आसानी से समझ सकते हैं।   

"डायरी-11"

मेरा दोस्त वहां जिस तरह रहता है, उस से हम यहाँ के रहन-सहन का बिलकुल भी अनुमान नहीं लगा पाते। ये वहां बिलकुल बदल जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि  कोई बचपन की अपनी आदतों और तौर-तरीकों को नयी जगह जाकर बिलकुल ही छोड़ दे। या तो यहाँ की बातों के मुकाबले उसे वहां के प्रचलन ज्यादा स्वाभाविक और आसान लगते होंगे, या फिर ये हमारी संस्कृति को सम्मान देता होगा। अबकी बार वहां जाने पर मैं इस से यहाँ की कुछ दिलचस्प  बातें वहां भी प्रचलित कर देने के लिए जोर डालूँगा। कितना मज़ा आएगा। मेरी मम्मी को मैं दिन में हर बार मिलने पर बहुत से विशेषणों से युक्त अभिवादनों से खिजा डालूँगा। हम भी ठन्डे फर्श पर ज़मीन में ही बैठ जाया करेंगे। नहाने के बाद कौन-कौन से केमिकल काम लिए जाते हैं, मैं भी अपने पास रखने लगूंगा।

"डायरी-10"

ये लोग आदर देने में बहुत दरिया-दिल हैं। मेरा मित्र छोटी सी बात भी अगर अपनी सत्तर वर्षीय दादी से पूछता है, तो वह पचहत्तर वर्षीय दादा से अनुमति लेकर ही जवाब देती हैं। बड़ों को मान ये खूब देते हैं, न जाने ये इनके आत्म-विश्वास में कमी है, या इनका सम्मान भाव।कोई अकेला कहीं किसी बात का जोखिम नहीं लेता। 'महाराज सा' भी कुछ घोषित करने से पहले अपने चार-छः सलाहकारों से घिर जाते हैं, तभी कुछ बोलते हैं। लेकिन सेवकों को कुछ भी बोलने की अनुमति नहीं है। वह सही बात भी बोलने से पहले केवल इस बात के लिए दुत्कार दिए जाते हैं, कि  वे बोले ही क्यों।कभी-कभी मुझे लगता है कि  यदि कभी महल में आग भी लग जाय, तो ये केवल इशारों से ही बता पायेंगे। क्षमा, आग क्यों लग जाए? ये अच्छे लोग हैं। मेरे तो मेज़बान।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

डायरी-9

ये लोग बहुत सारे कपड़े  पहनते हैं, गर्म मौसम में भी हर सुबह नहाने के बाद बदन पर टांगने और लपेटने के लिए इनके पास बहुत कुछ है। लेकिन यह इन चीज़ों के बिना दीखते हुए शरीर को भी चाव से देखते हैं।लगता है कि  इन्हें खुला बदन देखना अच्छा लगता है। शाम को घने पेड़ों के नीचे जब युवा लोग कसरत करते हैं, तो बड़े-बूढ़ों  के साथ महिलायें भी होती हैं, जो अपना चेहरा ढक  कर भी इनका खुला बदन देखती और खुश होती हैं। "कबड्डी" कहे जाने वाले एक खेल में इनकी चपलता देखते बनती है, गाँव के बुज़ुर्ग लोग इसे बच्चों की तरह ललक से देखते हैं और इन्हें ईनाम भी देते हैं। मेरे दोस्त के पिता के कई ज़िम्मेदार और संजीदा अधिकारी इस खेल में मिट्टी  में लोट-पोट  हो जाते हैं। महिलाओं को नहाते देखना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन यह कई लोगों को बेहद अच्छा लगता है। यहाँ कुछ होने और माने जाने में बड़ा अंतर है।