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शनिवार, 14 मई 2011

चित्तौडगढ़ ने टूटने न दिया कभी शीशे का बदन या बदन का शीशा

मानव सभ्यता के दो कोण देखिये. एक ओर तीस वर्ष का युवक पिच्चासी वर्ष के वृद्ध के लिए कहता है कि यह मेरा पिता है, और तथाकथित पिता इस से इंकार करता है. विवश होकर सरकार को वृद्ध के शरीर का जैविक परीक्षण कराना पड़ता है.दूसरी ओर एक राजकुमारी को विवाह प्रस्ताव के साथ एक युवक देखना चाहता है, और इसके लिए लाजवंती राजकन्या को सीधे युवक को न दिखा कर एक इमारत में शीशे के सामने खड़ा किया जाता है, जहाँ वह दूसरी इमारत की पानी में उतरती सीढ़ियों पर खड़ी  कन्या का अक्स शीशे में दूर से देख पाता है.इतना ही नहीं, बल्कि खिड़की के छज्जे पर एक सैनिक नंगी तलवार लेकर बैठाया जाता है, ताकि युवक गलती से भी झांक कर कहीं राजकन्या को सीधे न देख ले. 
इन दोनों घटनाओं में शताब्दियों का समय अंतराल है. लेकिन इस से कोई फर्क नहीं पड़ता, चित्तौड़ को आज भी अपने इतिहास में दर्ज इस दर्प-दीप्त कथानक पर फख्र है. वहां के किले में यह आख्यान आज भी जीवंत है, और देशी-विदेशी सैलानियों को हैरत में डालता है. इसी शहर में विजय का सर्वकालिक, सार्वभौमिक 'विजय-स्तम्भ' भी स्थित है. चित्तौड़ की कीर्ति की  यही इतिश्री नहीं है, इसका नाम राजकन्या मीरा से भी जुड़ा है,जिसने एक पत्थर के टुकड़े से तराश कर बनाई गयी मूर्ती को अपने तमाम रिश्तों से ऊपर प्रतिष्ठापित कर दिया, और दीवानगी की तमाम हदें पार कर लीं. आज चित्तौड़ तेज़ी से औद्योगिक विकास की दौड़ में शामिल एक शहर है, जिसकी फितरत से राजस्थानी आन-बाण और शान अब भी टपकती है.       

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