नाम पर मत जाइये, नाम में कुछ नहीं रखा. अब 'भीलों'' जैसा यहाँ कुछ नहीं दीखता. भील तो उघड़े बदन रहते हैं, पर भीलवाड़ा राजस्थान में कपड़ा उद्योग का पर्याय है.भील आखेट से अपनी उदरपूर्ति करते रहे, किन्तु भीलवाड़ा के लोग शिकार करते नहीं, शिकार होते रहे, विकास और बदलाव के.
मुझे लगता है कि भीलवाड़ा में साहित्यिक माहौल व अभिरुचि भी अन्य नगरों के मुकाबले कुछ ज्यादा है. बच्चों की प्रतिष्ठित पत्रिका 'बालवाटिका' यहीं से प्रकाशित होती है. यहाँ के कुछ आयोजनों में कभी-कभी मुझे भी शामिल होने का अवसर मिला है. मैंने देखा है कि व्यापारी, शिक्षक, विद्यार्थी व अन्य पेशेवर लोग साहित्यिक गतिविधियों के लिए मुलायम कोण रखते हैं. वे चाव से इनमे शिरकत करते हैं. शायद उद्योगों के बाहुल्य से इस तरह की गतिविधियों को आर्थिक-प्रश्रय सहज उपलब्ध हो जाता हो. भीलवाड़ा में आरंभिक शिक्षा पर भी काफी बल दिया गया है. यहाँ विद्यालयों की पर्याप्त संख्या और उनमे चलते नवाचार आकर्षित करते हैं. कुल मिला कर ऐसा लगता है जैसे शहर एक 'आदर्श' रचने के लिए कसमसा रहा हो. किसी शहर की ऐसी सोच का सम्मान सरकारों को भी करना चाहिए, और उसे बेहतर साधन-सुविधाएँ उपलब्ध करवाने चाहिए. केन्द्रीय मंत्री व राजस्थान के कांग्रेस प्रदेशाध्यक्ष जोशीजी शायद इस भावना को भांप चुके हैं.
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