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मंगलवार, 3 मई 2011

डूंगरपुर में वहां शाम होते ही रात होने लगती है

जिस दिन हम लोग डूंगरपुर पहुंचे उसके अगले दिन दो बातें खास थीं. एक तो वहां की तत्कालीन जिला कलेक्टर महोदया को राजस्थान के प्रतिष्ठित दैनिक अखबार "दैनिक भास्कर" ने अपने व्यापक सर्वेक्षण में राज्य का सर्वश्रेष्ठ जिला कलेक्टर चुना था, दूसरे उसी दिन 'राजस्थान दिवस' के समारोह का आगाज़ हो रहा था. सुबह एक छोटे से समारोह में मैंने कलेक्टर महोदया को फूलों का गुलदस्ता भेंट कर बधाई दी, फिर उनके साथ ही राजस्थान दिवस के समारोह में भी शिरकत की. इस अवसर पर एक प्रदर्शनी का भी आयोजन था. डूंगरपुर दक्षिणी राजस्थान का एक आदिवासी बहुल जिला है जिसकी सीमायें उदयपुर और बांसवाडा से लगती हैं. यह एक कस्बानुमा छोटा सा शहर है, जो बीच में बने एक बड़े जलाशय के इर्द-गिर्द बसा है. इसकी सीधी बसावट में पुराने मंदिरों का बाहुल्य है. शहर से कुछ दूरी पर एक रमणीक स्थल पर पुरानी स्थापत्य कला के बेजोड़ नमूने दर्शाता एक और सुन्दर मंदिर बना है. यह बड़ी शांत जगह है. थोड़ी-थोड़ी उदास भी. ऐसा लगता है कि लम्बे समय तक उपेक्षित रहने की नाराजगी इस जगह के मन को अभी भी कड़वा किये हुए है.शहर के आस-पास खेतों और वनों की हरियाली तो है किन्तु लोग अब भी बहुत सम्रद्ध नहीं हैं. पर्यटन नगर उदयपुर की छाया इसे केवल भौगोलिक रूप में मिली है, व्यापारिक या व्यावसायिक रूप में नहीं. इसकी कुछ बस्तियां महाराष्ट्र के ग्रामीण इलाकों से साम्य रखती हैं , जबकि यह गुजरात के निकट है. जीवन यहाँ बहुत चुप-चुप सा है, शाम होते ही रात होने लगती है. हो सकता है कि मेरी बात पूरी तरह सच न हो , लेकिन मुझे लगा कि यहाँ महिलाएं पुरुषों की तुलना में ज्यादा सजग हैं. वे अपनी बेहतरी के लिए स्वप्नदर्शी ही नहीं प्रयत्नशील भी हैं. 

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