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I am a freelancer running 'Rahi Sahyog Sansthan', an NGO working towards the employment of rural youth in India

रविवार, 23 दिसंबर 2012

"डायरी-29"

आज मैंने चाँद को समझने की कोशिश की। ये खींचता है। ये वही चाँद है जिसे मैंने बचपन से देखा है। अपने देश के आकाश में भी देखा है। लेकिन मैं छोटा हूँ, इसलिए मैंने इसे केवल देखा। अभी पंद्रह साल ही तो पूरे हुए हैं मेरे।
एक बात बताऊँ? भारत में वो उम्र सुनहरी मानी जाती है, जिसमें पिछले दिनों मैं पड़ गया। इसलिए मैंने ये गुस्ताखी कर डाली। सब कुछ देख कर छत से एक बार नीचे उतर आने के बाद, मैं एक बार सबकी नज़र बचा कर फिर से छत पर चला गया। किसी को मालूम नहीं पड़ा, करण को भी नहीं।
ताज कल ही दिखेगा।कुछ देर पहले जब गाइड ने बताया था कि  वह 'उस' दिशा में है, तब वहां हलके से रुपहले बादल थे, इसलिए कुछ नहीं दिखा।
बादल अब भी हैं। ये बरसने वाले बादल नहीं हैं, ये केवल ताज पर कुदरत का एक झीना पर्दा है। इसने ताज को तो छिपा लिया, लेकिन यहाँ की हवा को कमान पर चढ़ा दिया।अब मैं उतना छोटा भी नहीं हूँ, कि  आप मेरी बात को अनदेखा करदें।
ये एक हरियाली से ढका छोटा, लेकिन मादक शहर है। ये मत सोचिये कि  हमने मदिरा पीली है, मुझ पर तारी प्रमाद हवा के रास्ते मेरी उम्र पर आया है। अपनी झोली में ये हवा ताज की आत्मा पर वारकर कुछ हीरे लिए फिर रही है। कल अभी दूर है। मैंने कभी सोचा नहीं था कि  अपनी उम्र के सोलहवें साल में मैं दुनिया के मायावी आश्चर्य के साये में रात की धूप का सामना करूंगा, और मेरे अंगों को मंत्र अभिषिक्त करने के लिए नियति मुझे सात समंदर पार ऐसे प्रेमनगर में लाएगी।     

शनिवार, 15 दिसंबर 2012

"डायरी-28"

करण के पिता की ख्याति यहाँ तक है। हम आगरा आ पहुंचे हैं, लेकिन यहाँ हम अकेले या अजनबी नहीं हैं। जिस जगह हम ठहरे हैं, वहां हमारे बहुत से सेवकों का आगमन हो चुका है।आज मुझे नींद आना बहुत मुश्किल है, क्योंकि करण  ने बताया है कि  जहाँ हम ठहरे हुए हैं, वहां से केवल सात मील की दूरी पर ताजमहल है।
प्रेम की निशानी के इतना करीब आकर कोई  कैसे सो सकता है? प्रेम तो जागना सिखाता है, सोना नहीं।
मेरी उम्र अभी ऐसी बातें करने की नहीं है।लेकिन वह कभी तो होगी। मैं प्रेम को थोड़ा-थोड़ा समझने लगा हूँ।इसमें बदन खेत हो जाता है।खेत की मिट्टी भी तो देखते-देखते हरी हो जाती है, न जाने क्या-क्या उग जाता है।
कुछ कहीं से आ कर शरीर से लिपट जाता है, ऐसा भारीपन। कुछ जिस्म से निकल कर कहीं चला जाता है, ऐसा हल्कापन। मैं कुछ नहीं जानता। मैं कल बात करूंगा।
एक बुज़ुर्ग सा गाइड हमारे साथ आया है। वह कहता है कि हम आज चाँद को देखें।यदि चाँद हमारा आज का देखा हुआ होगा, तभी वह कल हमें समझ में आएगा। चाँद कैसे समझ में आता है, यह नई बात है। कल मैं  आपको बता सकूंगा। कल मुझमें कोई न कोई तब्दीली ज़रूर होगी। मुझे ऐसा लग रहा है कि  आज मेरे लिए किसी बात की आखिरी रात है।
मैं आपको यह बता नहीं पा रहा हूँ कि मेरे बदलाव का साक्षी कौन होगा। क्योंकि यह खुद मुझे भी नहीं पता, लेकिन शायद कल मैं वैसा न रहूँ, जैसा आज हूँ।मुझे कोई नया सबक सिखा रहा है।         

गुरुवार, 13 दिसंबर 2012

"डायरी-27"

मुझे ऐसा महसूस हो रहा है कि  हमारे पास तसवीर खींचने की तकनीक ज्यादा उम्दा और सुविधा-जनक है, इसीलिए हमारे स्थान ज्यादा सुन्दर और लोकप्रिय दिखाई देते हैं। वरना भारत के कुछ स्थान वास्तव में ज्यादा सुन्दर हैं। मैं खुद अपने मित्र के महल में मेहमान हूँ, फिर भी यह महल मुझे बेहद खूबसूरत और आकर्षक लग रहे हैं। ताज का शहर आगरा अभी दूर है, पर मुझ पर यहीं से रंग चढ़ रहा है। क्या है, कोई प्लास्टर नहीं, कोई रंग नहीं, फिर भी केवल पत्थरों से इतनी नक्काशी? कितने रंगों के, कितने चमत्कारों भरे पत्थर होते हैं यहाँ।
लाल पत्थर की विशाल हवेली, भीतर से इतनी ठंडी और सम्पूर्ण, कि  इसमें से निकलने को जी न चाहे। कुछ ही दूरी पर पीले पत्थरों का भव्य शिल्प। एक ही जगह पर इतने विविधता-भरे पत्थर कैसे मिल सकते हैं? ज़रूर यह दूर-दूर से लेकर आये गए होंगे। एक और अजूबा।
इन्हें कौन बना कर देता है यह कलात्मक डिजाइनें? मशीनें तो हरगिज़ नहीं। फिर ये कैसे हाथ हैं, जो इन्हें गढ़ गए? शाहजहाँ और मुमताज़ का प्यार तो दिखेगा तब दिखेगा, इनके हाथ चूमने की इच्छा होती है। मुझे तो सचमुच उन कारीगर आत्माओं से प्रेम हो गया है।ये न एक आदमी का काम है, न एक दिन का। हज़ारों लोग पूरे मनोयोग से लगे रहे होंगे महीनों तक। क्यों? क्या मिला उन्हें? कहीं उनका नाम तक तो लिखा नहीं है इन पर?

सोमवार, 10 दिसंबर 2012

"डायरी-26"

ये लोग भी अजीब हैं। कुछ बातों को करने में शरमाते हैं। बल्कि करने में नहीं शरमाते,बताने में झिझकते हैं। यहाँ एक दूसरे  का जूठा नहीं खाया जाता। लेकिन कल दोपहर को जब मैं और करण  खाना खाकर उठे, तो एक लड़की बर्तन समेटने आई। हम उसकी ओर ध्यान दिए बिना कमरे से बाहर निकल गए। थोड़ी देर में मुझे ध्यान आया, कि  मैं अपना रुमाल वहीँ रखा हुआ छोड़ आया हूँ। मैं उसे लेने के लिए कमरे में वापस गया तो मैंने देखा कि  वह लड़की करण  की थाली से उसकी छोड़ी हुई खीर को पी रही थी। मेरी आहट से वह पलट कर अपने काम में लग गई।
मैं नहीं मानता कि  उस घर में खीर की ऐसी कमी होगी, जो उसे छिप कर इस तरह दूसरे की थाली से पीनी पड़े।यह अवश्य कुछ और है। करण  भी नौकरानी की इस शिकायत पर क्रोधित नहीं हुआ, बल्कि वह हंसने लगा। 
ये लोग स्त्री-पुरुषों के इतने असंतुलित अनुपात रखते हैं, कि एक दूसरे के बदन के लिए सब लालायित रहें। यहाँ गर्मी में कपड़े कुछ कम करदो, तो चारों ओर  से आँखें चौकन्नी होकर तसवीर उतारने लगती हैं।
लेकिन पिछवाड़े वाले बगीचे में एक मोर आकर जिस तरह नाच रहा था, वह अद्भुत है। ऐसा मैंने और कहीं नहीं देखा। दो महिलायें तो बिलकुल उसके करीब से गुजरीं। पर मोर का नर्तन यथावत रहा।
करण  कहता है, यह भारत का अकेला ऐसा पक्षी है, जिसका नर मादा से ज्यादा सुन्दर होता है। लेकिन शायद करण को ध्यान नहीं होगा, हमने गाँव के एक मेले में जिस मुर्गे की लड़ाई देखी थी, वह भी अपनी मुर्गी से कहीं ज्यादा आकर्षक था। हाँ, करण  की दादी माँ की बात अलग है, वे तो लम्बे घूंघट में ढकी रहती हैं। इसीलिए दादा जी ज्यादा चहकते हैं।        

शुक्रवार, 7 दिसंबर 2012

"डायरी-25"

आज मुझे ताजमहल सपने में दिखा। यह चमत्कार जैसी कोई बात नहीं है, मैंने तस्वीरों में तो ताज को कई बार देखा ही है। लेकिन फिर भी यहाँ मैंने जिसे भी सपने की बात बताई, उसने यही कहा, इसका अर्थ यही है कि  मैं अब ताज को प्रत्यक्ष देखने वाला हूँ। करण  भी अब ठीक है, हम जाने का कार्यक्रम बना रहे हैं।
आज मुझे एक शैतानी सूझी। मुझे लगता है कि  "प्यार की निशानी" देखते समय वह चेहरा ध्यान में ज़रूर होना चाहिए, जो आपको प्यारा हो? प्यार की छाँव में आँखें बंद करके बैठने पर आपकी स्मृति-पट्टिका पर झिलमिलाता वही चेहरा, होना भी तो चाहिए। आपको बतादूँ, पहली नज़र में ऐसा कोई चेहरा अभी तक मेरे पास नहीं है। मैं अभी छोटा भी तो हूँ। फिर मैं उस विश्व-प्रसिद्ध अजूबे में क्या देखूँगा? उसका स्थापत्य?
नहीं, मुझे देखना है कि सदियों तक प्यार को  सहेजने वाला यह महल मन में कैसे लहरें उठाता है।मैं कुछ सोच नहीं पा रहा। यदि मेरे नाम का धागा बाँधने किसी सूने मंदिर के भुतहा पेड़ पर चढ़ी कोई लड़की फिसल कर नीचे गिर पड़े, तो इससे भी मुझे ताज के अहाते में बैठ कर सोचने के लिए कोई छवि नहीं मिलती। ये तो उस लड़की की बेवकूफी है। मेरा भविष्य थोड़े ही?
फिर वहां मुझे कौन दिखेगा? क्या वह लड़की, जिसने उस दिन मेरे बैग में रखी चॉकलेट बिना पूछे खा ली थी? नहीं, जब तक वह अपने बालों का स्टाइल ठीक नहीं करती, मैं ताज के सामने बैठ कर उसके चेहरे की कल्पना नहीं कर सकता।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

"डायरी-24"

धीरे-धीरे मैं बिलकुल यहाँ का ही बनता जा रहा हूँ। अब करण के पैर में चोट लगी है तो हम कहीं नहीं जाते। दोपहरी बहुत लम्बी होती है। जब करण सो रहा था, तब मैं तीसरे पहर पीछे वाले बड़े छज्जे पर टहलता हुआ बाग़ की चिड़ियों को अठखेलियाँ करते हुए देख रहा था। तभी गैराज वाले खान साहब का बेटा  चला आया, और मुझसे बोला- "आओ, मैं आपके सिर  पर साफा बांधूंगा"। वह बहुत सुन्दर बहुरंगी साफा लाया था। मेरे हाथ में लगातार आइना लगा रहा। मेरा चेहरा कैसा दमकने लगा।
बाद में उसने मुझे कुरता और धोती भी पहनाई। एकदम बारीक कपड़े  की इतनी हलकी पोशाक, मानो आपने कुछ पहन ही न रखा हो। मैं तो बार-बार पैरों पर हाथ फेर कर यही देखता रहा, कि  कुछ है न? हाँ, सिर  पर ज़रूर ऐसा महसूस होता रहा, जैसे सारी दुनिया की हलचल, हैंगिंग गार्डन की तरह आपके सिर  पर ही सजी हो। सुनहरी नोंकदार जूतियाँ भी मुझे पहननी पड़ीं। चलो, मुझे कौन सा कहीं जाना था? थोड़ी देर के खेल के बाद लड़के ने खुद ही मेरे कपड़े  उतार दिए। हाँ, पर मैं उस पोशाक में अपनी तस्वीरें खिंचवाना नहीं भूला।

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

"डायरी-23"

मेरे वापस जाने के अब केवल उनतीस दिन बाकी रह गए हैं। करण कह रहा था, कि  कल हम 'ताजमहल' देखने जायेंगे। हमने अपने स्कूल के दिनों में जिन चीज़ों को संसार के महान आश्चर्यों के रूप में पढ़ा है, उन्हें प्रत्यक्ष देखना कैसा होगा, यह आप सोच सकते हैं।
मैं छोटा हूँ, लेकिन फिर भी आपको विश्वास दिलाता हूँ, कि  मैं इस इमारत की उस धड़कन को पकड़ने की कोशिश करूंगा, जिसने इसे अमर-प्रेम की निशानी बनाया है। मैं शीशे की एक बोतल में इसे उतारूंगा, और साथ में खुद भी उतर जाऊँगा। मैं देखना चाहता हूँ कि  पत्थर पर प्यार कैसे चिपकाया जाता है?पत्थर से प्यार कैसे निचोड़ा जाता है? पत्थर में प्यार कैसे सहेजा जाता है? मैं वहां जाकर क्या करूंगा, यह आपको बता नहीं सकता, क्योंकि मैं खुद नहीं जानता। संगमरमर की यह उलटी प्याली प्यार को ढांप कर कब से रखी है, कि  बस दुनिया में इसकी खुशबू उड़ती है। दादाजी कहते हैं कि  इसके रंग भी उड़ते हैं।
अरे, पर मैं आने वाले कल में इतना कैसे डूब गया, कि  मैंने आज को दरकिनार ही कर दिया। आपको यह तक बताना भूल गया कि  आज सुबह की सैर के समय करण  घोड़े से गिर गया। उसके पैर पर पट्टी बंधी है।   

गुरुवार, 29 नवंबर 2012

"डायरी-22"

आज शाम को लड़के आकर मुझे भी खेलने के लिए बुला कर ले गए। कबड्डी मैंने जीवन में पहली बार खेली। करण  के साथ दो बार खेल देखने ज़रूर गया था। पहली बार में तो मुझे ऐसा लगा, कि  इस खेल में केवल मिट्टी  में लोट-पोट होकर  अपने शरीर को जोखिम में डालना है। लेकिन बाद में मैंने खेलने वालों और देखने वालों के चेहरे पर उल्लास-भरी मुस्कान देखी  तो मेरी दिलचस्पी भी इस खेल में बढ़ी। और आज तो मैं खुद मैदान में उतर गया।
लड़के मुझे छूने और पकड़ने में संकोच कर रहे थे। लेकिन जब मैंने करण की टांग पकड़ कर उसे गिराया, और वह मुझे दूर तक घसीटने के बाद भी अंक नहीं बना पाया, तो उसकी टीम के लड़के भी संकोच छोड़ कर मेरे प्रति आक्रामक हुए। मुझे अच्छा लगा, क्योंकि इसी से मुझे चुनौती मिली। बिना किसी खर्च के खेला जाने वाला यह खेल मनोरंजक है। मैं इसके नियम सीख लूँगा। इसे हम अपने देश में भी खेलेंगे। यह खेल मित्रों को करीब लाता है।और खिड़की-झरोखों में परदे की ओट से लड़कियों को भी।

"डायरी-21"

मैं दिन में किसी समय मौका देख कर, अकेलापन ढूंढ कर लिखता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि इसकी  कोई ज़रुरत नहीं। यहाँ न कोई मेरी भाषा समझता है और न ही किसी को लिखे हुए अक्षर देखने की जिज्ञासा है। किसी दुराव-छिपाव की कोई ज़रुरत नहीं। लेकिन अब मुझे इस बात का खतरा है कि  कहीं मैं और सख्त होकर टिप्पणी  न करने लगूं।हाँ, कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि  मुझे इनकी निंदा करनी चाहिए। ये इतना पक्षपात क्यों करते हैं?
आज महल के पिछवाड़े एक ऊंचे से पेड़ पर रस्सी का झूला डाल कर महल की सभी महिलायें देर तक झूलीं। वे कुछ गाती भी रहीं, और हंसती-हंसाती रहीं।
लेकिन तभी एकाएक माहौल बदल गया, जब मंदिर के बाहरी  दालान में झाड़ू लगाने वाली औरत की छोटी सी बिटिया, थोड़ी देर के लिए खाली पड़े झूले पर आकर बैठ गई।सभी का मूड खराब हो गया। दौड़ कर कुछ दासियों ने उसे ऐसे उतारा, मानो किसी फूल पर आकर चील बैठ गई हो। ऐसा उस नन्ही लड़की की जाति  के कारण हुआ। लेकिन अब जाति तो उसकी जीवन-भर यही रहेगी। तो क्या झूला बार-बार इसी तरह धोया जाता रहेगा?

मंगलवार, 27 नवंबर 2012

"डायरी-20"

ये लोग दो भागों में बँटे हैं।बहुत थोड़े से पहली श्रेणी के हैं, जो नया तलाश करते हैं। ये वही हैं, जो घर से-शहर से निकल भी जाते हैं।
दूसरी श्रेणी के लोग ज्यादा हैं। ये अपने अतीत से अधिक जुड़े हैं। इनके घरों में अपने माता-पिता या पूर्वजों की तस्वीरें दीवारों पर टँगी मिलती हैं। ये उनके गौरव को ही जीना चाहते हैं। इनकी रूचि अपनी सार्थकता बनाने में बहुत कम है। रोज़ की सफाई में इन तस्वीरों को डस्टिंग करके साफ़ करना और विभिन्न खास मौकों पर इन पर फूलों की माला चढ़ा कर इन्हें सजा देना इन लोगों को अच्छा लगता है। ये उनके आस-पास सुगन्धित धुंए से वातावरण को महकाना भी पसंद करते हैं।
करण  की माताजी ने आज जब "भगवान कृष्ण" की पूजा की, तब उनकी तस्वीर के साथ वैसा ही बर्ताव किया, जैसा पूर्वजों की तस्वीर के साथ होता है।
इस सुगन्धित धुंए से वातावरण के मक्खी-मच्छर हट जाते हैं, किन्तु पूजा के बाद कुछ मीठा तस्वीरों के आगे ज़रूर रखा जाता है, जो चींटों को पसंद होता है।

"डायरी-19"

एक बात अद्भुत है। विवाह के बाद लड़की की पूरी ज़िम्मेदारी उसके पति को ही उठानी पड़ती है।वह यदि एक पैसा भी न कमाए, तो भी उसका जीवन मज़े में गुजरता है। उस पर इस शंका की तलवार नहीं लटकती, कि  यदि उसका पति कहीं चला गया तो उसका जीवन यापन कैसे होगा।
लेकिन करण  की दादी ने आज मुझे एक ऐसी घटना सुनाई, कि  मैं शाम को खाना न खा सका। मुझे यही ख्याल आता रहा कि  ऐसा कोई कैसे कर सकता है?उन्होंने बताया कि  जब कोई लड़का मर जाता है तो उसकी पत्नी को भी अपना जीवन समाप्त करना पड़ता है। वह अपने पति का सिर  अपनी गोद में रख कर उसकी चिता पर बैठ जाती है, और सारे सगे सम्बन्धियों के देखते-देखते चिता में आग लगा दी जाती है। पति की देह तो मृत होती है पर पत्नी को जिंदा ही जलना पड़ता है। यह कैसी मनुष्यता है बाबा।
ये लोग कहते हैं कि  ऐसा दो कारणों से किया जाता है। एक तो इसलिए, कि  इस कारण हर औरत अपने पति को हर हालत में, और हर परिस्थिति में जीवित रखना चाहती है, और दूसरे इसलिए, कि  पति के न रहने के बाद औरत की देह को दूसरे लोग खराब न कर सकें। ये सब क्या है?

सोमवार, 26 नवंबर 2012

"डायरी-18"

आज मैं जो लिखूंगा वह किसी को अच्छा नहीं लगेगा। फिर भी मैं लिखूंगा, क्योंकि मैंने पिछले दिनों में कई लोगों से इस बारे में बात की है।
विवाह के बाद यहाँ लम्बे समय तक जो साथ चलता है, उसके सभी कारण ख़ुशी के नहीं हैं। इस समायोजन में बड़ी भूमिका लड़कियों की ही है। लड़कियों को इस "सुनहरे रिश्ते"की भारी कीमत चुकानी पड़ती है। उन्हें बचपन से ही यह सिखाया जाता है कि  वे पति और  ससुराल में सबको खुश रखने के लिए ही पैदा हुई हैं। खुद उनके माता-पिता भी बचपन से ही लड़कियों को कठिन प्रशिक्षण देना शुरू कर देते हैं, ताकि वे पराये घर में जाकर उनका नाम खराब न करें। घर के सभी काम उन्हें सिखाये जाते हैं, जबकि लड़के घर में इन कामों की ओर  देखना भी पसंद नहीं करते। विवाह के समय लड़कियों को सिखाया जाता है कि  अब कुछ भी हो, उन्हें उस घर से मर कर ही निकलना है। यदि विवाह से पहले किसी लड़के और लड़की के बीच शरीर सम्बन्ध हो जाये, तो यह माना जाता है कि  लड़की खराब हो गई, और लड़के का कुछ नहीं बिगड़ा।

"डायरी-17"

मुझे आश्चर्य हो रहा है, करण  के माता-पिता, इकत्तीस साल से साथ हैं। उसके दादा छियासठ साल तक केवल उसकी दादी के साथ रहे। यहाँ सभी लोग एक बार विवाह होने के बाद, सारा जीवन उसी व्यक्ति के साथ रह लेते हैं, जिसके साथ उनकी शादी होती है। अनपढ़ भी, गरीब भी, व्यापारी भी, किसान भी।
मैं यह खोज करना चाहता हूँ, कि  ये लोग जीवन साथी चुनते समय कौन सी बातें देखते हैं, क्या कोई ऐसी परीक्षा है, जिससे इतने खरे रिश्ते मिलें? ये लोग एक दूसरे को बिना देखे शादी कर लेते हैं, फिर भी इतना लम्बा समय साथ गुजारते हैं। मेरे एक मित्र के माता-पिता तो सात साल साथ रह कर जीवन साथी बने, और केवल पांच साल तक ही दोनों साथ रह पाए।
क्या किसी की सभी, सारी आदतें ऐसी हो सकती हैं, कि  हम जीवन भर उसे पसंद करते रह सकें।हम केवल तस्वीरों से या दूसरों से सुन कर किसी के शरीर के बारे में इतना कैसे जान सकते हैं कि  हमेशा उसे पसंद करते रह सकें?या शरीर की सम्बंधों में कोई भूमिका नहीं होती?
क्या परदे-घूंघट बातों को छिपाने के लिए हैं? क्या इन्हें इच्छाओं को मारना और शिकायत में मुंह न खोलना अच्छी तरह सिखा दिया जाता है। मैं जानना चाहता हूँ, ये जीते हैं या सहते हैं?

शुक्रवार, 23 नवंबर 2012

"डायरी-16"

वही हुआ,रात को सोने के लिए जब हम दोनों अपने कमरे में आये, करण ने मुझे बहुत चिढ़ाया। वह देर तक हँसता रहा। उसे गौशाला में काम करने वाले लड़के ने सब बता दिया। जब यहाँ सभी को पता चल गया, तो फिर आपको ही क्यों न बता दूं?
मुझे करण  ने पहले कभी बताया था, कि  महल से थोड़ी दूर पिछवाड़े में एक बहुत पुराना मंदिर है। यह मंदिर एक अंधे कुए में अधर-झूलती चट्टान पर बना है। इसे चारों ओर  से एक बूढ़े बड़ के पेड़ ने घेर रखा है। यहाँ तक पहुंचना आसान नहीं है। इस मंदिर की एक बहुत पुरानी और बड़ी मान्यता है। यदि कोई भी लड़की किसी तरह वहां पहुँच कर उस बड़  के पेड़ में किसी लड़के के नाम का धागा बाँध दे, तो वह लड़का उसे पति के रूप में  मिल जाता है।
उस दिन महल में शोर मच रहा था कि  सुबह उस अंधे कुए में किसी का बछड़ा गिर गया। लेकिन बाद में सबको पता चला कि  कोई बछड़ा नहीं, बल्कि दादाजी की सेवा करने वाली वही लड़की गिरी थी, जिसे सीढ़ियों से उतरते देख मुझे शरीरों में रिदम होने का पता चला था। उस बुद्धू लड़की ने किसी को बता भी दिया कि  वह पेड़ पर मेरे नाम का धागा बाँधने चढ़ी थी। मैं दिन भर अपने कमरे में छिपा रहा।

सोमवार, 19 नवंबर 2012

"डायरी-15"

आज बहुत मज़ा आया। पर मुझे शर्म भी आ रही है।मैंने कभी यह नहीं सोचा था कि  ऐसा भी हो सकता है। लेकिन अब हो गया है तो लिखता भी हूँ। क्या यहाँ अक्सर ऐसा हो जाता है? ये लोग ऐसे दीखते तो नहीं? पर दिखने से क्या होता है? और किसी के साथ चाहे होता हो या न होता हो, मेरे साथ तो हो ही गया है न !
नहीं, मुझे यह लिखना नहीं चाहिए। क्या पता कब कौन देखे, और क्या सोचे? न भी लिखूं, तो भी मेरी याद में तो यह घटना रह जाने वाली ही है। मैं इसे आसानी से भूल नहीं पाऊंगा। ज़रूर यह करण  को भी पता चलेगा ही। उसके राजदार यहाँ बहुत लोग हैं, उस से थोड़े ही कुछ छिपा होगा।
लेकिन यदि करण  को मालूम हो जाता, तो वह मुझे कुछ तो बताता। आकर मुझे छेड़ता। हो सकता है, वह मौका मिलने पर बताये भी। हो सकता है वह मुझे बाद में छेड़े। वापस कालेज लौटने के बाद वहीँ चिढ़ाये।
आज-आज इंतज़ार करूंगा। यदि करण  को मालूम होगा तो वह मुझे बता ही देगा। न मालूम होगा तो मैं खुद क्यों बताऊँ।

बुधवार, 14 नवंबर 2012

"डायरी-14"

मेरी हॉबी-क्लास में एक बार एक लड़के ने बताया था कि  हॉबी जिंदगी में कभी बदलती नहीं है। जो हमें अच्छा लगता है, वह काम हम जीवन-पर्यंत करते रहते हैं। करें न भी, पर करते रह सकते हैं, हमारी क्षमता मिटती  नहीं है।
यहाँ, इस शहर में लोगों की सबसे बड़ी हॉबी बैठ कर बातें करते रहना है। लोग सुबह नहाने-खाने के बाद पेड़ों के नीचे, दुकानों पर, मैदानों में, बैठते हैं। यदि सामने कोई न हो तो वे चुपचाप बैठते हैं, किन्तु किसी भी उम्र, व्यवसाय या अभिरुचि के किसी भी परिचित-अपरिचित  व्यक्ति के उनके सामने आकर बैठते ही वे बातें करने लग जाते हैं। एक दूसरे के सामने आते ही एक-दूसरे  का सब कुछ जान लिया जाता है। इसके बाद वे किसी तीसरे के बारे में बातें करने लगते हैं। किसी भी व्यक्ति को उसकी अनुपस्थिति में अच्छा नहीं बताया जाता। रेल और बसों के समय पर नहीं चलने की आलोचना की जाती है। आसपास से किसी भी लड़की या महिला के गुजरने पर हर उम्र के लोग उस ओर देखने लगते हैं और युवा उसी के बारे में बातें करने लगते है।

सोमवार, 12 नवंबर 2012

"डायरी-13"

वे ज़रूर मुझसे जलते होंगे। वे यहाँ के स्थानीय हैं, यहीं पैदा हुए, यहीं सारा जीवन खपायेंगे, फिर भी एक अजनबी पर उनसे ज्यादा विश्वास करना उनका मनोबल तोड़ सकता है। हाँ, इनके लिए मैं तो अजनबी ही हूँ। पर ऐसा कुछ नहीं होगा। इनका मनोबल नहीं टूटेगा, क्योंकि इनमें मनोबल है ही नहीं। ये सेवक हैं, और वही करेंगे जो कहा जायेगा।
फिर भी, ये इंसान तो हैं ही। इनकी आँखों में गज़ब की निरीहता आ जाती है, जब "खजाने" वाले कमरे में करण  की माताजी के जाते समय इन सभी को गलियारे में बाहर दूर ही रोक दिया जाता है। भीतर कोई नहीं जा सकता। कोई नहीं। वह सेविका भी नहीं, जो चांदी की ट्रे में चाबियों का गुच्छा उठा कर यहाँ तक लाती है। यहाँ से चाबियां खुद आंटी अपने हाथों में उठा लेती हैं। भीतर केवल आंटी, करण  और मैं ही जाते हैं।
सोना-चांदी-हीरे और इतना धन एक साथ रखा मैंने कभी, कहीं नहीं देखा। आंटी गहने निकालती हैं, तो वही करण ट्रे थाम कर खड़ा  होता है, जो कालेज में छात्र-वृत्ति का आवेदन देता है।

शनिवार, 10 नवंबर 2012

"डायरी -12"

मैंने संगीत की कक्षा में पढ़ा था कि 'शरीर में एक म्यूजिकल रिदम' होती है। मैंने इस अवधारणा को पढ़कर दिमाग से निकाल दिया था, क्योंकि यह लय की बात  मुझे समझ में नहीं आई थी।
 आज हम लोग जब दोपहर की चाय नीचे, करण के दादा के पास बैठ कर पी रहे थे, तब उन्होंने किसी काम से एक सेविका को बुलवाया। वह ऊपर थी, उसे आवाज़ देने के लिए मैं ही गया,क्योंकि करण  दादाजी की पगड़ी को ठीक कर रहा था। पगड़ी उसके हाथ में लिपटी हुई थी। मैं आवाज़ देकर कुछ देर गलियारे में ही रुक गया, यह देखने के लिए, कि  क्या उसने मेरी आवाज़ सुन कर समझ ली है, और वह आ रही है या नहीं, क्योंकि सीढियां घुमावदार और बहुत सारी थीं।
वह आ रही थी।
हाँ, मेरी म्यूज़िक टीचर ने ठीक कहा था ,शरीर में रिदम होती है। अब मैं समझा कि  टीचर का क्या मतलब था। हम, बहुत घेरदार कपड़े पहने किसी युवा लड़की को सीढियां उतरते देख कर ये कंसेप्ट आसानी से समझ सकते हैं।   

"डायरी-11"

मेरा दोस्त वहां जिस तरह रहता है, उस से हम यहाँ के रहन-सहन का बिलकुल भी अनुमान नहीं लगा पाते। ये वहां बिलकुल बदल जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि  कोई बचपन की अपनी आदतों और तौर-तरीकों को नयी जगह जाकर बिलकुल ही छोड़ दे। या तो यहाँ की बातों के मुकाबले उसे वहां के प्रचलन ज्यादा स्वाभाविक और आसान लगते होंगे, या फिर ये हमारी संस्कृति को सम्मान देता होगा। अबकी बार वहां जाने पर मैं इस से यहाँ की कुछ दिलचस्प  बातें वहां भी प्रचलित कर देने के लिए जोर डालूँगा। कितना मज़ा आएगा। मेरी मम्मी को मैं दिन में हर बार मिलने पर बहुत से विशेषणों से युक्त अभिवादनों से खिजा डालूँगा। हम भी ठन्डे फर्श पर ज़मीन में ही बैठ जाया करेंगे। नहाने के बाद कौन-कौन से केमिकल काम लिए जाते हैं, मैं भी अपने पास रखने लगूंगा।

"डायरी-10"

ये लोग आदर देने में बहुत दरिया-दिल हैं। मेरा मित्र छोटी सी बात भी अगर अपनी सत्तर वर्षीय दादी से पूछता है, तो वह पचहत्तर वर्षीय दादा से अनुमति लेकर ही जवाब देती हैं। बड़ों को मान ये खूब देते हैं, न जाने ये इनके आत्म-विश्वास में कमी है, या इनका सम्मान भाव।कोई अकेला कहीं किसी बात का जोखिम नहीं लेता। 'महाराज सा' भी कुछ घोषित करने से पहले अपने चार-छः सलाहकारों से घिर जाते हैं, तभी कुछ बोलते हैं। लेकिन सेवकों को कुछ भी बोलने की अनुमति नहीं है। वह सही बात भी बोलने से पहले केवल इस बात के लिए दुत्कार दिए जाते हैं, कि  वे बोले ही क्यों।कभी-कभी मुझे लगता है कि  यदि कभी महल में आग भी लग जाय, तो ये केवल इशारों से ही बता पायेंगे। क्षमा, आग क्यों लग जाए? ये अच्छे लोग हैं। मेरे तो मेज़बान।

मंगलवार, 6 नवंबर 2012

डायरी-9

ये लोग बहुत सारे कपड़े  पहनते हैं, गर्म मौसम में भी हर सुबह नहाने के बाद बदन पर टांगने और लपेटने के लिए इनके पास बहुत कुछ है। लेकिन यह इन चीज़ों के बिना दीखते हुए शरीर को भी चाव से देखते हैं।लगता है कि  इन्हें खुला बदन देखना अच्छा लगता है। शाम को घने पेड़ों के नीचे जब युवा लोग कसरत करते हैं, तो बड़े-बूढ़ों  के साथ महिलायें भी होती हैं, जो अपना चेहरा ढक  कर भी इनका खुला बदन देखती और खुश होती हैं। "कबड्डी" कहे जाने वाले एक खेल में इनकी चपलता देखते बनती है, गाँव के बुज़ुर्ग लोग इसे बच्चों की तरह ललक से देखते हैं और इन्हें ईनाम भी देते हैं। मेरे दोस्त के पिता के कई ज़िम्मेदार और संजीदा अधिकारी इस खेल में मिट्टी  में लोट-पोट  हो जाते हैं। महिलाओं को नहाते देखना अच्छा नहीं माना जाता। लेकिन यह कई लोगों को बेहद अच्छा लगता है। यहाँ कुछ होने और माने जाने में बड़ा अंतर है।

मंगलवार, 9 अक्तूबर 2012

"डायरी-8"

   आज यहाँ कोई त्यौहार है।सुबह से ही चहल-पहल है। आज राजा और रानी साहिबा का उपवास रहेगा। करण  ने बताया कि महल के सारे लोग उसके पिता और माँ  के सम्मान में भोजन नहीं करेंगे। शाम को सबका सामूहिक भोजन होगा। करण  के चाचा ने करण  और मुझे अपने भवन में बुलाया है, आज हम दोपहर का भोजन वहीँ खायेंगे। बाद में पास के जंगल में हम शिकार के लिए भी जायेंगे। महल के गलियारों में शेर, बारह-सिंघा, हरिण  आदि के जितने भी सर टंगे हैं, वे सब करण  के चाचा के ही मारे हुए हैं। महल में काम करने वाले एक लड़के ने मुझे बताया था कि  जब करण  के पिता शिकार पर जाते हैं तो एक दिन पहले महल के दर्ज़नों आदमियों को जाकर जंगल में जानवरों को घेरना पड़ता है। वे पत्थरों से घिरे एक बाड़े में घेर दिए जाते हैं। मैंने भी ट्रेन से आते समय पहाड़ों की तलहटी में पत्थरों की लम्बी-लम्बी दीवारें रास्तों में देखी थीं।

रविवार, 7 अक्तूबर 2012

"डायरी-7"

   घर के बहुत सारे कमरे बंद हैं, जो कभी नहीं खुलते। करण  कहता है कि  एक दिन इन्हें खुलवा कर देखेंगे, कि  इनमें क्या रखा है। मैंने वहां काम करने वाले लड़कों से पूछा तो वे कहते हैं कि  जब भी राज-घराने में किसी की मृत्यु हो जाती है तो जिस कमरे में मौत हो उसे हमेशा के लिए बंद कर दिया जाता है। उस व्यक्ति का निजी सामान और पसंद की वस्तुएं भी उस कमरे में रख दी जाती हैं।
   यह देखना दिलचस्प होगा कि  कौन दिवंगत व्यक्ति किस व्यक्तित्व और अभिरुचि का होगा। शायद कभी कोई इस सामग्री को एक संग्रहालय में बदल देगा।

शनिवार, 6 अक्तूबर 2012

"डायरी-6"

   आज हलकी सी सर्दी थी। एक ऊँट-गाड़ी ने तीन चक्कर लगा कर आठ-दस कटे पेड़ों की लकड़ियों का ढेर एक बड़े दालान में लगा दिया, वहां बड़ी भट्टी में सुलगती आग पर खौलते पानी में कई तरह के परफ्यूम डाले गए। लगभग पंद्रह बाल्टी पानी लाकर गुसल में रखे टब  में डाला गया। सात-आठ युवतियों ने दो चक्कर लगा कर पानी भर दिया। वातावरण में भीनी सुगंध देर तक बसी रही। मैंने आज नहाने में कुछ ज्यादा वक्त लिया। करण उसी सरोवर में नहाया, जिसमें ठंडा पानी था। वह कहता है कि  उसके लिए गुनगुनी गर्मी से ज्यादा महत्वपूर्ण है कुछ देर तैरना।  

बुधवार, 3 अक्तूबर 2012

"डायरी-5"

   आज आँख जल्दी खुल गई। मैंने महल के बुर्ज़ पर जाकर देखा तो बहुत अच्छा लगा। करण के पिता पीछे बगीचे में टहल रहे थे। उन्होंने हाथ उठा कर मेरा अभिवादन किया। तीन महिलाओं के पास केवल यह काम था कि  वे छोटे बुर्ज़ पर कबूतरों को दाना डालें। वे मुस्तैदी से ऐसा कर रही थीं। घर का कोई सेवक किसी भी तरह का व्यायाम नहीं कर रहा था, फिर भी सब उम्दा सेहत वाले स्वस्थ लोग हैं। करण  जागा नहीं था, किन्तु मुझे जागा देख कर बटर-मिल्क कमरे में भेजा गया। गिलास काफी बड़ा है, आश्चर्य यह कि  उसके साथ रखे मिटटी के सुन्दर बर्तन में इतना बटर -मिल्क है, कि  मैं 25 दिन तक पी सकूं।

"डायरी-4"

   उनका कष्ट कोई नहीं मिटा सकता, क्योंकि यह कष्ट किसी ने दिया नहीं है। लेकिन उनके चेहरे से ऐसा लगता भी नहीं, कि  इस से उन्हें कोई कष्ट है। उनसे मिलने के बाद मैंने अपने कमरे में आने के बाद एक छोटी सी पिन अपनी नाक पर चुभोने की कोशिश की थी। मुझे काफी दर्द हुआ। मैं नहीं मान सकता कि  कोई नाक के आर-पार कील से छेद  करदे तो नाक के मालिक को दर्द नहीं होगा। लेकिन फिर उस छेद में अन्य धातुओं की चीज़ें फसा लेना, और हमेशा  इसी तरह रहना, ऊपर से गर्व से कहना कि  इस छेद में जो हीरा है, वह बहुत वजनी है, मुझे नहीं पता कि  यह सब क्या है? यह बात मैं अपने मित्र से नहीं पूछूँगा क्योंकि उसकी माताजी पूरे क्षेत्र की सबसे सम्मानित महिला हैं।

मंगलवार, 2 अक्तूबर 2012

"डायरी-3"

   घर में काम करने वाले ये लोग कर्मचारी नहीं, सेवक हैं। इनकी सहनशक्ति बहुत जबरदस्त है। ये विश्वसनीय भी हैं, ये पिता से पुत्र की बातें और माता से पुत्री के राज भी बखूबी छिपा कर रख लेते हैं। जब ये नौकरी छोड़ कर जायेंगे, तो डर है कि घर में कहर टूटेगा। मेरा मित्र कहता है कि  यह कभी छोड़ कर नहीं जायेंगे। वह कहता है कि  यहाँ उसके दादा के रखे हुए लोगों के पोते भी उसी बफादारी से काम करते हैं। इन्हें कोई नयी बात नहीं सिखाई जाती, केवल जो जिसकी खूबी है, उसे ही पहचान कर उसे तैनाती दी जाती है।
   परसों आंटी के बड़ी मसनद लगा लेने से गर्दन में जो दर्द हुआ, उसे निकालने के लिए रसोई से चटनी पीस रही महिला को बुलाया गया।

रविवार, 30 सितंबर 2012

"डायरी-2"

   खाने के समय अपनी निरीहता का अहसास होता है, इतनी सारी  चीज़ें परोसी जाती हैं कि उनमें से खाने के लिए कुछ चुनना कठिन एक्सरसाइज़ है। आप खा रहे हों, और आठ-दस लोग चारों ओर  खड़े होकर देख रहे हों, तो आपको अपने किसी चिड़ियाघर में होने का अहसास होता है। मैं शाम को छिपकर देखने की कोशिश करूँगा कि  इस बाकी बचे खाने का क्या होता है। शाम की सैर के समय मैं अपने मित्र को इन बातों के लिए चिढाऊंगा भी।  ये सभी इस तरह परोस रहे हैं, मानो भोजन करने का सिलसिला कभी ख़त्म नहीं होगा। जो वस्तु समाप्त होती है, वही और रख दी जाती है। क्या भोजन का यह चक्र कभी ख़त्म होगा?  कैसे? क्या हम अपने उदर का कोई नक्षा बनाकर भोजन-गृह में टांगें?

शुक्रवार, 28 सितंबर 2012

"डायरी"-1

   बाहर से इस महल को देख कर मैं समझा था कि  थोड़े से लोगों के लिए इतनी बड़ी इमारत ? पर भीतर आकर पता चला कि  अन्दर बहुत सारे लोगों की भीड़ है। लगभग साठ लोग तीन लोगों के जीवन को जीवन बनाने में जुटे हैं। मैं इस बारे में अपने मित्र से कुछ नहीं पूछ सकता, क्योंकि उसे कुछ पता नहीं है। वह कहता है कि ये लोग मैंने नहीं बुलाये, मेरे पिता ने बुलाये हैं। इन सब पर घर के लोग कितने अवलंबित हैं, यदि किसी दिन ये लोग यहाँ न आयें, तो घर के लोग 'स्टेचू' होकर रह जायेंगे।यहाँ सब कुछ इस तरह चलता दिखाई देता है जैसे जीवन  किसी ट्रॉली में रख कर कई लोगों द्वारा धकेला जा रहा हो। मेरे मित्र का परिवार जैसे किसी मंच पर सजा  है, कुछ भी गोपनीय नहीं।

गुरुवार, 27 सितंबर 2012

किसी की डायरी पढना अच्छी बात नहीं, फिर भी आपको अनुमति है- "डायरी"

[पहला पृष्ठ खाली  है, केवल बारीक अक्षरों में लिखने वाले के  हस्ताक्षर हैं- -सैम्युअल  स्मिथ [उम्र 15 साल]
"किसी को किसी पर टिप्पणी करने का कोई अधिकार नहीं है, क्योंकि हर जीवन सृष्टि ने अपनी-अपनी तरह जीने के लिए रचा है। पर एक-दूसरे को देखने और किसी की भी कोई बात चाहने या न चाहने में किसी को कोई ऐतराज़ भी नहीं होना चाहिए। "     -उक्ति 

रविवार, 2 सितंबर 2012

वह एक छोटी सी पुरानी डायरी थी

 वे बहुत मोटे और भद्दे आदमी थे। लेकिन उनके इन गुणों-अवगुणों को मुझे नज़रंदाज़ करना पड़ेगा, क्योंकि इन्ही के कारण वे मुझे मिले। वे उसी वैद्य के पास अपने लगातार बढ़ते मोटापे की दवा लेने आये थे, जिसके पास मैं अपना समय काटने की गरज से कभी-कभी बैठा करता था। उनसे वहीँ परिचय हो गया। वे बोले- बाई जी राज उनकी शिष्या हैं, क्योंकि पुराने महल के खजाने की सात चाबियों में से एक उनके पास है।इसी के साथ वे अपनी उम्र भी अट्ठासी साल बताते थे।
वे कहते थे कि  लगभग तीन सौ साल पहले इस शहर के महाराज साहब का छोटा बेटा इंग्लैण्ड में पढ़ने के लिए  गया था, और उसी के साथ विलायत से उसका एक दोस्त कुछ दिनों के लिए छुट्टियाँ बिताने हिन्दुस्तान आया था। इसी अँगरेज़ बच्चे ने यहाँ शाही परिवार की मेजबानी में घूमते हुए एक डायरी लिखी जो जाते समय वह भूल से यहीं छोड़ गया। अब वह डायरी उनके पास थी। वह दो सदियों तक पूजाघर में रखी आरती की किताबों के साथ महफूज़ रखी रही, क्योंकि शाही परिवार का कोई भी वाशिंदा अंग्रेजी नहीं जानता था। एक दिन महारानी साहिबा ने पूजा के बाद एक दौने में पंचामृत उन्हें दिया और उसी पर ढकने की गरज से वह डायरी उनके साथ उनके घर आ गयी।
अब वे उस डायरी को एक शर्त के साथ मुझे दे देना चाहते थे। शर्त यह थी कि  मैं अपने अगले उपन्यास में एक पात्र के रूप में उन्हें चित्रित करूंगा। शर्त मैंने मान ली, और अब मैं प्रस्तुत करूंगा उसी डायरी के चंद पन्ने बारी-बारी से ..."स्टिल इण्डिया" में।  

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

वो रात और उदयपुर जिले का छोटा सा गाँव

उदयपुर के दक्षिण में बसे उस छोटे से गाँव में मेरी यात्रा केवल इस लिए हुई कि वहां का रहने वाला एक लड़का उस कैंटीन में काम करता था जिस से मेरे लिए चाय आती थी. लड़के का आग्रह था कि उसकी सगाई होने के बाद सारे गाँव को दिए गए भोज में मैं भी ज़रूर आऊं.भोज का समय शाम चार बजे से था, पर सारे गाँव के आते-आते और खाते-खाते सात बज गए. साढ़े सात बजते-बजते तो गाँव में लगभग सन्नाटा व्याप गया. और मैं वहां पहुंचा साढ़े आठ बजे.जीप को सड़क पर रोक कर जब पता पूछा गया तो मालूम हुआ कि मुख्य सड़क से लगभग दो किलोमीटर अन्दर जाना होगा और कुछ आगे तो जीप भी नहीं जा सकेगी, उसे वहीँ छोड़ना पड़ेगा. मैंने सोचा कि गाड़ी को यहीं छोड़ा जाये और ये दो किलोमीटर का रास्ता पैदल घूमते हुए ही पार किया जाये.
हम तीन लोग थे. पूरे रस्ते में मिट्टी और धूल का साम्राज्य था. चलते हुए ऐसा लगता था जैसे गो-धूलि वेला में पैरों से धूल उड़ाती गायें गाँव में घुसती हैं. पर रात बिलकुल दूधिया सफ़ेद चांदनी रात थी.गाँव के मकानों की सफ़ेद बुर्जियां दूर से चाँदी के मटकों समान लगती थीं.
जब अपने मेज़बान के घर हमने दस्तक दी तब तक घर के सभी लोग सोने की तैयारी कर चुके थे. हम बस बधाई देकर वापस निकलना चाहते थे. लड़का रसोई में पानी लेने के लिए गया तो उसकी माताजी भी पीछे-पीछे चाय बनाने और खाना परोसने के लिए उठ कर आईं.
मैंने खाने के लिए मना करके उन्हें वापस भेज दिया.वे मुश्किल से मानीं, और संकोच के साथ वापस गईं. उनके जाने के बाद मैंने उस लड़के से कहा कि हम लोग अब वापस जायेंगे, और यदि वह खुद चाय बनाना जानता हो तो हमें आधा-आधा कप चाय पिला दे.
मेरा सवाल सुनकर लड़के का जो चेहरा बना, वह देखने वाला था. मैं उसकी वह भंगिमा कभी भूल नहीं सकता.जानते हैं क्यों? क्योंकि वह हमारी कैंटीन का "चाय वाला" था,जिसका रोज़ का काम पचास लोगों के लिए दिन में दो बार चाय बनाना ही था.         

शनिवार, 14 जनवरी 2012

साध्वी चित्रलेखाजी की आवाज़ घने बादलों में चमकती बिजली सी थी सादाबाद के उस कसबे में

ईश्वर को याद करने को लेकर भी दो तरह के विचार प्रचलित हैं. एक विचार कहता है कि उम्र बहुत थोड़ी है, ईश्वर को याद करने को समय निकालो. दूसरा विचार कहता है कि उम्र बीतते ही सदा के लिए ईश्वर के पास ही जाना है, अतः जब तक यहाँ हो तब तक तो ईश्वर की बनाई दुनिया का आनंद लो. हाथरस शहर के पास सादाबाद के गुलौवा में इन दोनों विचारों के साथ एक तीसरा विचार भी वातावरण में तैर रहा था- ईश्वर को मन में रख कर दुनिया का आनंद लो. शायद यह विचार दुनिया देखने की सबसे सार्थक राह है.