मैं उन दिनों वनस्थली रहता था, जिसके रेलवे-स्टेशन का नाम 'बनस्थली-निवाई' है. एक बार चूरू में एक प्रेस-कांफ्रेंस के दौरान एक स्थानीय पत्रकार ने मुझसे पूछा कि आप जहाँ से आये हैं , उस जगह का नाम हिंदी में वनस्थली और अंग्रेजी में बनस्थली क्यों लिखा जाता है. मैंने उन्हें उत्तर दिया कि बनस्थली और निवाई शहर का स्टेशन कॉमन है, यदि 'बी' की जगह 'वी' लिखा जाता तो क्रमानुसार पहले निवाई का नाम लिखा जाता. पत्रकार महोदय ने कहा- इसका मतलब नाम भी उपयोगिता देख कर रखे जाते हैं. लेकिन चूरू में हमें यह जानकारी नहीं मिल सकी कि इस नाम का अर्थ क्या है और यह क्यों पड़ा होगा? पर इस रेतीले जिले की महिमा देख कर कहना पड़ता है कि नाम में क्या रखा है? सर्दी के मौसम में यह हिल-स्टेशनों को भी मात देने वाला मैदानी शहर बन जाता है. यहाँ मिट्टी में पानी के बर्फ़ की तरह जम जाने की ख़बरें आती हैं. गर्मी में यही रेत-कण चिंगारी बन जाते हैं. वर्षा वैसे तो होती ही कम है, पर जो होती है वो भी रेत में ऐसे गिरती है जैसे गरम तवे पर पानी की बूँद. यहाँ आंधियां ज़रूर मौलिक और रंगीन चलती हैं. गर्द के गुबार ऐसे उड़ते हैं मानो अभी-अभी शिव का तांडव हो कर चुका हो. नजदीक का छोटा और शैक्षणिक शहर,जिसका नाम सरदार शहर है , इस जिले का 'थिंक-टैंक' है .मुझे चूरू के आस-पास घूमते हुए हमेशा ऐसे गावों की याद आती है जो युद्ध की पृष्ठ-भूमि वाली फिल्मों में दर्शाए जाते हैं. लेकिन शायद यह शहर 'जय जवान' से ज्यादा 'जय किसान' की मिसाल वाला है. सारा जिला रेत का समंदर सा दीखता है, जिसमे कम पानी में पनपने वाले पेड़ कहीं-कहीं द्रश्य को खूबसूरत बनाते हैं.
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